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July 2013 Blog Posts (255)

तुम कुछ बोल दो

आज मन उदास है ,

तुम कुछ बोल दो !

अर्न्तमन की आँखों से मुस्कुरा,

प्रेम शब्द उकेर दो !

खिलते गुलाब की पंखुड़ी से,

गुलाबी अधर खोल दो !

आज मन उदास है , तुम कुछ बोल दो !

.

तुम्हारे स्वप्निल ख्यालों में ,

मन कहीं खो जाये !

तन स्पर्श ना सही ,

मन स्पर्श हो पायें !

स्वर कोकिला रूप में ,

श्वासों की सुगन्ध धोल दो !

आज मन उदास है तुम कुछ बोल दो !



प्रेम का मधुपान करूं ,

अपना सा अहसास करूं !

मोहपाश में बाँध कर ,…

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Added by D P Mathur on July 12, 2013 at 7:30am — 10 Comments

प्रकृति ने दिया अपना जबाब ......

प्रकृति की

नैसर्गिक चित्रकारी पर

मानव ने खींच दी है

विनाशकारी लकीरे

सूखने लगे है

जलप्रताप, नदियाँ

फिर

एक सा जलजला आया 

समुद्र  की गहराईयों में

और  प्रलय का नाग

निगलने लगा

मानवनिर्मित कृतियों को,

धीरे  धीरे

चित्त्कार उठी धरती

फटने  लगे बादल

बदल गए मौसम

बिगड़ गया  संतुलन

हम

किसे दोष दे ?

प्रकृति  को ?

या मानव को ?

जिसने अपनी

महत्वकांशाओ…

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Added by shashi purwar on July 12, 2013 at 12:30am — 18 Comments

संबंध ....

संबंध
बेमतलब , बेमानी ...
भाई चारे की तरह
ढोते हैं रिश्तों की लाश को
आफ्नो को
अपने ही देते कंधे
चलते जाते हैं
नाकों मे फैलती
अपनों की सड़ांध
आसान नहीं है चलना
और फिर
जला आते है अपनों की लाश को
अपने ही , मगर
ढ़ोना तो पड़ता है
छाँव की तलाश मे
रिश्तों की आस मे
संबंध
बेमानी , बेमतलब
भाई चारे की तरह ...

"मालिक व अप्रकाशित"

Added by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 10:00pm — 11 Comments

प्रातः

मंद हवा की

लहरों पर बैठ

आकाश ने

हाथों में लिया

सितारों का अक्षत,

अरूणोदय का कुमकुम,

ओस की बूंदें,

बाग से

पुष्प, घास

और तिरोहित कर दी

रात

क्षितिज में।

              - बृजेश नीरज

(मौलिक व अप्रकाशित)

 

Added by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30pm — 30 Comments

खूब लड़ाते गप्प (दोहे)

देश में फल-फूल रहा, सट्टे का बाजार,

कुछ लोगो के बिक रहे,देखो सब घर बार |

 

सट्टा गर सरकार का, नियमो में वह वैध

जनता गर सट्टा करे, उसको कहे अवैध |

 

राजनीति व्यवसाय है,दीमक जैसी चाट

घोटाले करते रहे,  कुर्सी के है  ठाट |

 

राजनीति में जो सफल,घोटालो में लिप्त, 

इस धंधे में देख लो,नेता सब संलिप्त |

 

बहुत संपदा पास में, कल तक तो थे रिक्त  

नित्य संपदा…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 11, 2013 at 6:30pm — 22 Comments

बंजर बादल चूम रहे हैं/फिर से प्रेत शिलाएं

बंजर बादल चूम रहे हैं

फिर से प्रेत शिलाएं

लोकतंत्र की

लाश फूलती

गंध भरे

गलियारों में

यहां-वहां बस

काग मचलते

तुष्‍ट-पुष्‍ट

ज्‍योनारों में

नित्‍य बिकाउ नारे लेकर

चलती तल्‍ख हवाएं

गंगा का भी

संयम टूटा

वक्र बही

शत धारों में

क्षुब्‍ध, कुपित

पर्वत, हिमनद भी

कह गए बहुत

ईशारों में

पछताते चरणों से लौटी

कितनी विकल…

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Added by राजेश 'मृदु' on July 11, 2013 at 4:52pm — 16 Comments

राह के वो हाशिये थे.....

राह के वो हाशिये थे एक पल में हट गये 

रास्ते चौड़े हुए तो पेड़ सारे कट गये 



एक है चेहरा हमारा और खूं का रंग भी 

क्या रही मज़बूरी जो हम मज़हबों में बंट गये 



ग़मज़दा हूँ मैं कि मेरे पैर में जूते नहीं 

क्या गुज़रती होगी उसपे पांव जिसके कट गये 



न रहे दादा न दादी जो रटाये राम- राम 

देखकर माहौल घर का, तोते गाली रट गये 



रिज्क़ की तंगी कुछ ऐसी हो गई अब गाँव में 

औरतें तो रह गईं पर मर्द काफी घट गये 



ज़िन्दगी के…

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Added by Sushil Thakur on July 11, 2013 at 4:00pm — 6 Comments

काश तुम बोलते

भुन्सारे से संझा तक  

घूरे की तरह

उदास

चन्दा घिरा है

काले बादलों में

भरी दोपहर में !!!



