यादों के समंदर में जब और जितनी बार डूबकी लगाया हूँ उतनी ही बार ईश्वर की असीम कृपा से कुछ न कुछ मिलता ही रहा है . यादें कुछ तो माँ के आँचल के समान ठंडक देने वाली होती हैं, कुछ यादें तो मन का मानों सन्धिविचेद कर देती रही हो भला इस मनोदशा को ईश्वर के अलावे कौन जान पाया है ! अगर कोई फरिश्ता उस मनोदशा को जानने की कोशिश भी करता है तो शायद इस संसार में उनकी गिनती एक अपवाद ही बन कर रही गयी हो . बचपन में माँ -बाप ,गुरुजनों से जो प्यार और शिक्षा मिली वो तो गंगाजल के सामान पवित्र था .आज भी सोचता हूँ तो…
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Added by Devesh Mishra on June 25, 2010 at 8:00pm —
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दो शब्द प्यार के बोल कर देखो ,
दिल में उतर जाओगे ,
हर कदम पर साथ में पाओगे ,
मगर इसके लिए कुछ करना होगा ,
दो शब्द प्यार के बोलना होगा ,
भूलना होगा वो सब नफरत भरे शब्द ,
भूलने के बाद सोचने की जरुरत नहीं ,
कारण, नफ़रत सोचने के लिए नहीं होती,
सोचने के लिए तो बस प्यार होता हैं ,
मेरी बातो पे विश्वास ना हो तो ,
दो शब्द प्यार के बोल कर देखो ,
दिल में उतर जाओगे,
( राणा जी के सुझाव के अनुसार यह पोस्ट प्रबंधन स्तर से एडिट कर वर्तनी और…
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Added by Neet Giri on June 25, 2010 at 7:30pm —
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मुस्कुराहट का राज़
मैं मुस्कुरा कर स्वागत करती हूँ ,
और वो हरदम पूछते हैं ,
इस मुस्कुराहट का राज़ ,
और मैं कहती हूँ ,
मैं हर दम खुश रहती हूँ ,
कारण गम मेरा हमदम नहीं हैं ,
खुशियों से हमने दोस्ती की हैं ,
अगर आप रोता हुआ चेहरा देखेंगे ,
और फिर करेंगे आप सवाल ,
क्या दुःख हैं हमें बतायो,
और मैं अपने दोस्तों को ,
अपने दुःख से दुखी न करूंगी ,
इसलिए आप को इस सवाल का ,
मौका नहीं दूंगी ,
हरदम खुश रहूंगी ,
अब समझ गए…
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Added by Neet Giri on June 25, 2010 at 6:30pm —
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बनते -बिगड़ते
संबंधों की आपा-धापी में
मैं खो जाता हू ॥
हड़बड़ी के चक्कर में
प्रेम खोजने के बदले
नफरत खोज लेता हू ॥
रिंग पहनाने को
शादी में बदल पाता
उससे पहले तलाक खोज लेता हू ॥
इसलिए .....
मैं अब
जिंदगी के रेस में
खरगोश नहीं ,
कछुआ बन कर ही
मंजिल तक जाना चाहता हू ॥
Added by baban pandey on June 25, 2010 at 9:20am —
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तुम्हारी बातें
एक -एक शब्द जैसे ॥
श्वासों का आना -जाना
किताब के पन्ने
पलटने जैसा ॥
तुम्हारी मुस्कराहट
कविता पढने जैसी ॥
तुम्हारी हँसी
ग़ज़ल की पंग्तिया ॥
तुम्हारी उम्र का
हर गुजरा वक़्त
एक अध्याय समाप्त होने जैसा ॥
तुम्हें समझना
एक समझ न आने वाली
रहस्यमई कहानी जैसा ॥
सचमुच, तुम्हें पढना
एक किताब पढने जैसा ॥
हे ! प्रिय !!!
मैं पढ़ूंगा तुम्हें जीवन…
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Added by baban pandey on June 25, 2010 at 7:45am —
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आज की रचना : मुक्तिका:
:संजीव 'सलिल'
ज़िन्दगी हँस के गुजारोगे तो कट जाएगी.
कोशिशें आस को चाहेंगी तो पट जाएगी..
जो भी करना है उसे कल पे न टालो वरना
आयेगा कल न कभी, साँस ही घट जाएगी..
वायदे करना ही फितरत रही सियासत की.
फिर से जो पूछोगे, हर बात से नट जाएगी..
रख के कुछ फासला मिलना, तो खलिश कम होगी.
किसी अपने की छुरी पीठ से सट जाएगी..
