For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

September 2014 Blog Posts (150)

ग़ज़ल...मुस्कुराना आ गया.

हौंठ सीं गर्दन हिलाना आ गया.

दोस्त ! जीने का बहाना आ गया.



जिन्दगी में गम मुझे इतने मिले,

अश्क पीकर.. मुस्कुराना आ गया.



ख्वाब सब आधे अधूरे रह गए,

दर्द सीने में ...बसाना आ गया.



दर्द के किस्से सुनाऊँ किस तरह,

गीत गज़लें गुनगुनाना आ गया.



साथ रहने का असर भी देखिये,

आप से बातें छिपाना आ गया.



हादसों ने पाल रख्खा है मुझे.

मौत से बचना बचाना आ…

Continue

Added by harivallabh sharma on September 8, 2014 at 9:10pm — 18 Comments

ग़ज़ल - तेरी यादों में ़ज़ालिम गुजर जाएगी - पूनम शुक्ला

2122. 1221. 2212

तेरी यादों में ज़ालिम गुजर जाएगी
जिन्दगी अब न जाने किधर जाएगी

इक नजर देखिए बस जरा सा हमें
आपको देखकर ये सँवर जाएगी

रोशनी अब ये पा लेगी लगता तो है
चीर देगी अँधेरा जिधर जाएगी

आँसुओं की लड़ी बह रही थी कहीं
बह के जानूँ न वो किस नहर जाएगी

कुछ कहेंगे नहीं फिर भी हम तो सनम
बात अपनी दिलों तक मगर जाएगी

पूनम शुक्ला ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Poonam Shukla on September 8, 2014 at 8:24pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
एक तरही ग़ज़ल - “ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “ ( गिरिराज भंडारी )

“ शाम ढले परबत को हमने सौंपे बंदनवार नए “

   22   22   22   22   22   22   22  2

लगे कमाने जब भी बच्चे बना लिए घर बार नए

मगर बुढ़ापे को क्या देंगे उस घर में अधिकार नए ?

 

आयातित हो गयी सभ्यता पच्छिम, उत्तर, दच्छिन की

बे समझे बूझे ले आये घर घर में त्यौहार नए

 

हाय बाय के अब प्रेमी सब, नमस्कार पिछडापन है

परम्पराएं आज पुरानी खोज रहीं स्वीकार नए

 

पत्ते - डाली ही  काटे  हैं ,  जड़ें वहीं की  वहीं रहीं

इसी लिए तो…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on September 8, 2014 at 6:30pm — 25 Comments

मैंने भी तेज नजरो को...

बन के अजनबी वो अक्सर मेरे दर से गुजरते हैं

फ़कत दीदार को खुद को रस्तों से जोड़ रक्खा हैं

दिल की दरियादिली दर्पण-सी सच्ची देखकर

घर के आईनों में तेरी तस्वीर को जोड़ रक्खा हैं

हकीकत की सतह से उस चाँद को देख रक्खा है..

खुदा के उस हसीं अजूबे से नाता जोड़ रक्खा है

कहने को तो उन्होने बहुत कुछ छोड़ रक्खा है...

चाहत की चिट्ठी को लिफाफों में मोड़ रक्खा है..

हवाओं के सहारे खुशबू कुछ इस तरफ़ आयी....

मैंने भी तेज नजरो…

Continue

Added by anand murthy on September 8, 2014 at 6:00pm — 2 Comments

मसखरा उस को न कहना - (गजल ) - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

2122    2122    2122    2122

****

हौसला  देते  न  जो  ये  पाँव  के  छाले  सफर में

हर सफर घबरा के यारो,  छोड़ आते हम अधर में

****

एक भटकन है जो सबको, न्योत लाती है यहाँ तक

कौन  आता  है स्वयं ही, यार दुख के इस नगर में

****

एक  वो  है पालती  जो,  काजलों के साथ आँसू

कौन रख पाता भला अब, सौतने  दो  एक घर में

****

आशिकी की इंतहाँ ये, खुदकुशी का शौक मत कह

हॅसते-हॅसते डाल दी जो किश्तियाँ उसने भवर में

****

खो गया चंचलपना सब,…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 8, 2014 at 12:00pm — 8 Comments

