भारत में वैसे तो भ्रष्टाचार की जड़ें एक अरसे से गहरी हैं, मगर बीते एक दशक के दौरान इस बीमारी ने हर तबके को अपने चपेट में ले लिया है। भ्रष्टाचार को लेकर यदि सुप्रीम कोर्ट को यह टिप्पणी करना पड़े कि क्यों ना, किसी काम के एवज में रिश्वत की राशि तय कर दी जाए, जिससे यह कार्य अंध कोठरी में न चले। सुप्रीम कोर्ट का सीधा आशय यही था कि देश में भ्रष्टाचार पूरे तंत्र में हावी हो गया है, यदि ऐसा ही चलता रहा तो देश में मुश्किल हालात उत्पन्न हो जाएंगे।
इन दिनों भ्रष्टाचार के मामले में तीन प्रकरण लोगों के दिमाग के लिए सिरदर्द बना हुआ है। पहला, काॅमनवेल्थ गेम्स में सुरेश कलमाड़ी के
करोड़ों की गड़बड़ी का कमाल। दूसरा, आदर्श सोसायटी में शहीदों के हिस्से के फ्लैट को अपने परिजनों को देने के मामले में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण का नाम आना और फिर उन्हें कुर्सी गंवाना। तीसरा भ्रष्टाचार का मसला रहा, केन्द्र की यूपीए सरकार में दूरसंचार मंत्री रहे ए. राजा का, जिसका 2 जी स्पेक्ट्रम मामले में करीब 1 लाख 76 हजार करोड़ के गड़बड़झाले में फंसना। यह तो भ्रष्टाचार के बड़े मामले रहे, लेकिन धरातल के हालात काफी बिगड़ गए हैं। यही कारण है कि देश के अरबों-खरबों रूपये विदेशी बैंकों में जमा है। आखिर यह पैसा कहां से आया, इसे तो सीधे तौर पर समझा जा सकता है कि यह भ्रष्टाचार कर, जुटाई गई राषि है। इस ब्लैक मनी के कारण ही देश में गरीबी छाई हुई है, लेकिन किसी को इस बात की चिंता नहीं है कि आखिर कैसे काला धन को वापस लाया जाए। एक बात और है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ जब भी कोई मुद्दा उठाता है, तो उसे बड़ी कुर्बानी देनी पड़ती है। एक आरटीआई कार्यकर्ता सतीश शेट्ठी को कुछ भ्रष्टाचारियों का दंश झेलना पड़ा और उन्हें अपनी जान गंवानी पड़ी, फिर भी कहीं से सरकार के नुमाइंदें सबक लेते नजर नहीं आते, यह विचार किसी के मन में नहीं आ रहा है। यहां तक की, जब योग गुरू बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ अपना अभियान चलाने की बात कही तो उन्हें धमकियां मिलने की बात सामने आ रही है, ऐसे में देश में सुशासन की सरकार कहां है, यह समझा जा सकता है। यहां तो केवल यही कहा जा सकता है कि सरकार, भ्रष्टाचारियों के सामने अपंग बनकर रह गई है।
भ्रष्टाचार के खुलासे करने, सूचना का अधिकार एक बड़ा अस्त्र है, लेकिन नौकरशाही तथा लालफीताशाही के कारण यह अस्त्र भी अचूक साबित हो रहा है। हालांकि कुछ मामले में यह लोगों को मिले अधिकार के कारण अफसरों और मंत्रियों, या कहें कि सत्ता की ऊंची कुर्सी में बैठे धनपशुओं को यह रास नहीं आता कि कोई उनके किए गए भ्रष्टाचार की पोल खोले। साल भर की स्थिति को देखें तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ने वाले कई सामाजिक और आरटीआई कार्यकर्ताओं को अपनी जान गंवानी पड़ी है, किन्तु सरकार ने इस बात की फिक्र कभी नहीं की कि