कुछ दिनों पहले उसके पास
दो सौ रूपए का चश्मा था
बार बार उसके हाथों से गिर जाता था
और वो बड़ी शान से सबसे कहता था
मेहनत की कमाई है
खरोंच तक नहीं आएगी।
आज वो चार हजार का चश्मा पहनता है
मगर वो चश्मा जरा सा भी
किसी चीज से छू जाता है
तो वह तुरंत उलट पलट कर
ये देखने लगता है
कि कहीं चश्मे में
कोई खरोंच तो नहीं आ गई।
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 24, 2010 at 9:00pm —
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मुक्तिका:
जीवन की जय गायें हम..
संजीव 'सलिल'.
*
जीवन की जय गायें हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहरायें हम..
*
बाधा-संकट -अड़चन से
जूझ-जीत मुस्कायें हम..
*
गिरने से क्यों डरें?, गिरें.
उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गायें हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खायें हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 8:49pm —
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मेरी माँ
जब मेरी माँ २१ साल की थीं
रात के सघन अंधकार में,
तेरे आंचल के तले,
थपकियो के मध्य,
लोरी की मृदु स्वर-लहरियों के संग,
मैं बेबाक निडर सो जाती थी माँ |
और नित नवीन सुबह सवेरे
उठो लाल अब आंखें खोलो
कविता की इन पंक्तियों के संग
वात्सल्य का मीठा रस…
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Added by Dr Nutan on November 24, 2010 at 1:00am —
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आत्मीय!
मुशायरे के लिए लिख रहा था की समय समाप्त हो गया. पूर्व में भेजा पथ निरस्त करदें. इसे जहाँ चाहें लगा दें.
लीक से हटकर एक प्रयोग:
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:53am —
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अस्तित्व
शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।
तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?
अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:00am —
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बोझिल मन... आँखें... सांसें...
ऐसा तारतम्य...
ना देखा आज से पहले...
ऐसी सांठ-गाँठ...
क्यों नहीं कर पाती यें... खुशियों में...???
जितना खोलनें की कोशिश करती...
उतनी ही इसकी गांठें और गुथती जाती...
और उन गांठों में फंसती जाती...
ज़िन्दगी... ... ...
धीरे-धीरे घुटती... गिरती... संभलती...
पर उफ़ ना करती...
शायद अब इस घुटन से...
इस उतार-चढ़ाव से...
बाँध ली थी उसने भी गांठें… Continue
Added by Julie on November 23, 2010 at 9:00pm —
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उसकी हिम्मत बनना,
तक़दीर मत बनना,
प्यार जरूर करना पर,
पाव की जंजीर मत बनना,
यादो मे बसना जरूर पर,
तस्वीर मत बनना,
जो जी मे आये लिखते जाओ,
कौन रोकेगा तुम्हे,
बस वो पढ़ने वाले नही रहे अब,
सो कवि तो बनना पर,
तुलसी और कबीर मत बनना |
Added by Binod Kumar Rai on November 22, 2010 at 2:00pm —
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प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
क्यों कोई बोले आप काम करते हो बेकार,
डी राजा को आपने इतना दिन बचाया,
कलमाड़ी को आप पैसा खूब कमवाया,
आपकी कृपा से पृथ्वी राज के सपना साकार,
प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
एन डी ए से ममता सरपट भागी थी,
आग बबूला हो गई थी बस एक ही घपला पे,
आज आपकी पल्लू पकड़ कर बैठी हैं,
सोचिए कितना अच्छा हैं आपका ब्यवहार,
प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
अब तक जितने हुए घपले पूरे हिदुस्तान में,
सब से ज्यादा कहे…
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Added by Rash Bihari Ravi on November 22, 2010 at 11:00am —
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ये रात अभी भी बाकी है ,
कुछ काम अभी भी बाकी हैं |
ये बात बहुत है छोटी सी ,
और दुनिया बदलना बाकी है |
पर दुनिया कि क्या बात करें , अभी
खुद को ही बदलना बाकी है ;
हम खड़े तो थे इस पार मगर ,
मीलों तक चलना बाकी है ;
ये रस्ता बहुत है संकरा सा , मगर
दुनिया को दिखाना बाकी है
पर दुनिया कि क्या बात करें ,
खुद भी तो चलना बाकी है |
