अन्तर्ध्वन्द
अमर प्रेम के अंकुर को ,
संकोच और अनजानी धूप ने,
यूँ झुलसाया,
पतझड़ आने को बौराया है,
मन बसंत में उलझा है,
उम्र ढलने को आई,
मन यौवन में अटका है,
संस्कार,मर्यादा,मान,परिधि,
सब पीछे छूटा,
मन विकल हो भागा,
रिश्ते नातों के फंदों से,
बुन गया यौवन सारा,
जब सबसे मुक्त हुआ,
मन बंधने को भागा........
अलका तिवारी
Added by alka tiwari on September 23, 2010 at 11:00am —
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"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :
"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"
मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :
//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया
एक निगह रास्ते पर जमी रह गई
मिट गई…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am —
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ओपन बुक्स ऑनलाइन पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी द्वारा (११-१५ सितम्बर-२०१०) मुनाक्किद "OBO लाईव तरही मुशायरा 2" में तरही मिसरा था :
"उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है"
(वज्न: १२१ २१२ १२१ २१२ २२)
उस मुशायरे में पढ़ी गईं सब ग़ज़लों को उनकी आमद के क्रम से पाठकों की सुविधा के लिए एक स्थान पर इकठ्ठा कर पेश किया जा रहा है !
// जनाब नवीन चतुर्वेदी जी //
(ग़जल-१)
फितूर जिनका लोगों को धता बताना है|
उन्हीं के कदमों में ही जा गिरा जमाना…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am —
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आ
तू
लौट आ
वेरना
मैं यूँ ही
जागती रहूंगी
रात रात भर
चाँदनी रातों मैं
लिख लिख कर
मिटाती रहूंगी
तेरा नाम
रेत पर
और हेर सुबह
नींद से
बोझिल पलकें लिए
सुर्ख,उनींदी
आंखों से
काटती
रहूंगी
कलेंडर से
एक और तारीख
इस सच का
सबूत
बनते हुए
की
एक
और रोज़
तुझे
याद किया
तेरा नाम लिया
तुझे याद किया
तेरा नाम लिया
Added by rajni chhabra on September 22, 2010 at 11:00pm —
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वो गया तो गया चांदनी भी गयी.
भागते सावनों की रजा रह गयी.
ज़ाहिरा जागते तीरगी सो गयी.
जाग जा अब न तेरी धमक रह गयी.
ज़िन्दगी रेत का ढेर थी बागवाँ
सामना आँधियों का न था, रह गई.
दोड़ते हाँफते रहगुज़र हम रहे
होंसले में कभी ना कमी रह गई
जानता था कि वो चापलूसी न थी
मिलन क़ी आरज़ू थी, रह गई.
या खुदा आसरा ताउम्र तू रहा
आजमा ले मुझे, ना कमी रह गई.
Added by chetan prakash on September 22, 2010 at 8:00pm —
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मन की बुझी ना प्यास तेरे दीदार की
मन का था भ्रम या हद थी प्यार की ।
क्यूँ नहीं समझता ये दिल अपनी हदों कों
किया सब जो थी मेरी कूवत अख्तियार की।
जिद में क्यूँ कर बैठा तू ऐसी खता
कर दी बदनामी खुद ही अपने प्यार की ।
सुर्खरू हो जाता है तन-मन तुझे देख कर
सुध-बुध नही रही इसे अब संसार की ।
हर तमन्ना में बस तमन्ना है तेरे दीद की
कयामत की हद बना रखी है इंतजार की ।
जमाना चाहे जितने कांटे बिछा दे राहों में
'कमलेश 'जीत आखिर…
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Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on September 22, 2010 at 7:30pm —
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लेख :
हिंदी की प्रासंगिकता और हम.
