तरही गजल...
बह्र....122 122 122 122
तरानाा फॅसाना नया चाहता हूँ
तुम्हीं से मुहब्बत-वफा चाहता हूँ।
चमन, फूल-कॉटों सभी से निभाया,
रहा दोष फिर भी क्षमा चाहता हूँ।
हॅसीं खाब-जन्नत-बहारें तुम्हीं से,
तरो ताजगी की हवा चाहता हूँ।
कदम चूम कर नित्य सजदा करूं मैं,
मेरी जिन्दगी की दवा चाहता हूँ।
खयालों में अक्सर बहुत चोट खाये,
मिलो रूबरू फलसफा चाहता हूँ।
हुआ वक्त घायल ये इन्सा-जमीं भी,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 27, 2015 at 8:00pm — 15 Comments
अतीत
अस्पताल से खबर आई और वह बदहवास सा भागा I
" पापा ..." इसके आगे बेटी कुछ न बोल पायी थी I वह जीवन -मृत्यु के बीच झूल रही थी ! किसी दरिंदे ने उसके ऊपर तेज़ाब ......I
" ओह !" उसका हृदय चीत्कार कर उठा , साथ ही उसे याद आया अपना अतीत i आज से तीस वर्ष पहले उसने भी तो यही किया था i
मीना पाण्डेय
बिहार
मौलिक व् अप्रकाशित
Added by meena pandey on May 27, 2015 at 3:00pm — 6 Comments
मुक्तक- 1
भला होता है वो कैसा जिसे सब प्यार कहते है
नही यह भी पता मुझको किसे सब यार कहते है
न जाना मैं कभी इनको न पहचाना कभी इनको
यही कारण मुझे सब आदमी बेकार कहते है
मुक्तक -2
नही होता अगर ये दिल तो हम भी शान से जीते
लड़ा कर जाम से हम जाम तुम्हारे साथ में पीते
मगर कमबख्त दिल मेरा हमेशा नाम ले उसका
भुलाने ही नही देता पलों को साथ जो बीते
मुक्तक -3
करू क्या काम दिन भर मै मुझे पत्नी बताती है
झुका कर के नज़र चलना मुझे हरदम…
Added by Akhand Gahmari on May 27, 2015 at 2:12pm — 16 Comments
" तुमको बुरा नहीं लगता इसमें , बिना अपनी मर्ज़ी के ये सब ", उसने पूछ लिया |
" हाँ , बहुत तक़लीफ़ हुई थी मुझे , जब अस्मत लुटी थी मेरी | और उससे भी ज्यादा तक़लीफ़ तब हुई थी , जब घर वालों ने भी दरवाज़ा बंद कर दिया था "|
उसने अपना चेहरा घुमा लिया , पुराना दर्द फिर उभर आया था |
.
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on May 27, 2015 at 2:00pm — 16 Comments
हुए न लक्ष्य पूर्ण किन्तु
मृत्यु द्वार आ गयी ,
देखकर मृत्यु को हाय !
ज़िंदगी घबरा गयी ,
हूँ नहीं विचलित मगर मैं ,
मृत्यु से टकराउँगा !
लक्ष्य पूरे करने फिर से
जन्म लेकर आऊंगा !
.....................................
छोड़ दूंगा प्राण पर
प्रण नहीं तोड़ूँगा मैं ,
अपनी लक्ष्य-प्राप्ति से
मुंह नहीं मोड़ूँगा मैं ,
है विवशता देह की
त्याग दूंगा मैं अभी ,
पर नहीं झुक पाउँगा
मृत्यु के आगे कभी ,
मैं पुनः नई देह…
Added by shikha kaushik on May 27, 2015 at 12:00pm — 12 Comments
२१२२/१२१२/२२
कितनी सादा-दिली से मिलता है
जब समुन्दर नदी से मिलता है.
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इक नयी कायनात पनपेगी
कोई भौंरा कली से मिलता है.
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रब्त इस बात पर टिके हैं अब
कोई कितना किसी से मिलता है.
.
हर किसी से यही वो कहते हैं
दिल मेरा आप ही से मिलता है.
.
अब सुमंदर में भी है बे-चैनी
क़तरा अपनी ख़ुदी से मिलता है.
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सुब’ह से पहले जुगनू यूँ चमका
गोया लम्हा सदी से मिलता है.