सारी रोशनी

खाए जा रहा है

पलकों का बह चुका

काला कलूटा काजल



काश तुम बोलते

ये मौन चिरैया की चुप्पी तोड़ते

गुस्सा लेते

कम से कम कारण तो पता चलता

आँखों से और इन अदाओं से

पता चलता है

प्यार और तकरार

प्यास और इंतज़ार

ईमानदार और मक्कार का



तमन्ना का नहीं

 

अब देखो न …

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 4:00pm — 7 Comments

आज फिर हमने पी रखी साहिब

जो नजर है कमाल की साहिब

वो नजर क्यूँ झुकी हुई साहिब

.

आज फिर दिल मेरा बेचैन सा है

आज फिर हमने पी रखी साहिब

.

जुल्फ की छाँव तले गुजरे दो पल

दो घड़ी ज़िंदगी ये जी साहिब

.

मरने में आएगा मज़ा हमको

क़त्ल कर दे हंसी नजर  साहिब

.

जाम हाथों में इक बहाना है

हम कहाँ करते मयकशी साहिब

.

मैं नहीं बज्म में कभी आया

बात उसको ये खल गयी साहिब

.

डूब जायेंगे हम समंदर में

हो समंदर…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 11, 2013 at 3:30pm — 3 Comments

इक्षाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है

सुख के झरने देख पराए दुख को लिए निकलती है

इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है



मर्यादा में घोर निराशा

बाँध तोड़ती अहम पिपाशा

रस्मों और रिवाजों के पुल  

लगते हैं बस एक तमाशा  



तीव्र वेग से बहती है कब शिव से कहो सम्हलती है

इच्छाओं की अविरल नदिया दिल में सदा मचलती है

अंतरमन का दीप बुझाती

प्रतिस्पर्धा को सुलगाती

होड़ लिए आगे बढ़ने की

लक्ष्य रोज ये नये बनाती



सुधा धैर्य की छोड़ विकल चिंता का गरल…

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Added by SANDEEP KUMAR PATEL on July 11, 2013 at 3:00pm — 13 Comments

खुदा की धरती खुदा का अम्बर

दोस्तों अपने इस के साथ आप सबको

रमजान की मुबारक वाद देता हूँ ...................................

खुदा की धरती खुदा का अम्बर ,

खुदा की कुदरत पे किसका हक़ है ।

वो ही बनाये वो ही मिटाए ,

कि उसकी रहमत पे किसको शक है ।

कमाये तुमने यहाँ पे लाखों ,

मगर तमन्ना चुकी नही है ।

ये सुन लो जिस पे है नाज़ तुझको ,

वो जिंदगानी तेरी नही है ।

ज़रा तो सोचो जो तुमने पायी ,

वो तेरी शोहरत पे किसका हक़ है…

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Added by Neeraj Nishchal on July 11, 2013 at 11:30am — 8 Comments

बोध गया / प्रेस कांफ्रेंस

हम ले दे के चार मन, दिग्गी मम्मी पूत ।

हमले रो के रोक लें, पर कैसे यमदूत ।

पर कैसे यमदूत, नस्ल कुत्ते की इनकी ।

मार काट का पाठ, पढ़े ये कातिल सनकी ।

मन्दिर मस्जिद हाट, पहुँच जाते हैं बम ले ।

पुलिस जोहती बाट,  भाग जाते कर हमले ॥

मौलिक / अप्रकाशित

Added by रविकर on July 11, 2013 at 11:01am — 12 Comments

यथार्थ

शिखर को छूने की चाहत में

जमीन को भूल गया हूँ 

झूठ को जीते जीते 

सच को भूल गया हूँ... 

खुद्दार हैं वो जो 

मर के भी जीते हैं 

बेबसी हमारी हम 

जी के भी मरते हैं 

सच है चराग जलाने से 

अंधेरा मिटेगा 

मगर वो आचरण कहाँ से आए 

जिससे पाप मिटेगा .... 

कतरा कतरा जमा करो 

समंदर बनेगा 

अपना हृदय विशाल करो

जिसमे वो बहेगा ....

