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ग़ज़ल : - वो धुआं था रोशनी को खा गया

ग़ज़ल : - वो  धुआं था रोशनी को खा गया

छत से निकला आसमां पे छा गया ,

वो  धुआं था रोशनी को खा गया |

 

सब ज़बानें मजहबी खँजर हुईं ,

क्या पुनः दंगों का मौसम आ गया |

 

टहनियों पर तितलियों…

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Added by Abhinav Arun on February 5, 2011 at 8:30am — 13 Comments

ग़ज़ल :-मिस्र वालों ने दिखाई हिम्मत

ग़ज़ल :- मिस्र वालों ने दिखाई हिम्मत

कैद बेशक है आज पिंजर में ,

हौसला है मगर अभी पर में |

 

मिस्र वालों ने दिखाई हिम्मत ,

जी रहे हम न जाने किस डर में |

 

हत परिंदों को बचाता है कौन…

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Added by Abhinav Arun on February 5, 2011 at 8:00am — 7 Comments

Ghazal - 7

                               ग़ज़ल



सौ  अफसानों  जैसा  मेरा,  भी बस इतना  अफ़साना  है |

जिस दुनिया ने दर्द दिया है, दिल  उसका  ही  दीवाना है ||



शायद वो  तस्वीर   हो ऐसी,  जो  इस  दिल  को  पहचाने,

इसी आश में जिआ हूँ अब तक, और यूँ ही जीते जाना है ||…



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Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on February 4, 2011 at 7:00pm — 2 Comments

मेरे संग्रह अँधेरे की चीख से ३ ग़ज़ले

एक 

जब से हुई है बंद दुकानें उधार की 

रंगत बिगड़ गई है फसले बहार की

सावन के रंग अब के फीके लगा किये

ये उम्र है नहीं अब सोलह सिंगार की

बौने है किस कदर ये आदम बड़े बड़े

हद देख ली है हम ने सब के मयार की

हो पायेगा उन्हें क्या जाने यहाँ अता

मन्नत जो मानते है उजड़े मजार की

बाजार से गुजर के वो शख्स रो पड़ा

कीमत बढ़ी हुई है मुश्ते गुबार की

किस्सा-ए-तोता-मैना यों याद था उन्हें

लिखी गयी कहानी उनसे शिकार…

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Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 4, 2011 at 6:30pm — 3 Comments

"OBO लाइव विश्व भोजपुरी कवि सम्मेलन" -एक कविता

OBO लाइव विश्व भोजपुरी कवि सम्मेलन ,

होगी इसमें भाइयो की मिलन ,

कविओ की कला सामने आएगी ,…

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Added by Rash Bihari Ravi on February 4, 2011 at 6:00pm — 1 Comment

तुम

तुम्हारे ही सहारे से मेरा हर पल गुजरता है,

तुझ में डूब कर के ही मेरा पल-पल गुजरता है|



मै कितना प्यार करता हूँ तुम्हे किस तरह बतलाऊं,

जो बेहोश हूँ तेरी याद में क्यों होश में आऊं|



हसीं हो तुम बहुत सचमुच बहुत ही खुबसूरत हो,

बस आशिक मै नहीं तेरा, सभी की तुम जरुरत हो|



तुम्हारे होंठ तो मुझको कोई गुलाब लगते है,

तुम्हारी झील सी आँखें है या शराब लगते है|



गुजारूं रात मै कोई तेरी जुल्फों की छावों में,

यही इच्छा मेरी बस जाऊं मै तेरी… Continue

Added by आशीष यादव on February 4, 2011 at 7:47am — 12 Comments

पर्दाफ़ाश

 

तुमने मेरे मस्तिष्क को

बींदने की

बेपनाह कोशिश की है

उसे नियन्त्रित करने की

मशक्कत की है कि, जैसा तुम चाहो

मैं वैसा सोचूँ..

तुमने मुझे एक से बढ़ कर एक

रंगीन जाल दिखाया

बनाये अनोखे तिलिस्म और चाहा

कि जैसा तुम दिखाना चाहते हो

मैं बस वो ही देखूँ..

तुमने मेरी उंगलियों को

छेद छेद कर, पिरोने…

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Added by Shamshad Elahee Ansari "Shams" on February 4, 2011 at 4:30am — 9 Comments

बड़े कवि

 

बड़े कवि

 

बड़े कवि

बड़ी कविता लिखते है 

जिसे बड़े कवि पढ़ते है

फिर परस्पर पीठ खुजलाते हुए 

कला साहित्य के 

नए प्रतिमान गढ़ते है

बड़े कवि

ख़ारिज कर देते है

किसी को भी 

तुक्कड़ या लिक्खाड़ 

कह कर

बड़े कवि

गंभीरता का लबादा ओढ़े 

किसी नोबेल विजेता की 

शान में कसीदे पढ़ते है

विदेशी कवियों को'कोट ' करते है

फिर उस 'कोट' के

भार…

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Added by ASHVANI KUMAR SHARMA on February 3, 2011 at 10:30pm — 6 Comments

