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                               ग़ज़ल

सौ  अफसानों  जैसा  मेरा,  भी बस इतना  अफ़साना  है |
जिस दुनिया ने दर्द दिया है, दिल  उसका  ही  दीवाना है ||

शायद वो  तस्वीर   हो ऐसी,  जो  इस  दिल  को  पहचाने,
इसी आश में जिआ हूँ अब तक, और यूँ ही जीते जाना है ||

कैसे बदलूँ आज तमद्दन ?   गर  वो  पागल  समझ  रहा,
कायम  से  कायम  तक  मेरा,  इससे  ही  आबो-दाना है ||

मेरे  अपने  मुझको  अपना,  समझें,  समझें,  न  समझें,
मुझे उन्हीं के दर पे जीना,  और  वहीं  पर  मर  जाना  है ||

ढूँढ रहा हूँ वफ़ा की शम्मा,  शहर-शहर  और  गली-गली,
मेरी  भी   तकदीर  वही  है -  जैसे   गमगीं   परवाना   है ||

                                                                 रचनाकार - अभय दीपराज

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on February 5, 2011 at 8:28am

बहुत ख़ूबसूरत अंदाजे बयाँ है और इस शेर के तो क्या कहने

मेरे  अपने  मुझको  अपना,  समझें,  समझें,  न  समझें,
मुझे उन्हीं के दर पे जीना,  और  वहीं  पर  मर  जाना  है ||

 

बस एक इल्तिजा है की अगर पोसिबल हो तो फॉण्ट साइज़ नोर्मल ही रखें|

Comment by आशीष यादव on February 5, 2011 at 8:09am
अभय सर, आप की एक खूब सूरत ग़ज़ल हमें पढने को मिली| बहुत बहुत बधाई| अभी मैंने देखा आपने बहुत सारी ग़ज़लें पोस्ट की है, ये मेरा दुर्भाग्य  था की अब तक मै नहीं देख सका| लेकिन आज मै सारी पढूंगा|

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