शहरो के बीच बीच सड़कों के आसपास |
शीत के दुर्दिन का ढो रहे संत्रास , क्या करे क्या न करे फुटपाथ ||
सूरज की आँखों में कोहरे की चुभन रही
धुप के पैरो में मेहंदी की थूपन रही
शर्माती शाम आई छल गयी बाजारों को
समझ गए रिक्शे भी भीड़…
Added by ajay sharma on December 22, 2012 at 10:30pm — 3 Comments
समर्पण
(यह कविता मैं अपनी जीवन साथी, नीरा जी, को सादर समर्पित कर रहा हूँ)
तुम
मेरे शब्दों को पी लेती हो,…
ContinueAdded by vijay nikore on December 22, 2012 at 8:18pm — 12 Comments
बलात
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 22, 2012 at 4:00pm — 14 Comments
इक ग़ज़ल पेशेखिदमत है दोस्तों
उड़ गयी चिड़िया सुनहरी क्या बसेरा हो गया
देखते ही देखते बाजों का डेरा हो गया
कुर्बतों में मिट गयी तहजीब की दीवार यूँ
आपका कहते थे जो अब तू औ तेरा हो गया
कागजी टुकड़े खुदा हैं और उनके नूर से
बंद…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on December 22, 2012 at 4:00pm — 11 Comments
वो हडबडा कर उठ बैठी , तेज़ गति से चलतीं साँसें ,पसीने से भीगा माथा,थर-थर कांपता शरीर उसकी मनोदशा बयान कर रहे थे I वो बार-बार बचैनी से अपना हाथ देख रही थी I अकबका कर तेज़ी से उठी और बाथरूम की तरफ भागी I कई बार साबुन से हाथ धोया, उसकी धड़कने अभी भी तीव्र गति से चल रहीं थीं, शरीर अभी भी काँप रहा था I बेडरूम में वापस न जाकर ड्राइंग रूम में बिना…
ContinueAdded by seema agrawal on December 22, 2012 at 3:00pm — 13 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 22, 2012 at 11:00am — 18 Comments
"अपनी कमजोरियों का शिकार आदमी,
बस दलीलों से है ज़ोरदार आदमी.. बारहा माफ़ करता रहे, वो खुदा, गलतियां जो… |
Added by rajneesh sachan on December 21, 2012 at 4:40pm — 14 Comments
कटु-मधु
कुछ भींगी यादें
लेकर आई
हर दुपहर
ढूंढा जब भी
नया ठिकाना
पहुंच गई
लेकर नश्तर
कमतर जिनको आंक रहे थे
कर गए आज मुझे बेघर
घुटने भर की
आशा लेकर
उड़ा विहग
जब भी खुलकर
काली स्याही
लेकर दौड़े
लिए पंख
धूसर-धूसर
हमने जिनको गले लगाया
कर गए वे जीना दूभर
Added by राजेश 'मृदु' on December 21, 2012 at 2:00pm — 6 Comments
लगी आग जलके, हुआ राख मंजर,
जुबां सुर्ख मेरी, निगाहें सरोवर,
लुटा चैन मेरा, गई नींद मेरी,
मुहब्बत दिखाए, दिनों रात तेवर,
सुबह दोपहर हर घड़ी शाम हरपल,
रही याद तेरी हमेशा धरोहर,…
Added by अरुन 'अनन्त' on December 21, 2012 at 11:09am — 12 Comments
कहने को तो चाँद तारे,
आसमा की चादरों से
जड़ के सलमा और सितारे
हम को ये भरमा के हारे
"हैं तो ये पाषाण ही ना "
नदियों का तट चाँद मद्धिम
सूर्य की आभा हुयी कम ,
सतह जल की तल निहारे
चांदनी की परत डारे
"तल में बस पाषाण ही ना"
ह्रदय कोमल, मन सु-कोमल
त्वरित धडका, दौड़ता सा
पागलों की भाँती चाहा
फिर भी उसका मन न…
Added by SUMAN MISHRA on December 21, 2012 at 2:00am — 3 Comments
लड़की चीख़ी
चिल्लायी भी
मगर हैवानों के कान बंद पड़े थे
नहीं सुन पाये
उसकी आवाज़ का दर्द
वह रोयी बहुत
आँखों से उसके
झर-झर आँसू…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on December 21, 2012 at 12:24am — 2 Comments
कृषक
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कृषि प्रधान भारत अपना फसलों की बहार है
भूख कुपोषण जन है मरते कैसा पालन हार है
खेत से खलिहान तक फैली जिसकी सरकार है
उसका तो बस नाम मात्र ईश्वर पालन हार है
काट रहा निश दिन अपने स्वेदाम्बू लिए माथ है
हाथ न आये लाभ उसे कछु भूख मात्र साथ है
काढ़े कर्ज उत्पादन करते सेठ भरे तिजोरी है
बच्चे उसके भूखे मरते शासन की कमजोरी…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on December 20, 2012 at 3:47pm — 13 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on December 20, 2012 at 3:46pm — 8 Comments