ये रात अभी भी बाकी है ,
दिन को भी निकलना बाकी है
सूरज का चमकना बाकी है , और
किरणों का बिखरना बाकी है…
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Added by Akshay Thakur " परब्रह्म " on November 20, 2010 at 4:08pm —
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मुझे सपनो में जीने दो ,
हकीकत में कुछ कर नहीं पाता ,
झूठ मूठ झुंझलाता हूँ ,
लड़ मरने की चाहत मन में हैं ,
डर के मगर भाग जाता हूँ ,
जो कर नहीं पाता जाग जाग ,
वो सोकर मैं कर जाता हूँ ,
मुझे सपनो में जीने दो ,
आज सपने में डी राजा को ,
बहुत बहुत समझाया ,
बोला अरे ओ अनाड़ी,
ये क्या कर डाला ,
अरबो की गई हिंद के प्यारे ,
तूने कितना बनाया ,
झट से बोला वो मुझसे ,
गुरु जीवन सफल बनाया ,
जो हैं बाते वो ,
अब खुल कर हो जाने…
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Added by Rash Bihari Ravi on November 20, 2010 at 1:30pm —
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आज सवेरे
था मौसम का मिजाज़
भी कुछ खुशनुमा-सा,
थी हल्की सी धूप
और ज़रा सा एहसास भी ठंड का,
थी दफ़्तर की छुट्टी
तो आज मन ने लगाई अपनी अर्ज़ी
इस मौसम का लुत्फ़ उठाएँ
समंदर किनारे सैर कर आएँ I
कंधे पर एक दरी उठाए
हाथ में लिए एक किताब
पहुँचा किनारे पर समंदर के,
तो देखा मैंने,
था आज समंदर
कुछ उदास,
खुद में खोया
चुपचाप
हो जैसे खुद से नाराज़ I
क़तरा क़तरा जुटाकर हिम्मत
थामे लहरों का हाथ
रखा…
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Added by Veerendra Jain on November 20, 2010 at 12:32pm —
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कैसे तुम्हें बताऊँ मैं जो टूटा मेरा दिल है
खाते तरस यदि जानते क्या मेरी मुश्किल है
मैंने सोचा मैं हूँ किश्ती तू मेरा साहिल है
पर न थी खबर मुझे कि तू ही मेरा कातिल है
तुझसे दिल लगा के मुझको क्या हुआ हासिल है
दिल पर जुल्म ढहाने वालों में तू ही शामिल है
जान न पाया था तुझको मैं तू न मेरे काबिल है
मेरी जिन्दगी में अब चरों तरफ गमों की ही महफ़िल है
अब होश मुझे जब आया खुद का तो आंख मेरी बोझिल है
देर से सही अब सोच रहा हूँ कि कहाँ मेरी मंजिल है
Added by Ajay Singh on November 20, 2010 at 11:47am —
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वर्तमान दौर में युवा कार्पोरेट जगत में भविष्य तलाश रहे है और कृषि प्रधान देश में खेती किसानी को दोयम दर्जे का कार्य समझा जा रहा है, वहीं एक युवा किसान ऐसा भी है, जिसने तमाम डिग्रियां हासिल करने के बाद भी कृषि कार्य को अपना जाॅब बनाकर पिछले 8 वर्षो से नई पद्धति से खेती करते हुए नई मिसाल पेश की है। इस युवा किसान ने इस वर्ष धान की फसल में हिन्दुस्तान व छत्तीसगढ़ का नक्शा उकेरा है, जिसे देखने के बाद लोग उनकी तारीफों के पुलिंदे बांधते नहीं थक रहे हैं।
कृषि क्षेत्र में यह अनोखा कारनामा जिला…
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Added by rajkumar sahu on November 20, 2010 at 10:29am —
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भारत में वैसे तो भ्रष्टाचार की जड़ें एक अरसे से गहरी हैं, मगर बीते एक दशक के दौरान इस बीमारी ने हर तबके को अपने चपेट में ले लिया है। भ्रष्टाचार को लेकर यदि सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करना पड़े कि क्यों ना, किसी काम के एवज में रिश्वत की राशि तय कर दी जाए, जिससे यह कार्य अंध कोठरी में न चले। सुप्रीम कोर्ट का सीधा आशय यही था कि देश में भ्रष्टाचार पूरे तंत्र में हावी हो गया है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो देश में मुश्किल हालात उत्पन्न हो जाएंगे।
इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले में तीन प्रकरण लोगों के…
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Added by rajkumar sahu on November 20, 2010 at 9:22am —
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राजा सत्यकेतु की नींद मे व्यवधान पड़ा तो वे जग गये.अंधेरे मे देखने की कोशिश की तो एक सजी धजी अपरिचित महिला को महल से बाहर जाते देखा. पूछने पर उसने बताया,"मै इस राज्य की भाग्यलक्ष्मी हूँ.मै इस राज्य को त्याग कर जा रही हूँ.
