कैसी तरखा हो गयी है गंगा ! यूँ पूरी गरमी में तरसते रह जाते हैं , पतली धार बनकर मुँह चिढ़ाती है ; ठेंगा दिखाती है और पता नहीं कितने उपालंभ ले-देकर किनारे से चुपचाप निकल जाती है ! गंगा है ; शिव लाख बांधें जटाओं में -मौज और रवानी रूकती है भला ? प्राबी गंगा के उन्मुक्त प्रवाह को देख रही है. प्रांतर से कुररी के चीखने की आवाज़ सुनाई देती है. उसका ध्यान टूटता है. बड़ी-बड़ी हिरणी- आँखों से उस दिशा को देखती है जहां से टिटहरी का डीडीटीट- टिट स्वर मुखर हो रहा था . साल के पेड़ पर खुटक बढ़इया खुट-खुट कर तने को कोंच रहा था. घोमरा, कारंडव, गंगाचिल्ली आज पानी में उतरने का साहस नहीं कर पा रहे थे. किनारे पर गुमसुम बैठे थे. प्राबी ने बंसी जल की तेज़ धारा में डाल दी, पर मछलियाँ थीं कि फिसल-फिसल कर दूर-दूर तक तैर जातीं. उनके चिकने शरीर पानी की चांदी में और चांदीदार हो जाते. "हूँ , आज एक भी हाथ नहीं आएगी . भात का मांड दादी पकाएँगी ,वह भी बिना नमक के. मच्छी हाथ लगती तो वह भी तो उबाल कर निगलनी पड़ती- फीकी, बेस्वाद . नमक है कहाँ . गंगा पार कौन जाए ? महाजन तो गाँव आने से रहा !" अनूठा गाँव है - फल -फूलों से लदा पर हमेशा का भूखा . पानी है, पर पपड़ाए होंठ न जाने किस बिछलन से कुलबुलाये रहते हैं. थक-हार कर प्राबी ने टोकरी उठाई और उन्मन हो लौट गयी . खुटक बढ़इया अब भी खुट-खुट कर रहा था .
झोपड़ी में अँधेरा था . दादी ने डिबरी नहीं जलाई थी ? "दादी कब तक लीपती रहोगी मड़ैया? बारिश में कहाँ टिकेगी ? रहने भी दे .आज भी न मिली सिंघी. बाबा कहाँ हैं..... ?"
"मांड पका देती हूँ . कौन देर लगती है? बाबा तेरा पड़ा है महुआ पीकर. तेरी माँ क्या गयी इसका भी सब कुछ चला गया . बहाना है , काम न करने का ."
"दादी , बाबा मारने दौड़ेंगे ; चुप भी रहो ."
"तो, कौन डरती हूँ ? आँखें तरेरेगा ? डर नहीं पड़ा है . मेरा घर है , हौंस दिखायेगा तो कह दूंगी कि जाए कहीं और."
"रोज़ यूँ ही बका-झका करती हो , बाबा बदले क्या?"
