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कब तक =
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इस जीवन कॆ नख़रॆ, नाँज़ उठाऊँ कब तक ॥
नागफ़नी कॊ सीनॆ, सॆ चिपकाऊँ कब तक ॥१॥

कुछ कठिन सवालॊं कॆ, उत्तर खॊज रहा हूँ,
मन की घायल मैना, कॊ भरमाऊँ कब तक ॥२॥

राम बचा लॊ मुझकॊ, इस झूँठी  दुनिया सॆ,
सबकी हाँ मॆं हाँ मैं, और मिलाऊँ कब तक ॥३॥

पागल समझ रही है, दुनिया सच ही हॊगा,
पागल बनकर मैं यॆ, रॊग छुपाऊँ कब तक ॥४॥

पागल बन कर मैनॆं, खूब सुनीं हैं गाली,
राग पुराना बॊलॊ, मैं दुहराऊँ कब तक ॥५॥

कौन भला रॊता है, सावन कॆ रॊनॆ सॆ,
मॆरा ही सावन मैं, ब्यर्थ गँवाऊँ कब तक ॥६॥

अपना अपना तुम भी, फ़र्ज निभाऒ भाई,
सारा फ़र्ज अकॆलॆ, और निभाऊँ कब तक ॥७॥

सॊतॆ हॊ या फ़िर यॆ, सॊनॆ का नाटक है,
कब जागॊगॆ तुमकॊ, रॊज जगाऊँ कब तक ॥८॥

अपनी धुन कॊ यॆ कब, मतवाली बदलॆंगी,
इन भैंसॊं कॆ आगॆ, बीन बजाऊँ कब तक ॥९॥

"राज" बदल जाता है,रुख़ रॊज हवाऒं का,
तूफ़ानॊं की ज़द मॆं, दीप बचाऊँ कब तक ॥१०॥

कवि- "राज बुन्दॆली"
१०/०७/२०१३
मौलिक व अप्रकाशित
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फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन फ़ैलुन
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उपरॊक्त शिल्प मॆं कहनॆ का प्रयास किया है क्या यह सही है,,?
आदरणीय गुरु-जनॊं सॆ प्रार्थना है बतानॆ की कृपा करियॆगा,,,नमन,,,

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Comment

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Comment by वीनस केसरी on July 15, 2013 at 12:41am

राज बुन्देली जी एक और शानदार ग़ज़ल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें
आपकी हालिया कुछ ग़ज़लों में मुझे बहुत संबल प्रदान किया है कि आगे भी आपकी कलम से यूँ ही शिल्प पर खरी उतरती ग़ज़लें पढ़ने को मिलेंगी
जिस प्रकार आपने ग़ज़ल को निभाया है वो काबिले तारीफ़ है
कहन भी उत्तम है

हाँ दो  अशआर में लय का टूट जाना खटक रहा है मगर इसे बहुत आसानी शाब्दिक हेर फेर से से ही दूर किया जा सकता है

कठिन सवालॊं कॆ अब, उत्तर खॊज रहा हूँ,
मन की घायल मैना, कॊ भरमाऊँ कब तक ॥२॥... घायल को भोली कर दें तो मजा दोगुना हो जाए मगर ये भी चलेगा

"राज" बदल जाता है, रॊज हवाऒं का रुख़,
तूफ़ानॊं की ज़द मॆं, दीप बचाऊँ कब तक ॥१०॥


केवल प्रसाद जी और अरुण शर्मा अनंत जी
 विनम्र निवेदन है कि ग़ज़ल की बातें समूह में क्रम ९ - तक्तीअ भाग २ लेख का अध्ययन करें और जानने का प्रयास करें कि यह ग़ज़ल कैसे पूरी तरह बा-बहर है और किसी नए ग़ज़लकार की ग़ज़ल पर आपत्ति दर्ज करने के पूर्व आश्वस्त हो लें कि आपकी आपत्ति कितनी ठोस है क्योकि ऐसी आपत्तियां नए लोगों को हैरान करती हैं और परेशान भी ...

आप अब इस मंच के लिए नए नहीं हैं और आपसे भी इस मंच को बहुत सी उम्मीदें हैं,
मेरा ख्याल है कि शाइर द्वारा अरकान लिखने के बाद भी अगर आपको तक्तीअ में दिक्कत पेश आ रही थी तो ग़ज़ल को बेबहर घोषित करने की जगह आप इस समबन्ध में शाइर से आग्रह पूर्वक पूछताछ कर सकते थे

Comment by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 11, 2013 at 6:28pm

सुन्दर रचना अभ्व्यक्ति के लिए बधाई श्री राज बुन्देली जी 

Comment by अरुन 'अनन्त' on July 11, 2013 at 4:20pm

आदरणीय राज बुन्देली सर जी कथन, शिल्प और भाव अत्यंत सुन्दर हुआ है इस हेतु अनेक अनेक बधाई स्वीकारें. किन्तु ग़ज़ल बहर में नहीं लगती है, मुझे ज्ञात है कि अभी आप ग़ज़ल कहने का प्रयास कर रहे हैं तो ऐसा होता ही है आपसे गुजारिश है कि आप अपने कीमती समय में से थोडा सा समय "ग़ज़ल की कक्षा" को अवश्य दें आपसे उम्मीदें बढ़ गईं हैं, तरही मुशायरे में आपका इन्तजार रहेगा. 

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on July 10, 2013 at 10:01pm

आ0 बुन्देली भाई जी , अतिसुन्दर...लाजवाब... शानदार....हार्दिक बधाई स्वीकारें। लेकिन भाई जी! यह गजल बहर में नहीं लग रही है जैसे-

 2     2   2   1    2   1   2 1  1   2  2   2    2
इस/ जी/वन/ कॆ/ नख़/रॆ/ नाँ/ज़/ उ/ठा/ऊँ/ कब /तक ॥
ना/ग/फ़/नी/ कॊ/ सी/नॆ/ सॆ/ चिप/का/ऊँ/ कब/ तक ॥१॥
2  1 1  2   2    2   1 1     2    2  2   2     2

Comment by yatindra pandey on July 10, 2013 at 8:38pm

अपनी धुन कॊ यॆ कब, मतवाली बदलॆंगी,
इन भैंसॊं कॆ आगॆ, बीन बजाऊँ कब तक ॥९॥
ye line mujhe behad pasand aayi

Comment by ram shiromani pathak on July 10, 2013 at 5:36pm

सॊतॆ हॊ या फ़िर यॆ, सॊनॆ का नाटक है,
कब जागॊगॆ तुमकॊ, रॊज जगाऊँ कब तक ॥८॥

अपनी धुन कॊ यॆ कब, मतवाली बदलॆंगी,
इन भैंसॊं कॆ आगॆ, बीन बजाऊँ कब तक ॥९॥/////बहुत सही व्यंग है

वाह वाह आदरणीया राज जी  बहुत सुन्दर रचना ///हार्दिक बधाई

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