ऐब की बस्ती

कल ऐब की बस्ती में ख्वाबों का घर देखा

अदावत की सोहबत देखी शैदा बेघर देखा

 

दर्द नहीं मिट पाया यादों को तज़ा करके भी

जहाँ फकत फजीहत देखी माजी उधर देखा

 

हासिल हुई बेगारी मुझे मंजिल के…

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Added by Bhasker Agrawal on February 3, 2011 at 4:55pm — 2 Comments

षडऋतु - दर्शन * संजीव 'सलिल

(आचार्य जी ने काफी व्यस्तता के वावजूद यह कृति इस परिवार हेतु भेजी है , बहुत बहुत धन्यवाद ...एडमिन)

 

षडऋतु - दर्शन…

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Added by Admin on February 3, 2011 at 9:51am — 3 Comments

लघु कथा :- बीस बाईस वर्ष का बूढ़ा...

नगर बस में भीड़ के रेले में धकियाया गया एक बुढ्ढा बेचारा.

छोटे कद के कारण न तो छत पर लटके हैंडल पकड़ पा रहा था और न ही सीट पर सहारा पाने कि कोई उम्मीद ही दिख रही थी. नगर बस में कई जगह ' अपने से ज्यादा ज़रुरत मंदों को सीट दे ' के सूचना पट्टियाँ लगीं थी और उस बूढ़े कि खिल्ली उड़ा रहीं थीं .

अचानक एक सीट खाली हुई...आशा भरी द्रष्टि से बूढा उस सीट की ओर लपका. तभी एक बीस बाईस वर्ष का एक लड़का अपनी उम्र को दर्शाती फुर्ती के साथ सीट पर काबिज़ हो गया, और बुढ्ढा एक बार फिर निराश.

लोगों ने… Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on February 2, 2011 at 6:00pm — 5 Comments

अनुभूति

१.
आज़ादी मिली
आतंकवादियों को
जनता डरी.
२.
कुर्सी   पे जमे                              
ढीले से कर्णधार 
ऊबी जनता  
३.
मंहगाई पे
आंसू मत बहाओ
कुछ तो…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on February 2, 2011 at 5:30pm — 1 Comment

क्षणिकाएं

१.
जूता गांठता
एक मोची आज भी सड़क के किनारे
ज़मीन पर बैठा है
यह बात अन्यथा है
कि  उसके वर्ग के नाम पर…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on February 2, 2011 at 5:00pm — 1 Comment

उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है

 

उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है 

(मधु गीति सं. १४७९, दि. २५ अक्टूवर, २०१०) 



उरों के इस अंजुमन में द्वन्द ना है, स्वरों के इस समागम में व्यंजना है; 

छंद का आनन्द उद्गम स्रोत सा है, लय विलय का सुर तरे भव भंगिमा है. 

 …

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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:56pm — 1 Comment

चिलचिलाती धूप में तुम याद आये

 

चिलचिलाती धूप में तुम याद आये 

मधु गीति सं. १५९६ , रचना दि. ३१ दिसम्वर, २०१०)

 

चिलचिलाती धूप में तुम याद आये, झिलमिलाती रोशनी में नजर आये; 

किलकिलाती दुपहरी में दिल लुभाए, तिलमिलाती…

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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:50pm — 1 Comment

मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ

मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ 

(मधु गीति सं. १५९७, दि. ३१ दिसम्वर, २०१०) 

 

मग बुहारूँ जग निहारूँ प्रीति ढालूँ, त्राण तरजूँ मनहि बरजूँ प्राण परसूँ; 

श्याम हैं मधु राग भरकर गीत गाये, प्रीति की भाषा लिये…

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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:46pm — 1 Comment

क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर

क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर 

(मधु गीति सं. १६०४, रचना दि. २ जनवरी, २०११)

 

क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर, क्यों विलखते हो विलय का राग सुनकर; 

दया क्यों ना कर रहे  जग जीव पर तुम, हृदय क्यों ना ला रहे तुम…

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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:44pm — 3 Comments

छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर

 

छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर

(मधु गीति सं. १६२२, दि. ७ जनवरी, २०११)

 

छान्दसिक आनन्द की गति में हुलस कर, मिलन की अभिव्यंजना से विदेही उर;…

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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 1, 2011 at 8:42pm — No Comments

ग़ज़ल : - बनारस के घाट पर

ग़ज़ल : - बनारस के घाट पर

 

कुछ था ज़रूर खास बनारस के घाट पर ,

धुंधला दिखा लिबास बनारस के घाट पर |

 

घर था हज़ार कोस मगर फ़िक्र साथ थी ,

मन हो गया उदास बनारस के घाट पर |

 

संज्ञा क्रिया की संधि में विचलित हुआ ये मन

गढ़ने लगा समास बनारस के…

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Added by Abhinav Arun on February 1, 2011 at 9:00am — 13 Comments

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