यादों के समंदर में जब और जितनी बार डूबकी लगाया हूँ उतनी ही बार ईश्वर की असीम कृपा से कुछ न कुछ मिलता ही रहा है . यादें कुछ तो माँ के आँचल के समान ठंडक देने वाली होती हैं, कुछ यादें तो मन का मानों सन्धिविचेद कर देती रही हो भला इस मनोदशा को ईश्वर के अलावे कौन जान पाया है ! अगर कोई फरिश्ता उस मनोदशा को जानने की कोशिश भी करता है तो शायद इस संसार में उनकी गिनती एक अपवाद ही बन कर रही गयी हो . बचपन में माँ -बाप ,गुरुजनों से जो प्यार और शिक्षा मिली वो तो गंगाजल के सामान पवित्र था .आज भी सोचता हूँ तो अपने आप को काफी भाग्यशाली मानता हूँ.शायद वो वहां नहीं होते तो मैं शुरू होने से पहले ही ख़त्म और लुप्त हो गया होता . वर्तमान में ऐसा प्रत्तीत होता है मानो मन की भावना और पवित्रता की कोई अहमियत ही ना रह गयी हो! आजकल दो शब्दों थैंक्स और सॉरी में पूरी दुनिया समाहित है .वही से शुरु होकर वही खत्म हो जाती है. कभी सोचता हूँ तो लगता है अगर हमारे शब्दावली में यह दो शब्द नहीं होते तो बड़ी असमंजस हो जाती, और न जाने कोई कैसे एहसान उतार पता. क्या इतना बोल देना ही काफी है ??? क्या हमारी भावनाओं और बलिदानों की कोई भी कीमत नही है ??? कहते हैं उस परम परमेश्वर ने देने का हक़ सबके किस्मत में प्रदान नहीं दिया है !
जिन्होंने कभी कुछ दिया ही न हो वो भला क्या जाने देने वालों पर क्या गुजरी हो !
वक़्त ऐसे बीतता गया मनो चला पहले गया हो और आया देर से रहा हो ! .वक़्त तो किसी के रोके कभी नहीं रुका है! जो हम रोक पाते . कहते हैं जब भगवान कृष्ण गीता का ज्ञान दे रहे थे उस समय खुद समय ने ही खुद को रोकना चाहा फिर भी रोके नहीं रुका .जो आज हैं वो कल नहीं रहेंगे, कभी ना वापस आने वाला वक़्त निकलता जा रहा है , फिर भी हमे ना जाने क्यों ऐसा प्रतीत होता है मानो हमारी मानवीय मानवता का विलोपन और अपहरण हो गया हो. घायल , त्रिस्कृत, अपाहिज ,अपमानित मानवता जिसे वैशाखी लेकर चलने की आदत हो गयी हो.अगर हम अपने अंतरात्मा की आवाज़ सुने तो कहीं ना कहीं हमीं इस दशा के लिए जिम्मेदार हैं, क्योंकि इसी आत्मा में परमात्मा का वास होता है बस उन्हें जगाने और याद करने की जरुरत है ! मन ने माना तो गंगाजल के सामान पवित्र नहीं तो केवल जल आर्थात पानी .
झूट , स्वार्थ , वासना से समाहित रिस्तों से बने रिस्ते जो की रिस्तों के कब्र पर बनते हैं उन्हें एक ना एक दिन तो ख़त्म हो ही जाना है क्योंकि झूट से बने रिस्तों के पांव नहीं होते और सहारा लेकर आप इस मानवीय भवसागर को पार नहीं कर सकते .जो रिस्ते मन से मन को ना जोड़े उसे क्या घसीटे जाने की जरुरत है ?? कहते हैं रिस्तों और मन को किसी सीमायें में बाँधा नहीं करते वो जब होना होता है हो ही जाता है, एक पल में किसी से लगता है मनो सदियों का रिसता रहा हो ,किसी से हम ता उम्र जुटे रहे फिर भी एक दूरियां बनी रहती है ! काफी सारे प्रशन मेरे मन में समंदर की लहरों के समान उठते रहे हैं!
सच ही कहा है इस दुनियां में मोल तो सिर्फ बस बीकने वालों का ही लगा है ना बिका तो बेकार हो गया. बाज़ार में तो जरुर आया हूँ किन्तु यह जरुरी नहीं है की बिक ही जाने के लिए आया हूँ ! वृत्त की परिधि के समान यह न ख़त्म होने वाली दूरी बन कर रह गयी है !. खोकली होती मानवता और उसका अस्तित्व्य , कभी न होने वाला निरंतर क्रम इन् सब को सोचकर मेरा मन काफी दुखी हो जाता है!
