२१२२ १२१२ २२
फ़ाइलातुन मुफ़ाइलुन फ़ैलुन
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रंग ख़ुशियों के कल बदलते ही,
ग़म ने थामा मुझे फिसलते ही,
मैं जो सूरज के ख़्वाब लिखती थी,
ढल गयी हूँ मैं शाम ढलते ही,
राह सच की बहुत ही मुश्किल है,
पाँव थकने लगे हैं चलते ही
वो मुहब्बत पे ख़ाक डाल गया
बुझ गया इक चराग़ जलते ही,
ख़्वाब नाज़ुक हैं काँच के जैसे,
टूट जाते हैं आँख मलते ही ...!!अनुश्री!!
स्वरचित व अप्रकाशित
Comment
आदरणीया अनीता जी,
बहुत अच्छी ग़ज़ल हुई है. हार्दिक शुभकामनाएं.
ख़्वाब नाज़ुक हैं काँच के जैसे,
टूट जाते हैं आँख मलते ही
विशेषतः यह शेर बहुत खूबसूरत है.
सादर
बहुत प्यारी ग़ज़ल कही है आपने आदरणीया अनीता जी | हार्दिक बधाई |
आप सबकी टिप्पणियों के लिए बहुत बहुत आभार, समर कबीर सर, यूँ ही मार्गदर्शन करते रहिएगा
आ. अनीता जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है ..
मतला थोडा कमज़ोर लगा जिसपर और काम किया जा सकता है...
दूसरे शेर में तकाबुले-रदीफ़ की सूरत बन रही है ..
.
राह सच की बहुत ही मुश्किल है,
पाँव थकने लगे हैं चलते ही
.
ख़्वाब नाज़ुक हैं काँच के जैसे,
टूट जाते हैं आँख मलते ही ... इन दो अशआर के लिए विशेष बधाई आपको
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