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November 2021 Blog Posts (25)

ग़ज़ल - 'आरज़ू' टूटी न उम्मीद से रिश्ता टूटा

वज़्न -2122 1122 1122 22/112

क्यों इसे आब दिया सोच के दरिया टूटा

जब समुंदर के किनारे कोई तिश्ना टूटा

एक साबित क़दम इंसान यूँ तन्हा टूटा

देख कर उसको न टूटे कोई ऐसा टूटा

वस्ल की जिस पे मुकद्दर ने लिखी थी तहरीर

वक़्त की शाख़ से वो क़ीमती लम्हा टूटा

तेरे बिन ज़ीस्त मेरी तुझ-सी ही मुश्किल गुज़री

हिज्र में मुझ पे भी तो ग़म का हिमाला टूटा

कुछ न टूटा मेरे हालात की आँधी में बस

जिसमें तुम थे वही ख़्वाबों…

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Added by Anjuman Mansury 'Arzoo' on November 3, 2021 at 11:22am — 4 Comments

परम चेतना एक (कुछ विचार)

सब धर्मों का सार जो

वह तो केवल एक

बाह्य रूप दिखता अलग

परम चेतना एक

फैलाते भ्रम व्यर्थ ही

जो विवेक से शून्य

वे मतिभ्रष्ट, विवेकहीन

उन्हे चढ़ा अहमन्य

हुए विषमता से परे 

जिन्हे सत्य का बोध

गुण-अवगुण से हो विलग

नित्य बसे मन मोद

प्रकृति और चैतन्य का

आपस का संयोग

उस दर्पण में फलीभूत 

हो ज्ञानी का योग

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on November 3, 2021 at 6:44am — 3 Comments

ग़ज़ल नूर की - ग़ज़लों का आनन्द समझ में आ जाए

ग़ज़लों का आनन्द समझ में आ जाए

काश तुन्हें यह छन्द समझ में आ जाए.

.

संस्कृत से फ़ारस का नाता जान सको

लफ्ज़ अगर गुलकन्द समझ में आ जाए.

.

रस की ला-महदूदी को पहचानों गर

फूलों का मकरन्द समझ में आ जाए.

.

दिल में जन्नत की हसरत जो जाग उठे

हों कितना पाबन्द समझ में आ जाए.

.

भीषण द्वंद्व मैं बाहर का भी जीत ही लूँ

पहले अन्तर-द्वन्द समझ में आ जाए.

.

मन्द बुद्धि का मन्द समझ में आता है

अक्ल-मन्द का मन्द समझ में आ जाए.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on November 1, 2021 at 6:00pm — 8 Comments

"दीप" की ग़ज़ल

122 122 122 122

किसी और की अब जरूरत नहीं है

मगर तुम न कहना मुहब्बत नहीं है

हुई जब से शादी तो फुर्सत नहीं है

रहूंँ मायके में इज़ाज़त नहीं है

मैं मदहोश उनकी ही यादों में रहता

मुझे भूलने की तो आदत नहीं है

सरे आम होते यहां ज़ुर्म रहते

उसे रोकने की भी हिम्मत नहीं है

तुम्हें गर न देखें थमी सांस रहती

अगर मर गया भी तो हैरत नहीं है

फ़कत इश्क़ में अब दिखावा ही दिखता

नये शोहदों में…

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Added by Deepanjali Dubey on November 1, 2021 at 3:00pm — 3 Comments

ग़ज़ल-जय गान पर

2122 2122 2122 212

1

जब भी छाए अब्र मुश्किल के वतन की आन पर

खेले हैं तब तब हमारे तिफ़्ल अपनी जान पर

2

आज़मा ले लाख अपना रौब रुतबा शान पर

हो न पाएगा कभी हावी तू हिन्दुस्तान पर

3

हम नहीं होते परेशाँ धर्म से या ज़ात से

ख़ूँ जले अपना तो झूठे और बेईमान पर

4

माना हैं मतभेद भाषा वेष भूषा धर्म में

फ़ख़्र करते हैं प सब भारत के बढ़ते मान पर

5

एक दिन ऐसा भी "निर्मल" देखना तुम…

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Added by Rachna Bhatia on November 1, 2021 at 11:00am — 5 Comments

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