हमारे दर्द को दुनिया

हमारे दर्द को दुनियाँ तमाशो में न गा जाये

बजा ताली सभी झूमें हमारा दर्द भा जाये

न आये है किनारे पर अभी ठहरा समुन्‍दर है।

बड़ी खामोश लहरे हैं कहीं तूफाँ न आ जाये।।

सहेगें जुल्‍म अब कितना बड़ा जालिम हुआ हाकिम।

पड़ी थी लाश सड़को पे कफन वो बेच खा जाये।।

सभालो अब वतन अपना तबाही का दिखे मंजर

घरों में आज खुशियाँ है कहीं मातम न छा जाये

जला कर आस का दीपक न जाओ छोड़ कर हमको '

कुचलने का हमारा सिर न दुश्‍मन मौका पा जाये

मौलिक…

Continue

Added by Akhand Gahmari on September 8, 2014 at 11:00am — 11 Comments

ग़ज़ल - सुलभ अग्निहोत्री

सर दाँव पे लगा के अब खेल खेल देखें ।
अपना नसीब देखें, उनकी गुलेल देखें ।

शायद उठे भड़क ही कोई दबी चिंगारी
चल राख हौसलों की परतें उधेल देखें ।

चेहरे सफ़ेद सबको कमज़ोर कर रहे हैं
इन बूढ़े नायकों को पीछे धकेल देखें ।

उद्दंड अश्व खाईं की ओर जा रहे हैं
हाथों में अपने लेकर इनकी नकेल देखें ।।

क्या सूखते दरख्तों का हाल पूछते हैं
हर ओर सर उठाये है अमरबेल देखें ।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Sulabh Agnihotri on September 7, 2014 at 6:00pm — 11 Comments

इश्क कोई अनबुझी सी है पहेली

२१२२   २१२२   २१२२ 

ख्वाब जब दिल में हसीं पलने लगे है

अजनबी दो साथ में चलने लगे हैं 

इश्क कोई अनबुझी सी है पहेली 

जब हुआ सावन में तन जलने लगे हैं 

वक़्त के अंदाज बदले यूं समझ लो 

हुश्न आते पल्लू भी ढलने लगे हैं 

आप के शानो पे सर रखते कसम से 

लम्हे मेरी मौत के टलने लगे हैं 

जिस घड़ी ओंठो को गुल के चूम बैठा 

उस घड़ी से भौरों को खलने लगे हैं 

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Dr Ashutosh Mishra on September 7, 2014 at 4:30pm — 11 Comments

हदें बेहतर है पर ..

बदलना

अच्छा है ....पर एक हद तक

 

और वो हद

खुद तय करनी होती है

ऐसी हद जिसके भीतर

किसी का दिल न टूटे

कोई रोये न....बीते लम्हें याद कर

वादे याद कर मलाल न करे

 

वो हद जो

दूर करे पर नफरत न पलने दे

याद रहे पर इंतज़ार न रहने दे

 

रिश्तों में बदलना

कभी भी सुख नहीं देता

चुभन...दर्द...अफ़सोस और

बेचैनी लिए

पल-पल ज़िन्दगी गिनता है 

 

इन सब से परे

कितना आसान…

Continue

Added by Priyanka singh on September 7, 2014 at 3:07pm — 5 Comments

आसमानी फ़ासले .... (विजय निकोर)

आसमानी फ़ासले

बच्चों-सा स्वप्निल स्वाभाविक संवाद

हमारी बातों में मिठास की आभाएँ

ताज़े फूलों की खुशबू-सी निखरती

सुखद अनुभवों की छवियाँ ...

हो चुकीं इतिहास

समय-असमय अब अप्रभाषित

शून्य-सा मुझको लघु-अल्प बनाती

अस्तित्व को अनस्तित्व करती

निज अहं को आदतन संवारती

आलोचनाशील असंवेदनशीलता तुम्हारी

अब बातें हमारी टूटी कटी-कटी ...