धनपशुओं की ऐसी करतूतों को कैसे रोका जाए और भ्रष्टाचार के खिलाफ एकमत कैसे तैयार किया जाए। यह बात भी सही है कि आज के हालात में भ्रष्टाचार को पूरी तरह खत्म करना, उसी तरह से हो जाएगा, जैसे पत्थर से पानी निकालना, क्योंकि भ्रष्टाचार, अधिकांश तबकों की नसों में खून बनकर दौड़ रहा है। भ्रष्टाचार की समस्या, देश की सबसे बड़ी समस्या है, लेकिन सरकार ने कभी इस मुद्दे के लिए न तो अपने स्तर पर पहल की और ना ही, कभी ऐसी कोई नीति बनाती नजर आई, जिससे कहा जा सके कि भ्रष्टाचार के सुरसा मुंह पर लगाम लग जाएगा।
देश में यह बात लगातार मीडिया के माध्यम से सामने आ रही है कि कहीं न कहीं बेनामी संपत्ति मिल रही है। आयकर छापे तथा ईओडब्ल्यू की कार्रवाई में छोटे-छोटे अफसरों के पास करोड़ों की संपत्ति मिल रही है, जबकि वह पूरी जिंदगी नौकरी करे तो भी इतनी संपत्ति नहीं जुटाई जा सकती। यह बात तो किसी से छिपी नहीं है कि कैसे कोई अफसर या कर्मचारी, नौकरी में आने के पहले पूरी तरह कड़का होता है, लेकिन कुछ ही बरसों बाद वह करोड़ों की संपत्ति का मािलक बन जाता है। कुछ इसी तरह के हालात राजनीतिक कर्णधारों के साथ भी देखने को मिलता है। अब तक जितने भी मामले सामने आते जा रहे हैं, उन मामलों में सरकार का रवैया नकारात्मक ही रहा है। सरकार, यदि भ्रष्टाचार को खत्म करने के बारे में कुछ भी निर्णय लेती तो सबसे पहले संसद में किसी सख्त कानून के पक्ष में होती, लेकिन भारत जैसे देश के लिए विडंबना ही है कि अब तक जितनी भी सरकार ने सत्ता की कमान संभाली है, किसी ने ऐसी किसी कानून की हिमायत नहीं की। चुनावों मे जरूर भ्रष्टाचार को एक बड़ा मुद्दा बनाया जाता है और बड़े-बड़े दंभ भरे जाते हैं कि उनकी सत्ता में काबिज होते ही भ्रष्टाचार मुक्त सरकार बनेगी, लेकिन वही ढाक के तीन पात। ऐसे कर्णधारों की सरकार तो बन जाती है, लेकिन उनकी सरकार भ्रष्टाचार से मुक्त तो नहीं होती, बल्कि
वह सरकार, भ्रष्टाचारमय सरकार जरूर बन जाती है। भ्रष्टाचार की एक तस्वीर देश में लगातार बढ़ते करोड़पति सांसदों को लेकर भी देखी जा सकती है, क्योंकि हर नेता सांसद बनने के पहले न तो करोड़पति होता है और न ही, कोई उद्योगपति। यहां स्थिति अलग होती है, कई सांसदों की कुछ बरसों की संपत्ति और आय के बारे जानकारी ली जाए तो दूध का दूध तथा पानी का पानी हो जाएगा।
अब बात प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की। यूपीए सरकार के पहले कार्यकाल के बाद इस दूसरे कार्यकाल में भी उनकी चुप्पी बनी हुई है। उनकी चुप्पी पर वैसे तो विपक्ष द्वारा आए दिन कटाक्ष किया जाता रहा है और उन पर कई तरह से कमजोर प्रधानमंत्री होने की बातें की जाती रही हैं। निश्चित ही, प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की आर्थिक नीतियों से देश की अर्थव्यवस्था में सुधार हुआ है, लेकिन जब उनकी ही पार्टी व सरकार में जमे मंत्रियों पर करोड़ों के भ्रष्टाचार के आरोप लगे और वह