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September 2018 Blog Posts (92)

इच्छा

मैं

एक पंख  

बिना उद्देश्य से उड़ता 

भाग्य की हवा की चोटी पर अनियंत्रित

हवा की धाराओं पर 

मुझे 

कृपया प्रेरित करे  

शायद एक दिन

भाग्य एक यादृच्छिक हवा 

 मुझे ले जाये

जहां मैं कभी नहीं उड़ा

उस दिशा में

 जो अंततः

मुझे पहुचाये 

आपके करीब

अमोलिक अप्रकाषित 

Added by narendrasinh chauhan on September 4, 2018 at 12:28pm — 3 Comments

जन्म :

जन्म :

अंत के गर्भ में
निहित है
जन्म
या
जन्म के गर्भ में
निहित है अंत
अनसुलझा सा
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि मुनि और
संत

योनि रूप है
देह
मुक्ति रूप
अदेह
किस रूप को
जन्म कहें
किसे रूप को
अंत
अनसुलझा सा ये
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि ,मुनि और
संत

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on September 3, 2018 at 3:04pm — 4 Comments

नॉर्थ, ईस्ट-वेस्ट और 'साउथ' (लघुकथा)

दिन- रविवार। शाम का समय। आसमान में छाये काले बादल। कभी हल्की, कभी तेज़ बरसात। आलीशान बंगले के एक अध्ययन-कक्ष में टेबल पर ग्लोब, एटलस, लैपटॉप, प्रिंटर, कुछ पुस्तकें और स्टेशनरी। कुर्सियों पर क्रमशः बारहवीं कक्षा के मित्र सहपाठी। पहला, कसी हुई जीन्स पहने, कसी हुई स्लीवलैस टी-शर्ट से हृष्ट-पुष्टता दर्शाता स्टाइलिश और दूसरी अत्याधुनिक शॉर्ट्स पहने जवानी की दहलीज़ के सौंदर्य को उभारती चंचल बातूनी सहेली, जिसकी 'मॉम' बड़ी प्रसन्न हैं अपनी बिटिया को स्कूल-प्रोजेक्ट-वर्क हेतु उसके प्रिय मित्र के साथ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 3, 2018 at 11:12am — 3 Comments

'भ्रूण-हत्या' - (लघुकथा)

डियर डायरी,

आज दिल बहुत अधिक व्यथित है। क्यों न आज अपनी भड़ास को यहीं शाब्दिक कर दूं! माता-पिता, पालक-परिवारजन, रिश्तेदार, शिक्षक, विद्यालय परिवार ही नहीं, ... नियोक्ता, सहकर्मी, अफ़सर, राजनेता और मंत्रियों से लेकर देशभक्त कहलाने का दंभ भरते औपचारिकतायें करते तथाकथित लगभग सभी नागरिक-सेवक मुझे कहीं न कहीं, कभी न कभी अपराधी, हत्यारे से सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। आसमान छूने की चाहत रखने वालों के 'भ्रूण' रूपी सपनों, कौशल-प्रतिभाओं, स्ट्रेटजीज़, रणनीतियों को समझने-परखने के बजाय, सार्थक…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 2, 2018 at 6:30pm — 4 Comments

मिश्रित दोहे -2

मिश्रित दोहे -2

आसमान में चाँद का, बड़ा अजब है खेल।

भानु सँग होता नहीं, कभी चाँद का मेल।।

नैन मिलें जब नैन से, जागे मन में प्रीत।

दो पल में सदियाँ मिटें, बने हार भी जीत।।

बंजारी सी प्यास ने, व्यथित किया शृंगार।

अवगुंठन में प्रीत के, शेष रहे अँगार।।

आखों से रिसने लगा, बेआवाज़ अज़ाब।

अश्कों के सैलाब में, डूब गए सब ख्वाब।।

रिश्तों से आती नहीं, अपनेपन की गंध।

विकृत सोच ने कर दिए, दुर्गन्धित…

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Added by Sushil Sarna on September 2, 2018 at 3:00pm — 10 Comments

गजल- इतना भी समझदार नहीं था

वज़्न 221   1221 1221 122

 

दिल लूट के’ कह दे कि खतावार नहीं था

वो इश्क में इतना भी समझदार नहीं था

 

आँखों से’ उड़ी नींद बताती है’ सभी कुछ

कैसे वो’ कहेगा कि उसे प्यार नहीं था

 

क्यों फेंक दिया उसने कबाड़े में मुझे…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on September 2, 2018 at 9:06am — 13 Comments

चाहता मैं नहीं था गीत गाना कोई भी।

यूँ ही..........