राजा ने कारण पूछा तो भाग्यलक्ष्मी ने उत्तर दिया,"जिस राजा के राज्य मे धन का सम्मान नही होता मै वहाँ नही रहती".राजा ने चूंकि उन दिनो गरीबों, अपाहिजों और असमर्थों के लाभार्थ अपने खजाने खोल रक्खे थे और भाग्य लक्ष्मी उसे अपव्यय और अपना अपमान समझती थी,अतः राजा के रोकने और… Continue
Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on November 19, 2010 at 11:00pm —
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महक उठेगी रात की रानी
तेरी वेणी में सज कर ही.
चंदनिया शीतल हो गी पर
तेरी काया से लग कर ही .
सुमन सुशोभित हों उप वन में
तेरे आँचल के छूते ही
मानस तल पर विविध छटाएं
बिखरें तुम को छू पल भर ही .
मन मयूर करे नृत्य सुहाना
पुलकित होता हर्षाता है
जब छाते हैं कुंतल
बस तेरे मुख के नभ पर… Continue
Added by DEEP ZIRVI on November 19, 2010 at 9:40pm —
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तुम और तुम्हारी यादें .. दिल से जाती ही नहीं ...
कई बार चाहा तुम चले जाओ..
मेरे दिल से .. मेरे दिमाग से ...
हर मुमकिन कोशिश कर के देख लिया ..
पर नाकाम रहे ...
कभी कभी सोचते हैं ..ऐसा क्या है हमारे बीच ...
जिसने हमें बांध कर रक्खा है ..
हमारा तो कोई रिश्ता भी नहीं ..
फिर क्या है ये ...?
"लेकिन नहीं" हैं न ..हमारे बीच एक सम्बन्ध ..
एहसास का सम्बन्ध ..
ये क्या है ..नहीं बता सकती मैं ..
एहसास को शब्दों में नहीं बाँध सकती मैं…
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Added by Anita Maurya on November 19, 2010 at 6:32pm —
17 Comments
हम बच्चों को आप बड़ों का प्यार चाहिए.
हमें भी फूलने- फलने का आधार चाहिए.
हम भी फूल इसी बगिया के, फिर बहार से क्यों वंचित हैं?
देश के हम भी नौनिहाल हैं, फिर दुलार से क्यों वंचित हैं?
हमें भी खुलकर हँसने का अधिकार चाहिए.
हमें भी फूलने - फलने का आधार चाहिए.
उस समाज का क्या मतलब, जहाँ हम अनपढ़ रह जाते हैं?
उस किताब की क्या कीमत, जिसको हम पढ़ नहीं पाते हैं?
हम सब को भी शिक्षा का सिंगार चाहिए.
हमें भी फूलने -फलने का आधार…
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Added by satish mapatpuri on November 19, 2010 at 3:30pm —
2 Comments
वाह री राखी सावंत
कर दिया तूने तंग
ऐसे चिल्लाती हो जैसे
लड़ रही हो जंग
सच बतलाएं मज़ा न आया
बेशक तूने नाम कमाया
देख तिहारी नौटंकी
हुई जाए अखियाँ बंद
नारी हो कुछ शर्म करो
कुदरत के कहर से डरो
इतना चीखना चिल्लाना
एक मर्द को नामर्द बतलाना
कहाँ से इतना ज्ञान पा लिया
हम देख के रह गए दंग
खुद भड़कीले वस्त्र धारणी
उंगली उठाती दूजों पर
राखी के इन्साफ में दिखता
केवल अश्लीलता का रंग
दीपक शर्मा…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 19, 2010 at 3:00pm —
1 Comment
मैं तकरीबन २० साल के बाद विदेश से अपने शहर लौटा था ! बाज़ार में घूमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला लगाये एक बूढे पर जा टिकीं, बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था ! लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ ! मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही , उसके चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था कि उसने मुझे पहचान लिया था ! काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई ! जब मैं विदेश गया…
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Added by योगराज प्रभाकर on November 19, 2010 at 2:49pm —
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