221 2121 1221 212
शब्दों की ओट में छिपे मक्कार हैं बहुत
बाक़ी, अना को बेच के लाचार हैं बहुत
किसने कहा कि बज़्म में रहना है आपको
जायें ! रहें जहाँ पे तलबगार हैं बहुत
अपनी भी महफिलों की कमी मानता हूँ मैं
है फर्ज़ में कमी, दिये अधिकार हैं बहुत
समझें नहीं, कि अस्लहे सारे ख़तम हुये
अस्लाह ख़ाने में मेरे हथियार हैं बहुत
नफरत जता के हमसे, जो दुश्मन से जा मिले
वे भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on November 5, 2015 at 8:00am — 46 Comments
221 2122 221 2122
रौशन हो दिल हमारा, इक बार मुस्कुरा दो
खिल जाय बेतहाशा, इक बार मुस्कुरा दो
पलकों की कोर पर जो बादल बसे हुए हैं
घुल जाएँ फाहा-फाहा, इक बार मुस्कुरा दो
आपत्तियों के…
ContinueAdded by Saurabh Pandey on November 4, 2015 at 11:30pm — 24 Comments
सहसा
छा जाता है आवेश
कुछ लगता है सनसनाने
मस्तिष्क में होने लगता है
घमासान
हाथ हठात पहुँचते है
लेखनी पर
इतना भी नहीं होता
कि तलाश लें
कोई कायदे का कागज
नोच लेता है हाथ
किसी अखबार का टुकड़ा
या किसी रद्दी का खाली भाग
और दौड़ने लगते है उस पर
अक्षर निर्बाध
अवचेतन सा मन
मानो कोई उड़ेल देता है
उसमें भावों की सम्पदा
जो स्वस्थ चित्त में
चाह कर भी नहीं उभरता…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 4, 2015 at 8:44pm — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on November 4, 2015 at 8:00pm — 14 Comments
कैसे अपने मधु पलों को शूल शैय्या पे छोड़ आऊँ
स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊं
विगत पलों के अवगुंठन में
इक दीप अधूरा जलता रहा
अधरों पर लज्जा शेष रही
नैनों में स्वप्न मचलता रहा
एकांत पलों में तृप्ति भाव को किस आँगन मैं छोड़ आऊँ
प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ
अधरों से मिलना अधरों का
तिमिर का मौन शृंगार हुआ
तृषित देह का देह मिलन से
अंगार पलों का संचार हुआ
किस पल को मैं बना के जुगनू तिमिर…
ContinueAdded by Sushil Sarna on November 4, 2015 at 7:30pm — 27 Comments
सड़क के किनारे छाँव देता
एक दायरे के भीतर कैद
खुद घुटता हुआ मगर
हमें साँसें देता हुआ वृक्ष
कंक्रीट की घेराबंदी से
छोटी सी सीमा रेखा
में बंधा हुआ वह पेड़
और पिजड़े मैं कैद
मासूम और बेबस पक्षी
दोनों में कितना साम्य है
दोनों ही जीवित हैं
लेकिन स्वतन्त्रता को खोकर
दोनों की ही हदें
मानव ने बाँध दी हैं
और अब वे बस हमारी
आवश्यकता का साधन हैं
लेकिन वृक्ष पक्षी से
कहीं अधिक बेबस…
ContinueAdded by Tanuja Upreti on November 4, 2015 at 4:30pm — 8 Comments
शाम को देश के हर शहर की तरह मेरे शहर के बाज़ारों में भी बहुत भीड़ होती है I बाज़ार की सड़क के दोनों तरफ खड़ी गाड्यिां के बीच रह गई सड़क पर हर कोई तेज़ी से आगे निकलने की कोशिश करता दिखाई देता है Iचाहे वो पैदल,टू-व्हीलर रिक्शा,साईकल व कार पे सवार हो, आज मैं भी तेज़ी से हर तरह की भीड़ को चीरता हुआ, बस स्टॉप की और बढ़ रहा था,मगर मेरा शरीर साथ नहीं दे रहा था I इस लिए लोकल बस का इंतजार करना मेरे लिए मुश्किल हो रहा था I थ्री- व्हीलर स्टॉप आते ही मैं रुक गया I…
ContinueAdded by मोहन बेगोवाल on November 4, 2015 at 2:30pm — 5 Comments
221 2121 1221 212 |
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होंठों पे जिनके दीप जलाने की बात है |
सीने में उनके आग लगाने की बात है |
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झाड़ी के फैलते हुए हाथों को काट… |
Added by मिथिलेश वामनकर on November 4, 2015 at 12:34pm — 27 Comments
सारा आलम,
धुँआ - धुँआ हो जाये
इसके पहले
बचा लेना चाहता हूँ
थोड़ी से 'हवा'
पारदर्शी और स्वच्छ
जो बहुत ज़रूरी है
स्वांस लेने के लिए
ज़िंदा रहने के लिए…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 4, 2015 at 9:30am — 4 Comments
दोनों की अपनी अपनी व्यस्त दिनचर्या। बच्चों को सुबह स्कूल बस स्टॉप पर छोड़ने के बाद थोड़ी सी चहलक़दमी से थोड़ा सा साथ, थोड़ा सा वार्तालाप, शायद रिश्तों में छायी बोरियत दूर कर दे।