दादी बड़बडाती रहीं -"न जाने किस घड़ी में ब्याह लाया था. गाँव में कोई तैयार न था. कौन उड़ाता चुनरी ? न जाने कहाँ मुँह काला कर आई थी. अरे , वह तो उसकी माँ थी दरियादिल. क्या नहीं देने को तैयार थी ? कितना पैसा दे रहे थे, कोई कमी न छोड़ते थे . मिल जाता तो दो पीढ़ियाँ पल जातीं. पर सिर पर भूत सवार था, लछमी से नाता बिठाने का. अपनी सौंह दी, सब आगा-पीछा बताया. न माना; सेंदूर भर दिया और मोल भी न लिया. बिरादरी की रस्में कोई ऐसे तो न बनी हैं ... कन्या -मूल्य माँगना ... कौन बुराई है इसमें ...और ऐसी डायन जो दो महीने से थी.... "
प्राबी का चेहरा काला पड़ गया... गौरवर्ण सूखे पत्ते की तरह कांप गया. मुट्ठियाँ भिंच गयीं और उसकी आँखें तरखा बन गयीं ... ऐसा दांता जो पथरीला प्रवाह है . बाबा सुट पड़ा रहा . मन हुआ चिल्ला-चिल्लाकर पूछे बाबा से... कौन थी उसकी माँ? क्यों देती हैं दादी ताना ? बाबा कैसे सुन लेता है चुपचाप ?औरस पिता क्यों मिला उसे? माँ के लिए नफरत पैदा हुई ..छी..! फिर खुद के लिए... इतनी गहरी घृणा ... जैसे किसी ने कूट-कूट कर कोयला भर दिया हो ..गरम जलता कोयला. प्राबी बाबा की बगल में लेट गयी, बाबा की ठंडी उंगलियाँ उसके बालों में फिर रहीं थीं -एक दिलासा बनकर .. हूँ... मैं हूँ तेरा बाबा. लछमी को क्या यूँ ही ले आया था? सेंदूर भरा था गाँव के सामने ... तू पराई कैसे हुई ? जब लछमी अपनी थी तो तू भी तो अपनी है रे -दिल टुक्का... मेरा छौना... गरम बूंदें आँखों से ढरक गयीं. न जाने कब तक ढरकती रहीं,विद्रोह करती रहीं अपने दुःख से ! महुआ ने कहाँ सोने दिया उसे ? कितनी चुप थी रात ! कितना असहाय था उसका अंधेरापन ! कितना विलग और कितना अपना ! रात को मूक स्वीकृति देकर दोनों भूखे सो गए . दादी ने कई आवाजें लगायीं फिर सारी दुनिया को कोस-कोस कर मुँह ढांप पड़ी रही. बाहर गीदड़ हुआ -हुआ कर रहे थे . छप्पर पर बरसात तमाचे जड़ रही थी, बीच-बीच में साल के पेड़ साँय-साँय कर रुदन कर उठते .
सूरज की बीमार पीली रोशनी प्राबी के गोरे रंग पर पड़ रहीं थीं.उस गोरे रंग में भीग कर जैसे सुबह ताज़ा हो गई. लतुआ अपलक निहार रहा था. कितनी सुन्दर है . लछमी जिन्दा होती तो हिया जुड़ जाता उसका. एक नज़र भी न देख पायी अभागन . एक-एक महीना कैसे निकाला था? सूई-धागा लिए कपड़े सिलती. कभी कुछ गुनगुनाती , तो कभी अकारण उसका चेहरा शरम से अनार की तरह लाल हो जाता था. कभी अचानक आँखों में आंसू भर जाते और कह उठती, "तुम्हारा किया उपकार न भूलूंगी. जीती रही तब भी ,और मर गयी तो सरग में भी ....!" तब वह अपनी उँगली उसके कोमल अधरों पर रख देता था, "बस चुप रहो और नहीं.." उस दिन उसका मुँह कैसा हो गया था? दरद से तड़प उठी थी ... न सही गयी उससे पीड़ा. केवल प्रसव की होती तो सह लेती.. उसके सीने में तो ऐसा दरद था जो सिर्फ वही जानती थी. जाने की ऐसी जल्दी थी कि प्राबी के लिए भी न रुका गया पगली से. शायद मुझ पर भरोसा न कर पायी थी और न ही परेम...
दादी ने प्राबी को उठा दिया. धतुआ से कहा -"माँ हूँ तेरी. कुछ बोल जाती हूँ तो बुरा न माना कर."
धतुआ ने सिर हिला कर हामी भरी और कुछ ऐसी नज़रों से देखा कि माँ सब भांप गयी . उठकर प्राबी के पास गयी और उसे छाती से लगा लिया. धातुआ बाहर चला गया , कहाँ गया नहीं पता . ऐसा अकसर होता है. दिन ढले ही आता है और महुआ पीकर सो जाता है.