संजीव वर्मा 'सलिल'
हिंदी जनवाणी तो हमेशा से है...समय इसे जगवाणी बनाता जा रहा है. जैसे-जिसे भारतीय विश्व में फ़ैल रहे हैं वे अधकचरी ही सही हिन्दी भी ले जा रहे हैं. हिंदी में संस्कृत, फ़ारसी, अरबी, उर्दू , अन्य देशज भाषाओँ या अंगरेजी शब्दों के सम्मिश्रण से घबराने के स्थान पर उन्हें आत्मसात करना होगा ताकि हिंदी हर भाव और अर्थ को अभिव्यक्त कर सके. 'हॉस्पिटल' को 'अस्पताल' बनाकर आत्मसात करने से भाषा असमृद्ध होती है किन्तु 'फ्रीडम' को…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 6:30pm —
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शबनम नहीं बरसते आसमां से आग अब तो
जज़्बों से ब्यां हो दिल के दा़ग अब तो
इतने शौले उमड़ पड़े नाउम्मीदी के आतिश का
जलता नहीं दिल में उम्मीदों के चि़राग अब तो
सोचूँ तो दर्द बोलूँ तो दर्द हरसू दर्द दिखाई दे
काटों की तरह चुभने लगा गुलाब अब तो
जिऩ्दगी से नफरत होने लगी कज़ा से उल्फत
टूटे हुऐ दिल में सजता नहीं है ख़्वाव अब तो
जीने की तमन्ना में हम क्या क्या करते गये
हर सांस मागें जिऩ्दगी का हिसाब अब तो
क्या सोंचा जिन्दगी से…
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Added by Subodh kumar on September 22, 2010 at 5:00pm —
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जिन्दगी समझौता ही सही
पर मुझे उससे प्यार है।
स्नेह, प्रेम, मर्यादा की
लहराती बयार है।
गम नहीं गर पूरी नहीं
होती, मेरी पुकार है।
जिन्दगी समझौता ही सही
पर मुझे उससे प्यार है।
उठते ही रसोई से समझौता,
यही तो जीवन की खुषियों का द्वार है।
बिजली, पानी, सफाई से समझौता
नियमित ही होते इनसे दो चार हैं।
जिन्दगी समझौता ही सही
पर मुझे उससे प्यार है।
कार्यालय पहुँचते ही काम से समझौता,
इसमें जीविका के संचालन का सार…
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Added by Jaya Sharma on September 22, 2010 at 2:04pm —
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//अर्ज़-ए-हाल//
हम अपनी जान किसी पर निसार कैसे करें,
तुझे भुला के किसी और से प्यार कैसे करें ,
तेरे बिछड़ने से दुनिया उजड़ गई दिल की,
इस उजड़े दिल को अब हम खुशगवार कैसे करें !
//सुराग़//
शब् भर हमारी याद में ऐसे जगे हो तुम,
आराम तर्क करके टहलते रहे हो तुम,
बिस्तर की सिलवटों से महसूस हो गया,
कुछ देर पहले उठ के यहाँ से गए ही तुम !
//माँ//
मेहनत के बावजूद जो पंहुचा मै अपने घर ,
वालिद का ये सवाल कमाया है तुने कुछ .
बीवी को…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:30pm —
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//मशविरा//
हरगिज़ ना करना चाहिए इन्सान को गुरूर
दनिश्वरी के जौम में हो जाते हैं कुसूर
मैंने तमाम उम्र किया है सफ़र मगर
अब तक ज़मीं पे चलने का आया नहीं श'ऊर
//वाबस्तगी//
निगाह मिलते ही तुझको सलाम करता हूँ
तेरी नज़र का बड़ा एहतराम करता हूँ ,
मेरी ज़ुबां तेरी गुफ्तार से है वाबस्ता,
ये कौन कहता है सबसे कलाम करता हूँ !
//बदकिस्मती//
वो है मेरा रफीक मैं उसका रकीब हूँ
दुनिया समझ रही मैं उसके करीब हूँ
चाहा था जिसने मुझको मैं उसका…
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Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:29pm —
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कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था…
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Added by Aparna Bhatnagar on September 22, 2010 at 10:07am —
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समीक्षात्मक आलेख:
डॉ. महेंद्र भटनागर के गीतों में अलंकारिक सौंदर्य
रचनाकार:आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
जगवाणी हिंदी को माँ वीणापाणी के सितार के तारों से झंकृत विविध रागों से उद्भूत सांस्कृत छांदस विरासत से समृद्ध होने का अनूठा सौभाग्य मिला है. संस्कृत साहित्य की सरस विरासत को हिंदी ने न केवल आत्मसात किया अपितु पल्लवित-पुष्पित भी किया. हिंदी सहित्योद्यान के गीत-वृक्ष पर झूमते-झूलते सुन्दर-सुरभिमय अगणित पुष्पों में अपनी पृथक पहचान और ख्याति से संपन्न डॉ.…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 9:30am —
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त्रिपदिक कविता :
प्रात की बात
संजीव 'सलिल'
*
सूर्य रश्मियाँ
अलस सवेरे आ
नर्तित हुईं.
*
शयन कक्ष
आलोकित कर वे
कहतीं- 'जागो'.
*
कुसुम कली
लाई है परिमल
तुम क्यों सोये?
