2122 2122 2122 212
इक मुहब्बत का महल कब चुपके चुपके ढह गया
बिन किये आवाज सब आँखों का काजल कह गया
अनमनी सी वो अकेली रह गई किश्ती खड़ी
पाँव के नीचे से ही सारा समन्दर बह गया
वो खुदा भी उस फ़लक से देख कर हैरान है
आइना ये पत्थरों की मार कैसे सह गया
ठोकरों ने ही तराशे वो पशेमाँ पंख फिर
ताकते परवाज़ से पीछे गुज़शता रह गया
फूल से भी जो हथेली सुर्ख होती थीं कभी
उस हथेली में पिघल कर आज सूरज बह गया
--------------मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आद० महेंद्र कुमार जी ,आपको ग़ज़ल पसंद आई मेरा लिखना सार्थक हो गया दिल से आभारी हूँ |
अच्छी ग़ज़ल हुई है आदरणीया, दाद कुबूल कीजिए
बहुत ही बढ़िया ग़ज़ल ....हार्दिक बधाई ! |
फूल से भी जो हथेली सुर्ख होती थीं कभी
उस हथेली में पिघल कर आज सूरज बह गया
आदरणीया राजेश कुमारी जी क्या कहूँ आपने अपनी ग़ज़ल में खूबसूरत अहसासों का वो समां बाँधा है कि दिल बाग़ बाग़ हो गया ... इस दिलकश ग़ज़ल के लिए दिल से मुबारकबाद कबूल फरमाएं।
आदरणीय राजेश मैम, सभी शेर लाजवाब हैं। शेर दर शेर दाद कुबूल कीजिए। मतले और तीसरे शेर के लिए आपको मेरी तरफ से विशेष बधाई।
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