दूरियाँ हद से न ज्यादा हों 'सलिल'…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 24, 2010 at 10:58pm —
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अपना दुःख किससे कहू मैं ,
यहा कौन हैं सुनने वाला ,
हर तरफ फैला अन्धियारा ,
धधक रही दहेज की ज्वाला ,
बेटी के बाप तो हमभी हैं ,
बड़ी मुश्किल से पढ़ा पाए ,
हम खाय आधपेट मगर ,
बेटी को हम बी कॉम कराए ,
लड़का बढ़िया खोज रहा हु ,
दहेज़ के बिना हैं परेशानी ,
अब सोचता हु क्यों पढ़ाया ,
जन्मते क्यों नहीं नमक खिलाया ,
मर गई होती ये तब ,
परेशानी ये ना आती अब ,
ये लड़का वालो जरा समझो ,
हम भी पढाये ये तो समझो…
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Added by Rash Bihari Ravi on June 24, 2010 at 4:00pm —
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मेरे पापा ने
माँ का गर्भ जांच कराया
सांप सूंघ गया उन्हें
शुक्र हो डाक्टर का
उन्होंने कहा ...
"एक ही बार माँ बन सकती है
आपकी पत्नी "
भूर्ण -हत्या से बच गयी मैं ॥
मेरी माँ ने
सिल्क साडी पहननी छोड़ दी
शौक -मौज फुर्र्र
मेरे विवाह की चिंता में
जन्म से ही ॥
पढाई के दौरान
प्यार हो गया एक लड़के से
शादी का लालच दिया उसने
माँ -पिता को खेत न बेचना पड़े
दहेज़ के लिए
यह सोच , भाग गयी उसके साथ…
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Added by baban pandey on June 24, 2010 at 4:00pm —
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पहले वह रोज आती थी
कभी बरामदे के मुंडेर पर बैठती
कभी खिड़की पर
और कभी-कभी तो
हद ही हो जाती जब वो
कमरे के अन्दर तक आ जाती ।
रोज सबेरे
जब उसकी आवाज सुनते
तब लगता
कि सुबह हो गई है
तब शुरू हो जाता
हमारा रोजनामचा ।
दिन ऐसे ही
रोज गुजरते रहे
वह रोज आती रही
हम रोज उसे देखते रहे
फिर एक दिन अचानक
लगा कुछ " मिसिंग" है ।
फिर अखबार में पढ़ा
गौरैया "एक्सटिंक्ट" होने के कगार पर है
एक सदमा…
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Added by Neelam Upadhyaya on June 24, 2010 at 3:11pm —
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मित्रो, यह कोई कविता नहीं , बल्कि कविता के रूप में नदियों से होने वाले खतरे के प्रति मित्रो को आगाह करती है ..शायद आपको अच्छी लगे ...चुकी मैं इस छेत्र से जुड़ा हू ..तो लिखना मेरा फ़र्ज़ है ..
सर्पीली रूप में बहना
मेरी नियति है ॥
बाँधने की कोशिस में
उग्र हो जाती हू ॥
किनारे का बाँध तोड़
निकल जाना चाहती हू ...
फिर पूछो मत ...
कई सभ्यता /संस्कृतियों के
विनाश का कारण बन जाउगी ॥
बहना चाहती हू
जैसे , उन्मुक्त उड़ना चाहती है
पिंजरे का…
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Added by baban pandey on June 24, 2010 at 10:48am —
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जिसमे शब्द नही, हो चेहरा तेरा ला मुझे वो किताब देदे
जो बहाएँ हें हर पल मेने, मेरे इन आंसूओं का हिसाब देदे
कोई पीता है आँसू यहाँ तो किसीने पिए हैं अपने सारे गम
मैं तो हर रात यह कहता हू ला साकी थोड़ी और शराब देदे
अब देगी या तब देगी यही सोच कर काट दी उमर अपनी मैने
जो पूछा था तुझसे मैने अब तो मेरे उस सवाल का जवाब देदे
नही पता तुझे काँटों का चुभना दर्द नही देता थोड़ा भी मुझे
ला मुझे तेरे बदन की खुश्बू वाला,तुझसा हसीन एक गुलाब देदे
कहती…
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Added by Pallav Pancholi on June 24, 2010 at 1:31am —
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मुक्तिका:
आँख का पानी
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आजकल दुर्लभ हुआ है आँख का पानी.
बंद पिंजरे का सुआ है आँख का पानी..
शिलाओं को खोदकर नाखून टूटे हैं..
आस का सूखा कुंआ है आँख का पानी..
द्रौपदी को मिल गया है यह बिना माँगे.
धर्मराजों का जुआ है आँख का पानी..
मेमने को जिबह करता शेर जब चाहे.
बिना कारण का खुआ है आँख का पानी..
हजारों की मौत भी उनको सियासत है.
देख बिन बोले चुआ है आँख का पानी..
किया…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 23, 2010 at 10:30pm —
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जग की कटुता देख, ह्रदय की कोमलता मत खो देना.
मधुमास सुबास सुमन तन की, हर इक सांसों में भर देना.
तेरे होठों की लाली से, उषा का अवतरण हुआ.
तेरी जुल्फों की रंगत से, ज्योति का अपहरण हुआ.
अपने खंजन- नयन में रम्भे, अश्रु कभी मत भर लेना.
मधुमास सुबास सुमन तन का, हर इक साँसों में भर देना.