एक बात तो है, जो ‘आम’ होता है, वही ‘खास’ होता है। अब देख लीजिए ‘आम’ को, वो फलों का ‘राजा’ है। नाम तो ‘आम’ है, मगर पहचान खास में होती है। हर ‘आम’ में ‘खास’ के गुण भी छिपे होते हैं। जो नाम वाला बनता है, एक समय उन जैसों का कोई नामलेवा नहीं होता। जैसे ही कोई उपलब्धि हासिल हुई नहीं कि ‘आम’ से बन जाते हैं, ‘खास’।
देख लीजिए, हमारे क्रिकेट के महारथी, कुल कैप्टन को। जब वे क्रिकेट की दहलीज पर कदम रखे तो उन्हें कोई नहीं जानता था, उनकी बस इतनी ही पहचान थी, जैसे वे आजकल बोले जा रहे हैं, ‘एैरे-गैरे’…
Added by rajkumar sahu on December 20, 2012 at 2:53pm — 1 Comment
लिखी गई फिर पल्लव पर नाखून से कहानियां
खिलखिलाई गुलशन में नृशंसता की निशानियां
छिपे शिकारी जाल बिछाकर ,चाल समझ में आई
उड़ती चिड़िया ने नभ से न आने की कसमें खाई
बिछी नागफनी देख बदरिया मन ही मन घबराई
गर्भ से निकली ज्यों ही बूँदे, झट उर से चिपकाई
सकुचाई ,फड़फडाई तितली देख देख ये सोचे
कहाँ छिपाऊं पंख मैं अपने कौन कहाँ कब नोचे
देख सामाजिक ढांचा…
Added by rajesh kumari on December 20, 2012 at 11:30am — 22 Comments
हर धड़कन एक आहट जैसी,
वो जो खोया कहीं मिलेगा ,
हर चेहरे में छाया उसकी ,
नहीं नहीं ये वो तो नहीं है .
क्यों हर कविता प्रेम ग्रन्थ सी
क्यों शब्दों में इन्तजार है,
दर्द नहीं बस आकुलता सी
नहीं नहीं ये नेह नहीं है.
खोना पाना , पाना खोना ,
जीवन की ये परिपाटी सी
कुछ मिलता है खोकर देखो
कुछ मिलने से…
Added by SUMAN MISHRA on December 19, 2012 at 6:30pm — 10 Comments
क्रोध
अशांत करता है,परेशान करता है,
पटरी पर चल रही जिंदगी को,
पटरी से उतार देता है, क्रोध ।
बुद्धि नष्ट करता है,ज्ञानहीन बनाता है,
संयम को नष्ट करके,
गरिमा को खत्म करता है, क्रोध ।
बना काम बिगाड़ता है,संबंध खराब करता है,
वर्षों की मेहनत को क्षण में बरबाद करता है,
प्रेम में जहर भर देता है, क्रोध ।
हृदय जलाता है,रोग पैदा…
ContinueAdded by akhilesh mishra on December 19, 2012 at 5:30pm — 2 Comments
गीत:
नया वर्ष है...
संजीव 'सलिल'
*
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
कल से कल का सेतु आज है यह मत भूलो.
पाँव जमीं पर जमा, आसमां को भी छू लो..
मंगल पर जाने के पहले
भू का मंगल -
कर पायें कुछ तभी कहें
पग तले अर्श है.
खड़ा मोड़ पर आकर फिर
एक नया वर्ष है...
*
आँसू न बहा, दिल जलता है, चुप रह, जलने दे.
नयन उनीन्दें हैं तो क्या, सपने पलने दे..
संसद में नूराकुश्ती से
क्या पाओगे?
सार्थक तब जब आम…
Added by sanjiv verma 'salil' on December 19, 2012 at 2:03pm — 7 Comments
(फाँसी से कम नहीं )
इन्हें फाँसी पर लटका दो
या गोलियों से मरवा दो
बलात्कारियों की रूह काँप जाए
इन्हें ऐसी कड़ी सजा दो
इन दरिंदों को जिंदा न छोड़ो
पहले इनके हाथ पाँव तोड़ो
जिंदा सूली पर लटका दो
लाश चील कव्वों को खिला दो
इनके घिनोने जुर्म की
और सज़ा न कोई
शर्मसार है भारत माँ
माएँ फूट फूट कर रोई
हद कर दी हैवानियत की
जली होली इंसानियत की
कड़े कर दो कानून नियम
जलाओ चिता शैतानियत…
Added by Deepak Sharma Kuluvi on December 19, 2012 at 12:34pm — 4 Comments
सब बिकाऊ हे
बाज़ार में आज सब बिक रहा है
होता हे कुछ और कुछ दिख रहा है
दाम हो तो बोली लगाओ चाँद की
आसमान भी शर्म से अब झुक रहा है
बाज़ार में आज--------------
ईमान बिक रहा हे जमीर बिक रहा है
मजहव के नाम पर दाँव फिक रहा है
सम्मान की तो सरेआम होती नीलामी
सदभाव बहा देती सम्प्रदायिकता की सुनामी
बाजारू दलाल फलफूल रहा है
बाज़ार में आज-----------
बदन बिक रहा हे सदन बिक रहा है
लोकतंत्र की नई परिभाषा लिख रहा…
Added by Dr.Ajay Khare on December 19, 2012 at 12:00pm — 2 Comments
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