चाहता मैं नहीं था गीत गाना कोई भी।

तुमने मेरे अधर पर क्यों शब्द लाकर रख दिये।।

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चाहता मैं नहीं था

गीत गाना कोई भी।

तुमने मेरे अधर पर क्यों

शब्द लाकर रख दिये।।

मैं मुदित था पक्षियों को

नभ में विचरता देख कर।

तुमने आकर आंख में क्यूँ

नीड़ उनके रख दिये।।

चंद्रमा हो साथ मेरे

यह कभी सोचा नहीं था।

सूर्य पथ में साथ होगा…

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Added by SudhenduOjha on September 2, 2018 at 7:30am — No Comments

'इक दिन बिक जायेगा' (लघुकथा)

"अब तो सुधर जाओ! कुछ ही साल बचे हैं रिटायर होने में! औलाद के लिए कुछ तो ऊपरी कमाई कर लो, इंजीनियर साहब!"



"ठेकेदारी में तुम्हें जो करना है, करते रहो! मैं ह़राम की कमाई में यकीं नहीं रखता! जवान पढ़ी-लिखी औलाद अपने पैरों पर ख़ुद खड़ी हो ले या तुम लोगों माफ़िक अपना ईमान बेचकर 'होड़ और झूठ' की दुनिया में दाख़िल हो कर अपना स्टेटस बनाये-दिखाये; ये उनके ज़मीर पर है! मेहरबानी कर ये लिफ़ाफ़े आप ही आपस में बांट लें!"



".. तो पिछली बार की तरह एक लिफ़ाफ़ा बड़े साहब को ... और बाक़ी हमारे ही…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 1, 2018 at 11:55pm — 3 Comments

"अद्भुत तंत्र की अद्भुत घुट्टी" (लघुकथा)

"... और अब बंदरों से निबटने का फार्मूला भी सुन लो! बंदरों से बचना है, तो उनकी आरती करो! चालीसे गाओ, गव्वाओ!"- एक जंगली 'बंदर' को गोद में बिठाले धार्मिक वस्त्रधारी चर्चित नेताजी ने राष्ट्र के युवाओं को संबोधित करते हुए कहा, तो महाविद्यालय के उस सभागार में कुछ श्रोता युवक आपस में खुसुर-पुसुर करने लगे।



"धर्म के सदियों पुराने पिंजरों में क़ैद रह कर 'विज्ञान और तकनीकी तरक़्क़ी' के गीत गाओ!" एक नवयुवक ने कहा।



"अरे नहीं यार! अपने-अपने धर्म की 'बंदर-घुट्टी' पी-पी कर जोगी-भोगी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 1, 2018 at 7:52pm — 3 Comments

मंजिल की पहली सीढ़ी--लघुकथा

एक बार फिर वह बुझे मन से उस अर्धनिर्मित क्लास रूम की तरफ निकाल पड़ी जहाँ पिछले दो महीने से वह बच्चों को पढ़ा रही थी. बच्चों को पढ़ाना उसका शौक था और इसके पहले भी वह जहाँ भी रही, उसने यह काम हमेशा किया. लेकिन हमेशा बच्चे उसके घर पढ़ने आते थे और ठीक ठाक घरों के होते थे.

उस मलिन बस्ती में, जहाँ बच्चों की कक्षा चलती थी, जाने में शुरुआत में तो उसकी हालत खराब हो गयी थी. चारो तरफ गंदगी, रास्ते के किनारे बहता हुआ खुला नाबदान और खस्ताहाल दो कमरे, जिसमें बच्चे चटाई पर बैठकर पढ़ते थे. हालाँकि धीरे…

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Added by विनय कुमार on September 1, 2018 at 5:00pm — 9 Comments

"बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ"

ग़ज़ल

बहुत दिनों से है बाक़ी ये काम करता चलूँ

मैं नफ़रतों का ही क़िस्सा तमाम करता चलूँ

अब आख़िरत का भी कुछ इन्तिज़ाम करता चलूँ

दिल-ओ-ज़मीर को अपने मैं राम करता चलूँ

जहाँ जहाँ से भी गुज़रूँ ये दिल कहे मेरा

तेरा ही ज़िक्र फ़क़त सुब्ह-ओ-शाम करता चलूँ

अमीर हो कि वो मुफ़लिस,बड़ा हो या छोटा

मिले जो राह में उसको सलाम करता चलूँ

गुज़रता है जो परेशान मुझको करता है

तेरे ख़याल से…

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Added by Samar kabeer on September 1, 2018 at 3:12pm — 53 Comments

"तमाशा"

पल में तोला है पल में माशा है

ये ज़िन्दगी है या एक तमाशा है

 

मय को पीकर इधर उधर गिरना

ये मयकशी है या एक तमाशा है

 

दब गए बोल सारे साज़ों में

ये मौसिक़ी है या एक तमाशा है

 

दिख रहे ख़ुश बिना तब्बसुम के 

ये ख़ुशी है या एक तमाशा है

 

इश्क़ को कर रहा रुसवा कबसे     

ये आशिक़ी है या एक तमाशा है

 

दरिया में रह के नीर की चाहत

ये तिश्नगी है या एक तमाशा है

 

तू जल रहा फिर…

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Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 1, 2018 at 1:14pm — 1 Comment

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