मैं ना ही कोई लेखक हूँ , ना तोह कोई दार्शनिक बस , ना ही मेरी इतनी सामथ्य है की मैं किसी को कुछ दे सकूँ किन्तु मन में निरंतर उमड़ते प्रश्नों को पूछने का अधिकार शायद जरुर हो.
हम आज एक अच्छे डॉक्टर , इंजिनियर तो बन जाते हैं किन्तु एक अच्छा इंसान कैसे बने वो जरूर भूल गए हैं. सबों के माँता-पिता चाहते हैं की बच्चे डॉक्टर , इंजिनियर ही बने और विदेश जाये और वो शायद अपनी जगह सहीं भी हो , मेरा उद्देश्य किसी की भावनाओं को आहत पहुचना नहीं ,किन्तु एक छोटा सा सन्देश जरूर पहुचना चाहूँगा ! आज अगर देश के सब माँओं ने अगर यही सोचना शुरू कर दिया तो देश की रक्षा कौन करेगा ??? कभी किसी ने उन माओं से पुछा है जिन्होनें हस्ते हस्ते अपने बच्चो का बलिदान देश के लिए कर दिया हो , वो क्या माँ नहीं थी, क्या उनके अन्दर आत्मा और प्यार अपने बच्चों के लिए कभी कम रहा होगा? हम अगर ऐसे सात जन्म भी लें तोह उनकी बलिदानों का मोल नहीं चूका सकते !
मैं यह बोलकर कोई बड़ा नहीं बनना चाहता क्योंकि मैं भी पेसे से एक सॉफ्टवेर इंजिनियर ही हूँ ! किन्तु मेरा हमेसा से मानना रहा है आप कुछ भी हों, कुछ भी करें किन्तु एक अच्छा इंसान बन्ने के साथ अपनी नैतिक जिम्मेवारी का निर्वाह जरूर करें! आज स्कूल, कॉलेज में केवल अच्छा प्लेसमेंट होने की दृष्टि से ही शिक्षा दी जाती है ! यह नहीं बताया जाता की एक अच्छे जॉब लेने के साथ आप एक अच्छा इन्सान बनें ! यह देश और समाज की दृष्टि से कितना महत्वपूर्ण है उन् चीज़ों पैर बिलकुल ही ध्यान नहीं दिया जाता ! क्या इन सबों के लिए कुछ हद तक हमारे शिक्षक जिम्मेवार नहीं हैं ??, शायद उनसे कहीं ज्यादा जिम्मेवार हमारे माँता -पिता भी,! कहा गया है बच्चों का चरित्र माता -पिता के गुणों को दर्शाता है ! किन्तु आजकल यह सब इतिहास की किताबों में ही अच्छा लगता है ! आज अपने हमउम्र के मित्रों से बातें करता हूँ तो देश का राष्ट्रीय गान क्या है वो ठीक से बता नहीं पते किन्तु क्लबों में संगीतों पर थिरकते हुए जरुर नज़र आयेंगे ! मानो आत्मासम्मान नाम की तो कोई चीज़ ही नहीं रही हो !
मैं सोचता हूँ क्या बातें करूँ आज जहाँ भी जाता हूँ सब कुछ एक ढकोसला , दिखावा ही रह गया हो . बातों का केंद्र बिंदु सिर्फ लड़की , पैसा, शराब , और परनिंदा का सुख के इर्द गिर्द ही घूमती रहती है !,शुरुवात यही से होती है और यहीं पर खत्म हो जाती है ! हमेशा सोचता हूँ कभी कुछ और भी तो हो! क्या बस यही रह गया है जीवन का केंद्र बिंदु? कहाँ विलुप्त हो गयी हमारी भारतीय संस्कृति!
कहते हैं मित्र, और मित्रता की परिभाषा नहीं जानते , स्वार्र्थ्य ही एक केंद्र बिंदु बनकर रह गया है , स्वार्र्थ्य पूरा ना होने पर सब कुछ ताश के पत्तो की तरह विखर जाता है ! क्या सिर्फ चार अच्छी बाते , साथ घूम लेने से क्या कोई अच्छा और सच्चा मित्र बन जाता है???मुझे लगता है यह एक दूरदर्शन का रिमोट संचालित चैनल हो जब चाहे देख लिया , उपयोग कर लिया और जब चाहे बदल दिया ! ना जाने ऐसे कितने रिस्तों को बनते , रोते और डूबते हुए देखा है मैंने! बस स्वार्र्थ्य , पैसे , वासना के रिश्ते जो पानी के बुलबुले की तरह तो उठते तो है किन्तु उससे तो खत्म हो ही जाना है ! इनमे से कुछ रिश्तें आभाओं से पले होते हैं किन्तु भावों से भरे होते हैं , कहते हैं भावों की गहरायी को कोई क्या भला माप सका है! किन्तु यह सब सिर्फ शब्दावली के एक शब्द ही बनकर रह गएँ है ! शायद ही ऐसा कोई हो जो इसे समझे ! यहाँ तोह हर एक सवाल में एक मतलब छुपा होता है ! रिश्ता चाहे कोई भी हो एक प्यार की कच्चे धागों की जोड़ से जूटा होता है! और कहते हैं अगर रिसता सच्चा हो तोह किसी भरोसे का भी मोहताज़ नही होता !
