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बेबस पे और जुल्म न ढाने की बात कर।
गर हो सके तो होश में आने की बात कर ।।
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क्या ढूढ़ता है अब तलक उजड़े दयार में ।
बेघर हुए हैं लोग बसाने की बात कर ।।
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खुदगर्ज हो गया है यहां आदमी बहुत ।
दिल से कभी तो हाथ मिलाने की बात कर ।।
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मुश्किल से दिल मिले हैं बड़ी मिन्नतों के बाद ।
जब हो गया है प्यार निभाने की बात कर ।।
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यूँ ही बहक गये थे कदम बे इरादतन ।
इल्जाम मेरे सर से हटाने की बात कर ।।
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मैंने भी आज देख ली दरिया दिली तेरी ।
अब तो न और पीने पिलाने की बात कर ।।
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मुद्दत से हँस रहा मेरी मजबूरियों पे तू ।
हैं गम भी बेसुमार बटाने की बात कर ।।
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गिरता रहे क्यों बारहा नजरों से कोई शख्स ।
शिकवे शिकायतों को मिटाने की बात कर ।।
क्यूँ रट लगाये बैठा है बस एक बात पर ।
कुछ तो कभी कभार ज़माने की बात कर ।।
---नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित
Comment
आ0 नीलेश जी सादर आभार
आ0 कबीर सर सादर नमन
अत्यंत व्यस्तता की वजह से हाजिर नहीं हो पाया था इसके लिए क्षमा प्रार्थी हूँ ।
शीघ्र ही सक्रियता को कायम करूँगा ।
सादर नमन ।
जनाब नवीन मणि त्रिपाठी जी आदाब,ग्गज़ल का प्रयास अच्छा है, बधाई स्वीकार करें ।
मंच पर आपकी सक्रियता ग़ज़ल पोस्ट करने की हद तक है, तरही मुशायरे में भी आप ग़ज़ल दाग़ कर निकल गए,पलट कर भी नहीं देखा,ये तरीक़ा ठीक नहीं है ।
पांचवें शैर के ऊला में 'बे इरादतन' शब्द मुनासिब नहीं,इसे बदलने का प्रयास करें ।
सातवें शैर में 'बेसुमार' को "बेशुमार" कर लें,और 'बटाने' क़ाफ़िया भी ठीक नहीं ।
आख़री शैर पर निलेश जी बता चुके हैं ।
वाह आदरणीय त्रिपाठी जी अच्छी ग़ज़ल कही..सादर
आ. नवीन जी,
अच्छी ग़ज़ल हुई है...
अंतिम शेर में पर और कर आने से तकाबुले रदीफ़ की सूरत बन रही है,,
देखिएगा
सादर
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