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मौत से क्या पता…
Added by Nilesh Shevgaonkar on May 26, 2015 at 9:21pm — 34 Comments
"वकील साहब! जो चाहे करो लेकिन मेरे बेटे को सजा नही होनी चाहिये।" कहते हुये काली बाबू ने चेक बुक सामने रख दी।
"काली बाबू। मीडीया और 'एविडेन्स' भी तुम्हारे बेटे के खिलाफ है। अब तो एक ही रास्ता है 'पीड़िता' से आपके बेटे की शादी और उसकी तरफ से केस वापसी की दरख्वास्त।" वकील साहब ने ठंडी साँस भर कर हथियार डाल दिये।......................................
"लोगो की सवालिया नजरे, परिवार का मान और तुम्हारी बेटी का भविष्य। इन सबको देखा जाये तो मेरी इस 'आफर' से बेहतर कोई रास्ता नही है।"…
Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 26, 2015 at 8:30pm — 18 Comments
1222/ 1222/ 1222/ 1222
किसी की चश्मे नम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
गरीबों के शिकम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी की *पेट
जिन्हें तू अपने पीछे यूँ तड़पता छोड़ जाता है
ये वो हैं जिनके दम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
न जाने नींद कैसे आती है ऐ बेरहम तुझको
तेरे कारे सितम से गुज़री हैं राहें बलन्दी की
कोई ये देख पाता काश कुछ भी कहने से पहले
कि कितने पेचो-खम* से गुज़री हैं राहें बलन्दी…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on May 26, 2015 at 8:00pm — 20 Comments
Added by मनोज अहसास on May 26, 2015 at 7:16pm — 26 Comments
"रामकली कँहा जा रही है ? "
"अरे !जिज्जी कहूँ नई इताइ आ जा र्इ हो।"
"काय री रामकली जो माथों सुनो तोहरी बिंदी कहा गई री ?और मांग भी सुनी है?"
"अरे सपरो हतो सो गिर गई हुहे"।
" हे राम !जा जिज्जी तो और अबै सबरो भेद खुल जातो ।हम तो पेंशन लाने जो सब कर रहे हते।का होत है दो पल सुहाग छुड़ा के सरकार से पैसा लेबे में।"
और रामकली पति के साथ होते हुए भी सरकारी परित्यक्ता की पेंशन लेने चली जाती है।
बबिता चौबे शक्ति
मौलिक व् अप्रकाशित
Added by babita choubey shakti on May 26, 2015 at 3:00pm — 10 Comments
‘इन किताबों की जिल्दें उखाड़ कर गत्ता अलग करो, और इन पैक की हुई किताबों को भी खोलो।‘ कबाड़ की दुकान का मालिक अपने नौकरों को आदेश दे रहा था
‘ये इतनी सारी रद्दी कहाँ से ले आए ?’ एक नौकर ने पूछा
‘वो जो पीछे लाल कोठी वाले साहिब हैं न, जो विश्वविद्यालय में साहित्य विभाग के अध्यक्ष हैं, उन्हीं के घर से लाया हूँ।’
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Ravi Prabhakar on May 26, 2015 at 2:57pm — 11 Comments
दरमियाँ के फासले जाने लगेंगे एक दिन,
आते-आते याद हम आने लगेंगे एक दिन।
जगते-सोते ख्वाब हम सहेजते तेरे अभी
अब तेरे ख्वाब हम आने लगेंगे एक दिन।
अपने दीये जले घर तेरे,ऐसा लगता है,
दीप तेरे अपने घर छाने लगेंगे एक दिन।
तेरी हीधुन को सहेजे गीत पिरोये मैंने जी,
मेरे नगमे तेरे लब आने लगेंगे एक दिन।
चाहतें अपनी मुकम्मल नाम तेरे हो गयीं,
हम तुझको लगताअबभाने लगेंगे एक दिन।
मांगता हूँ जिंदगी,तो भाव खाती जिंदगी,
जिंदगी से भाव हम खाने लगेंगे एक…
Added by Manan Kumar singh on May 26, 2015 at 10:00am — 5 Comments
" माँ .... काकी माँ ....बेटी ......दीदी ....", ---चारों ओर से पुकारती ये आवाज़ें सुधा के कानों में अमृत घोलती ।