बीते दिनों की स्मर्तियाँ पसार

मानवीय…

Continue

Added by vijay nikore on September 7, 2014 at 2:00pm — 21 Comments

खाली घर बेसामान रहा हूँ।।

खाली घर बेसामान रहा हूँ।

अपने ही घर दरबान रहा हूँ।।



बदनामी का आलम है ऐसा।

यूँ खुद पे ही अहसान रहा हूँ।।



कभी कभी हँस लेता हूँ यारों।

आखिर मै भी इंसान रहा हूँ।।



अक्सर दिल से खेला करती है।

मै तो केवल सामान रहा हूँ।।



लगता है तुम तो भूल गये हो।

लेकिन मै तो पहचान रहा हूँ।।



वो जो अब मुझको छोड़ गये है।

उनका ही मै अरमान रहा हूँ।।



वो जाने किस शै में दिख जाये।।

अब सारी दुनियाँ छान रहा… Continue

Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 2:00pm — 12 Comments

मुझको अपना कहता है।।

मुझको अपना कहता है।
फिर क्यूँ तनहा रहता है।।

अन्दर का जो दरिया है।
आँखों से अब बहता है।।

मंज़िल तक जाना है गर।
रस्ते को क्यूँ तकता है।।

झगड़े की कुछ वजह न थी।
फिर क्यूँ झगडा करता है।।

खुद में झाँकूँ देखूँ तो।
अन्दर क्या कुछ दिखता है।।

पहले जी भर रोया था।
अब थोड़ा सा हँसता है।।
*****************
राम शिरोमणि पाठक"दीपक"
मौलिक/अप्रकाशित

Added by ram shiromani pathak on September 7, 2014 at 1:30pm — 12 Comments

उन्हें मौका मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’

1222   1222   1222   1222

******************************

रहे अरमाँ अधूरे जो, लगे मन को सताने फिर

चला  है  चाँद दरिया में हटा घूँघट नहाने फिर   /1/

***

नसीहत सब को दें चाहे बताकर दिन पुराने फिर

नजारा  छुप  के  पर्दे  में  मगर लेंगे सयाने फिर  /2/

***

उन्हें  मौका  मिला है तो, करेंगे हसरतें पूरी

सितारे नीर भरने के गढे़ंगे कुछ बहाने फिर  /3/

***

छुपा सकता नहीं कुछ भी खुदा से जब करम अपने

रखूँ  मैं  किस  से  पर्दा  तब बता तू ही…

Continue

Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 7, 2014 at 10:30am — 8 Comments

बीते पल

न होना दूर नज़रों से कसम हमको खिलाती थी

न दे जब साथ लब उसके इशारो से बुलाती थी



किताबों में छुपाती थी दिया हमने जो दिल उसको

बचा नज़रे सभी की वो उसे दिल से लगाती थी



चुरा नज़रे सभी की हम मिले जब बाग में इक दिन

लगा कर वो गले हमको बढ़ी धड़कन सुनाती थी



कभी आँखों मे डाले अाँख कर देता शरारत तो

चुरा कर वो नज़र हमसे जरा सा मुस्‍कुराती थी



न भूलेगे कभी हम तो बिताये साथ पल उसके

छुपा कर चाँद सा मुखड़ा हमें हरदम सताती…

Continue

Added by Akhand Gahmari on September 6, 2014 at 8:30pm — 20 Comments

छोट जात -- लघु कथा

बरामदे की सीढ़ियाँ देख , कजरी नीचे खड़ी हो गई , संकोच वश उसके कदम ऊपर बढ़ ही नहीं रहे थे ॥ लाली ने उसको पुकारा -'आओ  ना , वहाँ क्यों  खड़ी हो ? कजरी सकुचाते हुये बोली -' का है कि हम छोट  जात है न , और हंम लोगन का  बड़े लोगन के घर की चौखट के भीतर नहीं जाना होत है अइसा हमारी माई कहे रही !!'  लाली ने उसका हाथ पकड़ा और ऊपर खींच लिया , ' चलो भी !! '  अंदर पहुँच कर बड़ी सी हवेली देख कजरी की अंखे चौंधिया गई । ' लागे है बहुत बड़े लोग हैं ' मन मे सोचा उसने । धीरे धीरे अंदर बढ़ती गई एक कमरे का किवाड़ थोड़ा खुला…

Continue

Added by annapurna bajpai on September 6, 2014 at 6:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल -निलेश "नूर"

२१२२/ २१२२/२१२२/२१२ 

.

जाने कितने ग़म उठाता हूँ ख़ुशी के नाम पर,

ज़हर मै पीता रहा हूँ तिश्नगी के नाम पर.

.

ऐ सिकंदर!! जंग तूने जो लड़ी, कुछ भी नहीं,

जंग तो मै लड़ रहा हूँ ज़िन्दगी के नाम पर.

.

अधखिली कलियों की बू ख़ुद लूटता है बागबाँ,

शर्म सी आने लगी है आदमी के नाम पर.

.