*
हूँ अवाक मैं
सृष्टि नई लगती
अब मुझको.
*
ताक-झाँक से
कुछ आह्ट हुई,
चाय आ गयी.
*
चुस्की लेकर
ख़बर चटपटी
पढ़ूँ, कहाँ-क्या?
*
अघट घटा
या अनहोनी हुई?
बासी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on September 22, 2010 at 8:00am —
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::::: मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है ::::: © (मेरी नयी सवालिया व्यंग्य कविता)
मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है...
नाना प्रकार के प्रेत...
भरमाते हुए...
विकराल शक्लें...
लोभ-काम-क्रोध-मद-मोह...
नाम हैं उनके...
प्रचंड हो जाता जब कोई...
घट जाता नया काण्ड कोई...
सृष्टि के दारुण दुःख समस्त...
सब दिये इन्हीं पञ्च-तत्व-भूतों ने...
लालसा...
अधिक से भी अधिक पाने की...
नहीं…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on September 22, 2010 at 4:30am —
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नम आँखें...
आँखों में इंतज़ार...
कभी घड़ी को तकती...
तो कभी दरवाज़े की चौखट को...
और कभी थाली में सजी रेशम की डोर को...
उसमें सजे मोतियों की चमक में दिखता तेरा मुस्कुराता चेहरा...
और खो जाती मैं उस सुन्हेरे बचपन में...
जहाँ हर पल तेरा मुझे छेड़ना...
मुझे चिढ़ाना और चोटी खींचना...
तब भी आंसू देता था और आज भी...
तेरा शैतानियाँ करना और मेरा उन्हें माँ से छुपाना...
मुझे कोई रुलाये… Continue
Added by Julie on September 22, 2010 at 2:44am —
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फिर उसकी महक ले हवाएँ आईं
शायद काम मेरे मेरी दुआएँ आईं
आँखों में फिर थोड़ी चमक है सबकी
जाने क्या संग अपने ले घटाएँ आई
कौन बचा है खुदा के इंसाफ़ से यहाँ
सब के हिस्से मे अपनी सजाएँ आईं
बीमार कहाँ मरते हैं मरज से यहाँ
काम मारने के अब तो दवाएँ आईं
जब लगा ख़तरे मे है कोई "मासूम"
दौड़ चली शहर की सब माएँ आईं ,
Added by Pallav Pancholi on September 21, 2010 at 10:00pm —
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ख़्यालों के तासीर से दिल अपना बहला लेते हैं
कुछ लोग एहसासे बुलंदी से हीं आसूदगी पा लेते हैं
आसूदगी = संतोष
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फितरते दिलकशी है चेहरे पर नक़ाब उनका
राजे दिल फा़श करे रंगे शबाब उनका
वो न कहें लबों से चाहे कुछ मगर
कहती है बहुत कुछ अंदाजे हिजा़ब उनका
हैं वो भी मुज़्तरिब जितना की दिल मेरा
ये और बात है कहे न कुछ इजि़्तराब उनका
मुज़्तरिब = व्याकुल…
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Added by Subodh kumar on September 21, 2010 at 5:30pm —
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काश रहबर मिला नहीं होता
मै सफ़र में लुटा नहीं होता
गुंडागर्दी फरेब मक्कारी
इस ज़माने में क्या नहीं होता
हम तो कब के बिखर गए होते
जो तेरा आसरा नहीं होता
आग नफरत की जिसमे लग जाये
पेढ़ फिर वो हरा नहीं होता
हम शराबी अगर नहीं बनते
एक भी मैकदा नहीं होता
हिन्दू मुस्लिम में फूट मत डालो
भाई भाई जुदा नहीं होता
ये सियासत की चाल है लोगो
धर्म कोई बुरा नहीं होता
मंदिरों मस्जिदों पे लढ़ते…
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Added by Hilal Badayuni on September 21, 2010 at 12:56pm —
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उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
इस जीवन से तूने क्या लिया |
इस जीवन को तूने क्या दिया
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
ता उम्र तू रहा इस कदर बेखबर
रही न तुझे अपनी जमीर की खबर |
करता रहा तू मनमानी अपनी
रही न तुझे वक्त की खबर
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया |
करता रहा तू मेरा - मेरा
नही है , यहा कुछ तेरा - मेरा |
उम्रे तमाम गुजारी तो क्या किया
मनुष्य जन्म तुझे है , किसलिए मिला
इस जन्म को किया क्या सार्थक तूने |
उम्रे तमाम गुजारी…
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Added by Pooja Singh on September 21, 2010 at 9:35am —
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