" सुधा .....! ", --अचानक चौंक गई आवाज़ को सुनकर ।
" क्या लेने आए हो अब ? "-- उसको देखते ही सुधा की आँखों में रोष उतर आया था ।
" मैं बहुत शर्मिन्दा हूँ सुधा ... मुझे माफ कर दो । " -- गिड़गिड़ा रहा था रवि ।
" क्यों वो चली गई क्या किसी और के साथ ; जिसके लिए मुझे छोड़ गए थे । "
" प्लीज़ सुधा ; मैं अपराधी हूँ तुम्हारा । घर चलकर जो भी सजा दोगी मंजूर है । "…
Added by sunanda jha on May 26, 2015 at 6:30am — 10 Comments
-: खींच अहं के मग से डग प्रभु :- (संसोधित)
खींच अहं के मग से डग प्रभु,
रख लें अपने चरणों में ||
है परम कांति अरु चरम शांति जो,
और किसी ना शरणों में |
सजा हुआ मद की बेड़ी मे,
जड़ा हुआ हूँ कहीं सिखा पर,
तोड़ एकांकी अहं का आसन,
मिला लें पद रज-कणों में |
खींच अहं के मग से डग प्रभु,
रख लें अपने चरणों में ||
यह राह नहीं है सीधा-सादा ;
मैं निकल पड़ा जिसपर |
रसहीन…
ContinueAdded by SHARAD SINGH "VINOD" on May 25, 2015 at 8:00pm — 12 Comments
भागते हुए किसी तरह सबको चढ़ाकर वो ट्रेन में घुसे और अपनी फूली हुई साँसों को क़ाबू में करने की चेष्टा करने लगे। पत्नी और बच्चे उस भीड़ में घुस गए थे और बैठने की जगह तलाश रहे थे। गर्मी के दिन , छुटियों का समय , आरक्षण मिलना लगभग नामुमकिन था इसलिए आज ऐसी यात्रा करनी पड़ रही थी उनको।
सांसें सामान्य हुईं तो अजीब सी दुर्गन्ध महसूस होने लगी , लोगों के पसीने और सांसों की गंध। अब उनको बेचैनी महसूस होने लगी , फिर ध्यान आया कि परिवार को जगह मिली की नहीं, और थोड़ा अंदर घुसे। पत्नी और बच्चे किसी तरह सीट…
Added by विनय कुमार on May 25, 2015 at 1:49pm — 20 Comments
गुलदस्ता - ........३ मुक्तक
हर लम्हा ....
जब भी ये दिल उदास होता है
जाने कौन आस पास होता है
मेरी तन्हाई को साँसे देने वाले
हर लम्हा तेरा अहसास होता है
..............................................
तमाम सांसें .....
आपकी हर अदा को सलाम करते हैं
अपनी मुहब्बत .आपके नाम करते हैं
वजह बन गए हैं जो हमारे ख़्वाबों की
तमाम सांसें .हम उनके नाम करते…
Added by Sushil Sarna on May 25, 2015 at 1:30pm — 17 Comments
मेरा मज़हब सच्चा है
अमन सिखाता है
खूंरेजी से नफरत है हमें
और नाज़ है मुझे अपने मज़हब पर
कुछ लोग फैलाते हैं झूठी सच्ची कहानियां
कि हम दुश्मन हैं अमन के
कि हम नफरतें बांटते हैं
कि हमें क़द्र नहीं इंसानी जानों की
क़सम है मुझे अपने पुर अम्न मज़हब की
जो मुझे मिल जाएँ वो लोग जो फैलातें हैं ये…
ContinueAdded by saalim sheikh on May 25, 2015 at 11:51am — 3 Comments
२१२२ १२१२ २२
साफ़ कहने में है सफ़ाई क्या ?
कौन समझे पहाड़-राई क्या ?
चाँद-सूरज कभी हुए हमदम ?
ये तिज़ारत है, ’भाई-भाई’ क्या ?
सब यहाँ जी रहे हैं मतलब से
मैं…
Added by Saurabh Pandey on May 25, 2015 at 11:00am — 52 Comments
मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन/ मुफ़तइलुन / मफ़ाइलुन (इस्लाही ग़ज़ल) |
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गम दे, ख़ुशी दे ज़िन्दगी, कितनी किसे हिसाब क्या |
दरिया फ़ना हयात का, मुझसा वहां हुबाब क्या … |
Added by मिथिलेश वामनकर on May 25, 2015 at 9:30am — 39 Comments
Added by Manan Kumar singh on May 25, 2015 at 6:59am — 7 Comments
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