मेरा मानना है - " गले मिले न मिले , दिल तो जरूर मिले , मसाल जले न जले , दीया तो जरूर जले !"
यह जरुरी नहीं है आप कितने ऊँचे हो जरुरी यह है आप कितने गहरे हो ! इंसानियत ऊँचाई से नहीं गहरायी से मापी जाती है ! जिस तरह खजूर का पेड़ ऊँचा होने पर फिर भी छाया देने में सक्षम नहीं होता उसी प्रकार मनुष्य के उम्र , कद एवं पद से मन की पवित्रता आकीं नही जा शक्ति ! हम कभी अपनी अन्तारमता में झांकते ही नहीं की हम कैसे हैं ! एक आर्थिक क्या मंदी आ गयी मंदिर, मस्जिद , गुरूद्वारे, चर्च , जाने वालों की तादात बढ़ गयी ! जाते तो हैं इश्वर के दरवार किन्तु इच्छा पूर्ण होते ही हम उसका जश्न क्लबों में सराब , अश्लीलता से मानते हैं और उस परमेश्वर को वहीँ भूल जाते हैं जिन्होनें हमें सब कुछ दिया है ! ऐसे लोग जो इश्वर जो हमारे मूल माता - पिता हैं ! जो उंनेह भूल गए वो क्या कभी हमारे होंगे ??? इश्वर तक की राजनीती करने में भी बाज़ नहीं आते ! जबाब नहीं होने की दृष्टि में हम पश्चिमी सभ्यता पर आरोप प्रत्यारोप करते हैं ! सभ्यता चाहे किसी भी देश की हो सब की अपनी अपनी सीमायें और मर्यादायें हैं! अरे समंदर भी अपने मर्यादाओं का उल्लंघन नहीं करता , किन्तु हम क्यों न करें ! जवानी का जोश , कुछ कर गुजरने की तम्मना उसे आप सर फरोशी की तम्मना तो नहीं ,किन्तु वक़्त आने पर सर जरूर झुका लेंगे इसमें शक में भी शक की गुंजाईश मुझे नहीं लगती ! भला गुब्बारे कितने देर तक हवाओं से लड़ पाया है ! किन्तु फिर भी हम उसे अपनाकर अपने आप को ऐसा महसूस करते हैं मानो अश्लीलता का नोबेल पुरस्कार जीत लिया हो ! कहाँ गया है जैसे हमे अच्छे और बुरे गुणों वाले इंसानों से हम अपने जीवन में क्या करे और क्या न करे की शिक्षा मिलती है , अच्छे से यह मिलता है हम क्या अच्छा करे! बुरे से यह मिलता है की हम क्या ना करे! इस तरह अगर हमरी इच्छाशक्ति प्रबल हो तो कुछ ना कुछ जरूर हासिल किया जा शकता है !
आज विशेश्कर भारतीयों में गर्व तो भगवान इन्द्र के व्रज के सामान तेज़ तो जरूर होता है ,किन्तु जब आत्मसम्मान की बात आती है तो शुरू होने से पहले ही खत्म हो जाता है! फिर भी ऐसी नपुंसक इच्छाशक्ति को हम आजकल बढावा देने से बाज़ नही आते!
मेरे मन की व्यथा ऐसी है मानो आसमान और धरती की कभी ना खत्म होने वाली दूरियां जो एक दूसरे को देख तो शक्ति है, निगाहे भी मिलती है , किन्तु कभी ना मिटने वाली यह दूरियां . ऐसा प्रतीत होता है मानो कहीं ना कहीं मेरे मन का भी अपहरण हो गया हो! अफ़सोस , यह सिलसिला हमेसा से चलते आया है और रहेगा , और मेरी कहानी अनसुनी रही है और रहेगी!
सच की किसी ने कहा है -
मेरा मकसद सिर्फ हंगामा खड़ा करना नहीं यह सूरत हर हल में बदलनी चहिये ,
मेरे सिने में ना सही तेरे सिने में सही , हो कहीं भी आग किन्तु जलनी चहिये
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देवेश मिश्र
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