आंखे बंद करने से  अंधेरा 

होगा…

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Added by Amod Kumar Srivastava on July 11, 2013 at 7:59am — 5 Comments

नवगीत/ जीवन जीना है

क्या सुनना है

क्या कहना है

जीना औ मरना है

 

क्या पाया है

जो खोना है

दिन ही बस गिनना है

सपने सारे

सूखा मारे

घिस घिस कर चलना है

देह को बस गलना है

 

मन से हारा

पर हूँ जीता

रो रो कर हॅंसना है

किसको रोएं

पीर सुनाएं

सबका ही कहना है

बस जीवन जीना है

 

खेत को सींचें

अंकुर फूटें

बस इंतजार करना है

रात हुई थी

सुबह भी होगी

सोए, अब…

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Added by बृजेश नीरज on July 11, 2013 at 6:30am — 20 Comments

धर्म की राह

नींद गवांई,सुख चैन गवांया

जीवन की आपा -धापी में 

अगर-मगर तेरी-मेरी में

समय गवांया ,बातों में 

धन दौलत ने लोभी बनाया 

ईमान गवांया नोटों में 

पूत सपूत न बन पाया 

बस ध्यान लगाया माया में

दीन दुखियों की सेवा करता

पुण्य कमाता लाखों में 

करता अच्छे कर्म अगर तो 

तर जाता भाव सागर से

ईमान धर्म की राह…

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Added by Aarti Sharma on July 11, 2013 at 12:34am — 15 Comments

क्षणिकाएं (राम शिरोमणि पाठक )

गुजरती नहीं रात

संघर्ष करता रहा नींद से,

जब भी लेता हूँ करवट

चुभने लगते है कांटे

यादों के.//1

*****************************************

बहुत आभारी हूँ आपका 

जिंदा तो छोड़ा पागल बनाकर ही सही//2

*******************************************

दिल बहलाने का सामान 

थोडा बहुत इनाम

बस इतने के लिए क्या?

स्वाभिमान बेच दूँ//3

*******************************************

डर की निद्रा में विलीन 

रात ही रात …

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Added by ram shiromani pathak on July 10, 2013 at 6:30pm — 20 Comments

प्रकृति का प्रतिफल

फट रहा बादल कही 

तो कहीं उठ रहा तूफ़ान है, 

इतिहास में दर्ज होने को

बढ़ रहा इन्सान है..

था खुदा का घर वहां

बरसा  था कहर जहाँ,  

लग रहा खुदा भी नया 

कोई गढ़ रहा जहान  है..

हो रहा हिसाब अब 

कुदरत दे रही जवाब अब,

तूने जो किये अब तक

कुदरत से सवाल थे..

 

जो सोंच खुश "मैं बच गया"

उसे 'पवन बड्डन' का पैगाम है,

करना है तो प्राश्चित कर

तेरे सर भी आसमान…

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Added by Kavi Pawan "Baddan" on July 10, 2013 at 4:49pm — 3 Comments

कब तक

कब तक =

===============================

इस जीवन कॆ नख़रॆ, नाँज़ उठाऊँ कब तक ॥

नागफ़नी कॊ सीनॆ, सॆ चिपकाऊँ कब तक ॥१॥



कुछ कठिन सवालॊं कॆ, उत्तर खॊज रहा हूँ,

मन की घायल मैना, कॊ भरमाऊँ कब तक ॥२॥



राम बचा लॊ मुझकॊ, इस झूँठी  दुनिया सॆ,

सबकी हाँ मॆं हाँ मैं, और मिलाऊँ कब तक ॥३॥



पागल समझ रही है, दुनिया सच ही हॊगा,

पागल बनकर मैं यॆ, रॊग छुपाऊँ कब तक ॥४॥



पागल बन कर मैनॆं, खूब सुनीं हैं गाली,

राग पुराना बॊलॊ, मैं दुहराऊँ कब तक…

Continue

Added by कवि - राज बुन्दॆली on July 10, 2013 at 3:30pm — 6 Comments

आस्था या अनास्था

जब से खबर आयी है माँ का चित्त स्थिर नहीं है तीन दिन तो बड़ी बैचेनी में गुजरे। बार बार दरवाजे तक जाती अकेली खड़ी सूनी सड़क को घंटों तकती रहती फोन की घंटी पर दौड़ पड़ती तो कभी कभी यूँ ही फोन को घूरती रहती कभी बिना घंटी बजे ही फोन उठा कर कान से लगा लेती देखने के लिए की कहीं फोन बंद तो नहीं है .देवघर में दीपक तो पहली खबर के साथ ही लगा दिया था बार बार जा कर उसमे तेल भरती जलती हुई बाती को उँगलियों से ठीक करती और दोनों हाथ जोड़ कर सर तक ले…

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Added by Kavita Verma on July 10, 2013 at 2:00pm — 5 Comments

गूँज (लघुकथा)

राजू मोबाइल से गाना सुनने में मस्त था- "वो इक लड़की थी जिसे मैं प्यार करता था।"
तब तक उसके कानों में पिता जी की आवाज गूंजी- "सूरदास का पद नहीं सुन सकते थे क्या? या मीरा, तुलसी, कबीर का भजन सुनते?"
राजू डर गया और उसने गाना सुनना बंद कर दिया।
दो दिन बाद की बात है पिता जी अपने मोबाइल से गीत सुन रहे थे-"धूप में निकला न करो रूप की रानी, गोरा रंग काला न पड़ जाये।"
तब तक उनके कानों में आवाज गूँजी- "पिता जी! यह किसका पद या भजन है?"

मौलिक व अप्रकाशित
(संशोधित)

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on July 10, 2013 at 2:00pm — 31 Comments

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