रिपोर्टों से स्पश्ट भी हो, उसके बाद भी यदि प्रधानमंत्री अपनी चुप्पी न तोड़े, तो फिर यह तो इस देश की उस आम जनता के साथ नाइंसाफी है, जिनके नाम का नारा लेकर वे यूपीए सरकार के मुखिया बने बैठे हैं। भ्रष्टाचार से आम जनता ज्यादा पीसती है, क्योंकि महंगाई की मार उसे ही झेलनी है, क्योंकि उन्हें कोई महंगाई भत्ता तो नहीं मिलता। काॅमनवेल्थ गेम्स के गड़बड़झाले में सुरेश कलमाड़ी का नाम आयोजन के पहले आ जाने के बाद भी उसे नहीं हटाया गया और ना ही, उससे अधिकार छिने गए। इस भ्रष्टाचार की कालिख को यूपीए सरकार धो भी नहीं पाई थी, या कहंे कि सरकार तटस्थ रहने के मूड में थी, उसी समय महाराष्ट्र में आदर्श सोसायटी के फ्लैट घोटाला का मामला सामने आ गया। शहीदों के नाम के फ्लैट को जब सेना के अफसरों द्वारा भी गलत तरह से लिया गया हो तो फिर इसे भ्रष्टाचार और मनमानी की हद ही कही जा सकती है। इस मामले में मुख्यमंत्री रहे अशोक चव्हाण की छुट्टी के साथ सुरेश कलमाड़ी भी आंख का तारा ना होकर, सरकार के लिए आंख का कीड़ा बन गए, जिसे सरकार ने अपने से बाहर फेंकने में ही भलाई समझी, क्योंकि विपक्ष, सरकार को संसद में इन मुद्दों पर लगातार घेर रहा था और सरकार की किरकिरी हो रही थी। इसके बाद दूरसंचार मंत्री रहे ए. राजा के मामले ने तो सरकार की बेबसी की पोल खोलकर रख दी। कैग की रिपोर्ट के बाद भी प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी बनी रही। हालात यहां तक बन गए कि भ्रष्टाचार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप करते हुए प्रधानमंत्री की भूमिका पर भी सवाल खड़े कर दिए। यह स्वाभाविक भी था, क्योंकि जब ए. राजा के खिलाफ मुकदमा चलाने की अनुमति सरकार से मांगी गई तो उनकी ओर से कोई जवाब नहीं आया। इसके बाद तो प्रधानमंत्री ही सवालों के घेरे में आ गए। शायद ऐसा पहली बार हुआ होगा, जब इस तरह किसी प्रधानमंत्री की भूमिका और चुप्पी पर सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह टिप्पणी की हो। सुप्रीम कोर्ट ने यहां तक ताकीद कर दी है कि कभी सरकार यह ना कहें कि उन्हें हलफनामा के लिए मौका नहीं मिला। कुल-मिलाकर सुप्रीम कोर्ट की भ्रष्टाचार को लेकर जो रूख है, उसे सरकार को भी समझने की जरूरत है, क्योंकि ऐसे में विकसित राष्ट्र, भारत को कभी नहीं बनाया जा सकता। भ्रष्टाचार ही है, जिसके कारण विदेशी बैंकों में भारत के गरीबों के हिस्से का पैसा जमा है। इस मामले में भी केन्द्र की यूपीए सरकार और प्रधानमंत्री को सुध लेने की जरूरत है, तभी देश की जनता का उन पर विश्वास कायम हो सकेगा। कहीं ऐसा ना हो कि प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह की चुप्पी से यूपीए सरकार को जनता की दरबार में बड़ी कीमत ना चुकानी पड़ जाए। सरकार और प्रधानमंत्री, जरा इन बातों पर विचार करें।
राजकुमार साहू
लेखक इलेक्ट्रानिक मीडिया के पत्रकार हैं
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