"तुम्हें जानकर शायद ख़ुशी हो कि फेसबुक और साहित्यिक वेबसाइट में कुल मिलाकर सत्तर लघु कथाएँ, दो ग़ज़लें, दो गीत, कुछ छंद..... मेरा मतलब तकरीबन हर विधा में विधि-विधान के साथ मेरी रचनाएँ प्रकाशित हो चुकी हैं।" - लेखक ज़हीर 'अनजान' ने बीच रास्ते में अपनी बीवी साहिबा से कहा। लेकिन सब अनसुना करते उन्होंने एक…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 4, 2015 at 8:30am — 11 Comments
सहसा अंतरव्यथा से जूझती हुई सिसकियों ने दम तोड़ ,घुटने टेक दिये । फैसला कायम हो चुका था । काले कोट वाले वजीर ने गुनाहों के कीचड़ में सने हुए बादशाह को , सूर्य सा दैदीप्यमान बना दिया था। गुनाह बेदाग़ बरी हो अट्टाहास करता हुआ बाहर की तरफ एक और बाजी खेलने को विदा हुआ । इधर काले कोट वाला वजीर अपने जेब की गहराई नाप रहा था।
और उधर अंधी के आँखों पर चढी काली पट्टी ने अंधेरों का वजूद अंततः कायम रखा. तराजू फिर जरा सा डोल कर रह गया ।
मौलिक व…
Added by kanta roy on November 3, 2015 at 11:00pm — 10 Comments
कौन सुनता है
Added by Abid ali mansoori on November 3, 2015 at 8:30pm — 18 Comments
Added by jyotsna Kapil on November 3, 2015 at 7:25pm — 8 Comments
बेकार हजारों कोशिश भी,
इन आँखों को समझाने की ,
रखती हैं समुंदर को वश में,
और धार बहाये रहती हैं।
जबकि है मालूम इन्हें,
वो दूर हैं नजरों से फिर भी,
नजरें दीवारों पर क्यों,
टकटकी लगाये रहती हैं।
है असर मुहब्बत का…
Added by Ajay Kumar Sharma on November 3, 2015 at 5:26pm — 2 Comments
Added by Janki wahie on November 3, 2015 at 5:22pm — 14 Comments
मॉल से दीवाली की ढेर सारी खरीदारी करके जैसे ही कार से गेट के बाहर निकले,एक गुब्बारे बेचने वाला कम उम्र का लड़का दौड़कर आया और गुब्बारे खरीदने की इल्तिज़ा करने लगा।
"अरे नहीं चाहिये भैया !"
"ले लो ना बीबी जी! "
"हां मम्मा ! ले लो ना मुझे चाहिये "
"अरे नहीं बेटा! क्या करोगे?अभी इतने सारे खिलौनें खरीदे है ना।"
"जाओ भैया!हमें जरूरत नहीं ।"उसने झिड़कने के अंदाज में कहा ।
लड़का थोड़ा हताश हुआ और बोला -
"कुछ चीजें जरूरी तो नहीं जब जरूरत हो तभी खरीदी जाए बीबी…
Added by Rahila on November 3, 2015 at 12:30pm — 11 Comments
Added by VIRENDER VEER MEHTA on November 3, 2015 at 11:42am — 6 Comments
“आज उदास क्यूँ हो बेटा क्या सोच रहे हो ”? जलेबी पकड़ाते हुए पापा ने उसकी आँखों में देखते हुए पूछा| “पापा मैं एक बहुत बड़ी दुविधा में हूँ आपको तो पता है मैं चित्रकला और काव्य लेखन दोनों ही विधाओं को पसंद करता हूँ तथा दिन रात मेहनत करता हूँ आगे अपना कैरियर भी इन्हीं में से किसी एक को लेकर बनाना चाहता हूँ” वैभव ने कहा | “तो फिर इसमें कैसी दुविधा है बेटा”?
“पापा मैं तो दोनों में ही अपने को कुशल समझता था पर चुनाव करने में असमंजस में था तो मैंने सोचा क्यूँ न मैं इन विधाओं…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 3, 2015 at 11:38am — 14 Comments
बेटी सनाया के लिए वर अनुसन्धान में हलकान होती रीमा के लिए वो बाँका सुदर्शन किरायेदार आशा की किरण लेकर आया था। इतनी अच्छी तनख्वाह और सभी ऐबों से दूर रहने वाले अश्विन को लेकर उनका मन कुलाँचें भरने लगा।
अब तो वक़्त बेवक़्त पकवान बनकर उसके पास पहुंचने लगे।हर वक्त बेटी की होशियारी का बखान और ममता लुटाने में कोई कसर न छोड़ी थी रीमा ने।कुछ दिन के लिए अपने घर गया अश्विन आज लौटने वाला था।उसे घेरने की पूरी तैयारी कर ली थी उन्होंने।इस बार बेटी के जन्मदिन पर उसकी सगाई का ऐलान करके दोहरे जश्न की…
Added by jyotsna Kapil on November 3, 2015 at 11:30am — 6 Comments
2122 2122 2122 212
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बारिशों के हादसे जब दामनों तक आ गए
दुख मेरी तन्हाइयों की बस्तियों तक आ गए /1
याद मुझको तो नहीं हैं ठोकरें मैंने भी दी
क्यों ये पत्थर रास्तों के मंजिलों तक आ गए /2
सोचकर निकले थे बाहर कुछ उजाला ढूँढ लें
घर के तम लेकिन हमारे रास्तों तक आ गए /3
नाव जर्जर और पतवारें रहीं सब अनमनी
क्या बताएं किस तरह हम साहिलों तक आ गए /4
हो रही है माँग हर शू जाति क्या औ…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on November 3, 2015 at 10:47am — 14 Comments
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