2122-1122-1122-22
टूटकर ख्वाब ज़माने में बिखर जाते हैं ।
आज़माने में बहुत लोग मुकर जाते है ।।
वो जलाता ही रहा हमको बड़ी शिद्दत से ।
हम तो सोने की तरह और निखर जाते हैं ।।
हुस्न वालों के गुनाहों पे न पर्दा डालो ।
क्यूँ भले लोग यहां इश्क से डर जाते हैं ।।
मुन्तजिर दिल है यहां एक शिकायत लेकर ।
आप चुप चाप गली से जो गुज़र जाते हैं ।।
कुछ उड़ानों की तमन्ना को लिए था जिन्दा ।
क्या हुआ आपको जो पर को कतर जाते हैं ।।
मत बयां कीजिये अपने भी सितम के किस्से ।
दर्द बनकर वो यहां दिल में ठहर जाते हैं ।।
इस मुहब्बत पे है इल्जाम का साया मुमकिन ।
वो सरे आम निगाहों से उतर जाते हैं ।।
उसके आने की खबर जब भी हुई महफ़िल को ।
आहटे हुस्न से कुछ लोग सवंर जाते हैं ।।
क्यूँ छुपाते हैं मियाँ आप मुहब्बत अपनी ।
सबको मालूम है अब आप किधर जाते हैं ।।
---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ. नवीन जी
ग़ज़ल विषय पर आप की ग़ज़लें मंच पर लगातार आती हैं और उत्तरोत्तर कहन भी बेहतर होता जा रहा है.
आप को अब अन्य बारीकियाँ जैसे भर्ती के शब्द (जैसे
क्या हुआ आपको जो पर को कतर जाते हैं ..पर कतर जाते हैं पर्याप्त होता लेकिन बहर के लिए को डालना पडा) आदि पर और अधिक तन्कीदी निगाह से ध्यान देना चाहिए .
साथ ही एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि जो शेर हो प्रासंगिक हो, संख्या से उतना प्रभाव नहीं पड़ता जितना कंटेंट से पड़ता है.
आप चूँकि अच्छा लिख रहे हैं इसलिए यह सारी बातें बताना कर्तव्य समझा ..
कृपया अन्यथा न लें
सादर
वाह वाह आदरणीय त्रिपाठी खूब ग़ज़ल कही...
सूंदर प्रस्तुति के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय नवीन जी ।
सादर ।
आ. भाई नवीन जी, अच्छी गजल हुई है । हार्दिक बधाई ।
कुछ उड़ानों की तमन्ना को लिये था जिन्दा
बहुत खूबसूरत शेर है बहु बहुत बधाई
आ0 बसंत कुमार शर्मा साहब सादर आभार ।
कृपया पटल पर आई रचनाओं पर अपनी टिप्पणी दिया करें ।
जनाब नवीन जी आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,बधाई स्वीकार करें ।
दूसरे शैर के ऊला में 'बड़ी शिद्दत से' को "बहुत शिद्दत से" कर लें ।
'क्यों भले लोग यहाँ इश्क़ से डर जाते हैं'
इस मिसरे को यूँ कर लें :-
'क्योंकि कुछ लोग यहाँ इश्क़ से डर जाते हैं'
छटे शैर के ऊला में 'अपने भी' को "अपने ही" कर लें ।
वाह क्या कहने , बहुत सुंदर मनभावन गजल
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