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क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर

क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर 

(मधु गीति सं. १६०४, रचना दि. २ जनवरी, २०११)

 

क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर, क्यों विलखते हो विलय का राग सुनकर; 

दया क्यों ना कर रहे  जग जीव पर तुम, हृदय क्यों ना ला रहे तुम प्रकृति पथ पर. 

 

यदि करो आदर औ श्रद्धा सभी की तुम, ना विलय औ प्रलय होगी धरनि तल पर; 

जीव बनकर बृह्म ही तो कष्ट सहता, होता जब वह अति दुखी तब प्रलय करता. 

वही रमता वही रचता वही सहता, वही लेता परीक्षा औ विलय करता;  

वही संग्रामी कभी सैनानी होता, कभी दावानल वही है झोंक देता. 

 

समझ ना पाते कि वह सब कैसे करता, क्षुद्र प्राणी बन वही है ताक जाता; 

सूक्ष्म संचारण से वह सब खबर पाता, सोचते जो मन वो पहले जान जाता.  

जानता है वो भी जो ना जानते हम, रहा है पहचानता जो उमगता उर; 

करता चलता उचित श्रेयस्कर निरन्तर, 'मधु' उर प्रभु सदा रहते लय विलय कर. 

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Comment by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on February 7, 2011 at 1:17pm
कविता पसंद करने के लिए आप सबको बहुत २  शुक्रिया व साधुवाद
Comment by Abhinav Arun on February 6, 2011 at 9:41am
वाह बघेल जी यही वो रस है जो शाश्वत है और चिर स्थाई प्रभाव वाला भी | बधाई सुन्दर काव्य के लिये |

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on February 2, 2011 at 7:30pm
भक्ति रस से सराबोर यह रचना बेहद खुबसूरत है | बधाई इस सुंदर प्रस्तुति पर |

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