पाता है रवि रौनक तुमसे, चाँद- सितारे शीतलता.
पवन सुगंध- हिरण चंचलता, रसिक - नयन को मादकता.
जग को मिलता प्राण तुम्हीं से, तुम्हे जगत से क्या लेना.
मधुमास सुबास सुमन तन का,…
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Added by satish mapatpuri on June 23, 2010 at 3:53pm —
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मुझे हसाना तो नहीं आता
मगर, रुलाना आता है ..दोस्त !
मुझे स्तुति -गान नहीं आता
मगर ,निंदा -गान आता है ...दोस्त !
मुझे तैरना नहीं आता
मगर , डुबाना आता है ....दोस्त !
मुझे धोती पहनाना नहीं आता
मगर , नंगा करना आता है ...दोस्त !
मैं गाली नहीं सुन सकता
मगर ,मगर गाली देना आता है ...दोस्त !
मुझे लिखना नहीं आता
मगर ,गलतियां निकाल लेता हू ...दोस्त !
सच में ,
मैं जानता कुछ नहीं ...मेरे दोस्त
फिर भी ,…
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Added by baban pandey on June 23, 2010 at 3:35pm —
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तेरे प्यार में दर्द लाखों सहें.
मगर बेवफा तुमको कैसें कहें.
जिन्हें प्यार से तुमने चुमा कभी.
उन्हीं आँखों से गम का दरिया बहे.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
अब भी हमें ऐसा लगता अक्सर.
तुम्हीं सामने से चले आ रहे.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
टूटे हुए दिल की है ये सदा.
जफा करने वाले सदा खुश रहें.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
मापतपुरी की यही एक ख्वाहिश.
किसी मोड़ पे वो ना फिर से मिलें.
मगर बेवफा तुमको कैसे कहें.
गीतकार- सतीश…
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Added by satish mapatpuri on June 21, 2010 at 4:01pm —
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भारत
कुत्तों के भौकने की
इधर -उधर सूघने की
एक अच्छी जगह ॥
गाहे -बगाहे
समय -कुसमय
चोर देखकर भौकना
और कभी -कभी
बिना चोर देखे
तेजी से भौकना ॥
गज़ब चरित्र है इनका ...
साधारण जनता
इनकी मानसिकता नहीं समझ सकते ॥
कुत्तों की सर्वोच्च संस्था
कहती है .....
भौकने की यह प्रवृति
परिपक्वता को दर्शाता है ॥
Added by baban pandey on June 21, 2010 at 1:59pm —
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माँ - जब हम पैदा भईनी
हम त कुछ न जानत रहनी
कि डायबिटीज भी कुछ होखेला
आ एकरा से जीवन में कुछ फरक परेला
हम त ईहे जानत रहनी कि
अइसही होखत होई - खूब भूख लगत होई -
अइसहीं होखत होई - कबो खूब घुमरी आवत होई
हाथ - पैर झनझनात होई - चश्मा लगवले पर ठीक लऊकत होई I
हमरा खातिर त ई दुनिया
तबो अइसने रहे - सामान्य
हमरा खातिर ई दुनिया
आजो अइसने बा - सामान्य
बाकिर हमार - ना - तहार दुनिया बदल गईल
तब तूं खूब रोवलू
जब तहरा के बतावल गईल…
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Added by Neelam Upadhyaya on June 21, 2010 at 11:46am —
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घर
प्यार औ अपनत्व
जब दीवारों की
छत बन जाता है
वो मकान
घर कहलाता है
रजनी छाबरा
Added by rajni chhabra on June 21, 2010 at 10:55am —
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तुम्हें दिखाउगा आइना, क्योकि वह केवल सच बोलता है
उनके लिए कौन लडेगा , जो केवल अपना हक मांगता है ॥
क्या मेरा इधर -उधर झाकना , तुम्हें नागबार लगता है
तो खुद ही बता दो वे बातें , जो हमें ख़राब लगता है ॥
सूरज तो निकलेगा एक दिन ,बादलों की उम्र ही क्या है
सच्चाई वय़ा करेंगे वे लोग , जिन्हें आज डर लगता है ॥
वो परेशां है इसलिए क़ि उनकी झूठ पकड़ ली गई है
इधर देखें ,उधर देंखें वे कही देखें , अब शर्म लगता है ॥
वे नंगे थे शुरू से ही ,नंगापन…
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Added by baban pandey on June 21, 2010 at 6:10am —
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स्मृति गीत:
हर दिन पिता याद आते हैं...
संजीव 'सलिल'
*
जान रहे हम अब न मिलेंगे.
यादों में आ, गले लगेंगे.
आँख खुलेगी तो उदास हो-
हम अपने ही हाथ मलेंगे.
पर मिथ्या सपने भाते हैं.
हर दिन पिता याद आते हैं...
*
लाड, डांट, झिडकी, समझाइश.
कर न सकूँ इनकी पैमाइश.
ले पहचान गैर-अपनों…
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Added by sanjiv verma 'salil' on June 20, 2010 at 7:49pm —
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