क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर
(मधु गीति सं. १६०४, रचना दि. २ जनवरी, २०११)
क्यों किलसते हो प्रलय के गीत सुनकर, क्यों विलखते हो विलय का राग सुनकर;
दया क्यों ना कर रहे जग जीव पर तुम, हृदय क्यों ना ला रहे तुम प्रकृति पथ पर.
यदि करो आदर औ श्रद्धा सभी की तुम, ना विलय औ प्रलय होगी धरनि तल पर;
जीव बनकर बृह्म ही तो कष्ट सहता, होता जब वह अति दुखी तब प्रलय करता.
वही रमता वही रचता वही सहता, वही लेता परीक्षा औ विलय करता;
वही संग्रामी कभी सैनानी होता, कभी दावानल वही है झोंक देता.
समझ ना पाते कि वह सब कैसे करता, क्षुद्र प्राणी बन वही है ताक जाता;
सूक्ष्म संचारण से वह सब खबर पाता, सोचते जो मन वो पहले जान जाता.
जानता है वो भी जो ना जानते हम, रहा है पहचानता जो उमगता उर;
करता चलता उचित श्रेयस्कर निरन्तर, 'मधु' उर प्रभु सदा रहते लय विलय कर.
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