शुक्रिया उस शख्स का जिसने बना…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on September 6, 2014 at 5:25pm — 27 Comments

गीत

पीर पंचांग में सिर खपाते रहे ।

गीत की जन्मपत्री बनाते रहे ।

हम सितारों की चैखट पे धरना दिये

स्वप्न की राजधानी सजाते रहे ।

लाख प्रतिबंध पहरे बिठाये गये

शब्द अनुभूतियों के सखा ही रहे

आँसुओं को जरूरत रही इसलिये

दर्द के कांधे के अँगरखा ही रहे

श्वास की बाँसुरी बज उठी जब कभी

हम निगाहें उठाते लजाते रहे।।

पर्वतों से मचलती चली आ रही,

गीत गोविन्द मुग्धा नदी गा रही,

पांखुरी-पांखुरी खिल गई रूप की

भोर लहरा रही, चांदनी गा…

Continue

Added by Sulabh Agnihotri on September 6, 2014 at 5:11pm — 8 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

1222 1222

बुजुर्गों की कमाई में
थी बरकत पाई पाई में

न दुख है ना परेशानी
ख़ुदा से आशनाई में

दिवारों को बना दे घर
हुनर है वो लुगाई में

जहां में पाठ निकले झूठ
थे शामिल जो पढ़ाई में

हम आके शहर पछताए
लुटे हम तो दवाई में

रहे ना जिस्मो जां साबुत
उसूलों की लड़ाई में

ज़मी ज़र जोरू की खातिर
दिवारें भाई भाई में

तू भी गुमनाम दूरी रख
मिले ना कुछ भलाई में

मौलिक व अप्रकाशित

Added by gumnaam pithoragarhi on September 6, 2014 at 4:27pm — 7 Comments

भाईचारा बढ़े

भाईचारा बढ़े संग हम सब त्‍योहार मनायें।

इक ही घर परिवार शहर के हैं सबको अपनायें।

क्‍यूँ आतंक घृणा बर्बरता गली गली फैली है।

क्‍यों बरपाती कहर फज़ा यह तो यहाँ बढ़ी पली है।

पैठी हुईं जड़ें गहरी संस्‍कृति की युगों युगों से,

आयें कभी भी जलजले यह कभी नहीं बदली है।

भूले भटके मिलें राह में, उनको राह बतायें।

भाईचारा बढ़े---------------

 

दामन ना छूटे सच का ना लालच लूटे घर को।

हिंसा मज़हब के दम जेहादी बन शहर शहर…

Continue

Added by Dr. Gopal Krishna Bhatt 'Aakul' on September 6, 2014 at 12:23pm — 2 Comments

पानी को तलवार से काटते क्यों हो ? /नीरज नीर

पानी को तलवार से काटते क्यों हो ?

हिन्दी हैं हम सब, हमे बांटते क्यों हो ?

चरखे पे मजहब की पूनी चढ़ा कर के ,

सूत नफरत की यहाँ काटते क्यों हो ?

हो सभी को आईना फिरते दिखाते ,

आईने से खुद मगर भागते क्यों हो ?

गर करोगे प्यार , बदले  वही पाओगे,

वास्ता मजहब का दे, मांगते क्यों हो ?

भर लिया है खूब तुमने तिजोरी तो ,

चैन से सो, रातों को जागते क्यों हो ?

दाम कौड़ियों के हो बेचते सच को

रोच परचम झूठ का…

Continue

Added by Neeraj Neer on September 6, 2014 at 11:48am — 16 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"हार्दिक स्वागत आपका और आपकी इस प्रेरक रचना का आदरणीय सुशील सरना जी। बहुत दिनों बाद आप गोष्ठी में…"
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी। रचना पर कोई टिप्पणी नहीं की। मार्गदर्शन प्रदान कीजिएगा न।"
Saturday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Saturday
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"सीख ...... "पापा ! फिर क्या हुआ" ।  सुशील ने रात को सोने से पहले पापा  की…"
Saturday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आभार आदरणीय तेजवीर जी।"
Saturday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आपका हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी।बेहतर शीर्षक के बारे में मैं भी सोचता हूं। हां,पुर्जा लिखते हैं।"
Saturday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह जी।"
Saturday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख़ शहज़ाद साहब जी।"
Saturday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख़ शहज़ाद साहब जी।"
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आदाब। चेताती हुई बढ़िया रचना। हार्दिक बधाई आदरणीय मनन कुमार सिंह साहिब। लगता है कि इस बार तात्कालिक…"
Saturday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
" लापरवाही ' आपने कैसी रिपोर्ट निकाली है?डॉक्टर बहुत नाराज हैं।'  ' क्या…"
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आदाब। उम्दा विषय, कथानक व कथ्य पर उम्दा रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। बस आरंभ…"
Friday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service