प्राबी अपने सफ़ेद कबूतरों से खेलती रही. बाबा ने माँ को लाकर दिए थे. दादी को इनसे चिढ़ है पर प्राबी उन पर जान छिड़कती है. उनकी लाल आँखें कितनी प्यारी लगती हैं. माँ को भी लगती होंगी! माँ से जुड़ी यादगार हैं ये. माँ से लाख नफरत करे पर उसकी यादों से प्यार करती है प्राबी - बाबा से भी; इन सफ़ेद कबूतरों से भी, लाल चूनर से भी जो बाबा ने माँ को उड़ाई थी; सेंदूर की उस डिबिया से जो माँ की मांग में लम्हे बनकर सजी थी और वे छोटे कपड़े जो माँ ने प्राबी के लिए सिले थे. उसकी अपनी प्राबी के लिए ...! कबूतर प्राबी के हाथों से तब तक बाजरा चुगते रहे जब तक दादी डंडा लेकर उन्हें उड़ाने न आयीं. कबूतरों के साथ प्राबी भी बाहर चली गयी. आज उसने माँ की लाल चूनर ओढ़ रखी थी. दादी बलैया लेकर काजल आँज गयीं थीं आँखों में .कितनी सुन्दर लग रही थी. ऐसा चम्पई रंग ढूंढने से भी न मिलेगा . दादी को प्राबी एकदम बड़ी लगी पर उसने टोका नहीं. कबूतर भी साथ-साथ उड़ते रहे . रात भर पानी बरसा था पर अब आसमान साफ़ था. पेड़-पौधे रातभर नहा कर निर्मल हो गए थे. नदी किनारे चलती गयी. गाँव से बहुत दूर . सीमा पार ,जहां से ठाकुर जी की हदें शरू होती थीं. धान के खेत , कटहल कतारों से लगे , आम के बगीचे और विशाल हवेली ! प्राबी के कदम रुक गए . बाबा की हिदायत याद हो आई - 'ठाकुर जी की हवेली में भूत रहतें हैं ,भूल कर भी न जाना.' मन में डर पैदा हुआ. लौटने के लिए उसने कदम उठाया तो एक कठोर आवाज़ ने उसे रोक दिया. पैरों को जैसे लकवा मार गया. ठीक सामने बाबा की उम्र का बलिष्ठ अधेड़ खड़ा था. उसकी आँखों में ऐसा पथरीलापन था कि भय से प्राबी की शिराएं जमती जान पड़ीं . कबूतर नीचे उतर आये थे और वहीँ कटहल की शाख पर बैठ गए. वह अधेड़ अजीब आँखों से देख रहा था. नश्तर की तरह कलेजा चीरने वाली आँखें . उसने उसे पीछे आने का आदेश दिया . अब कबूतर नीचे उतर आये और प्राबी के कंधे पर आकर बैठ गए. वह प्राबी को खींचकर ले गया. कबूतर साथ न दे पाए . हवेली अन्दर से बंद थी . कोई झरोखा नहीं .....ऊँची-ऊँची दीवारें , पुतलेनुमा पहरेदार .... वे पंख मारते रहे , सिर पटकते रहे दीवारों पर, लेकिन प्राबी कहाँ थी?
फिर हवेली का द्वार खुल गया . तेज़ धमाका हुआ .कबूतर नीचे आ गिरे . एक लाल गहरी चूनर हवा के झोंके से उड़कर आई और कबूतरों पर आ गिरी . वहीँ खड़ा था धतुआ - ज़मीन पर बैठ गया . मुँह से निकला -हाय , लछमी तू यहीं लायी गयी थी रे ! मैं तब भी न आ पाया था , और उसे भी न रोक पाया.
उसके बाद किसी ने न प्राबी को देखा , न धतुआ को. कहतें हैं गंगा कभी उस गाँव में तरखा न हो पायी और दादी हवेली के पास भटकती रही ......... कई महीनों , सालों .... सफ़ेद कबूतर कहाँ गए ? जहां वे होंगे वहीँ प्राबी भी होगी ....! यही पूछती रही .., भटकती रही .पर पहरेदार पुतले बने कुछ जवाब न दे पाए बुढ़िया को !
अपर्णा
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