भागते हुए किसी तरह सबको चढ़ाकर वो ट्रेन में घुसे और अपनी फूली हुई साँसों को क़ाबू में करने की चेष्टा करने लगे। पत्नी और बच्चे उस भीड़ में घुस गए थे और बैठने की जगह तलाश रहे थे। गर्मी के दिन , छुटियों का समय , आरक्षण मिलना लगभग नामुमकिन था इसलिए आज ऐसी यात्रा करनी पड़ रही थी उनको।
सांसें सामान्य हुईं तो अजीब सी दुर्गन्ध महसूस होने लगी , लोगों के पसीने और सांसों की गंध। अब उनको बेचैनी महसूस होने लगी , फिर ध्यान आया कि परिवार को जगह मिली की नहीं, और थोड़ा अंदर घुसे। पत्नी और बच्चे किसी तरह सीट से टिक कर खड़े होने का प्रयत्न कर रहे थे और उनके चेहरे उनकी परेशानियों को व्यक्त कर रहे थे। बहुत प्रयत्न किया उन्होंने कि लोगों से कुछ फ़ासला रहे और उस दुर्गन्ध से राहत , लेकिन असफल रहे |
कुछ समय बीत चुका था ट्रेन चलते और अभी ६ घंटे का सफर बाक़ी था। वो सोच में डूबे थे कि कैसे कटेगा सफर पत्नी और बच्चों का इस हालत में तभी सीट पर बैठे कुछ लोगों ने उठ कर उनके परिवार को बैठने की जगह दे दी। अब वो लोग उनसे सट कर खड़े थे, उसी तरह पसीने की गंध से लिपटे हुए। उनकी साँसों से अब भी अजीब सी गंध आ रही थी लेकिन अब वो गंध उनको खटक नहीं रही थी।
पत्नी और बच्चे अब सीट पर बैठे हुए थे, ट्रेन अपनी रफ़्तार में चल रही थी, और वो भी अपने बगल के यात्री के ऊपर टिक कर खड़े खड़े झपकी ले रहे थे।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
अब और क्या कहूँ , नतमस्तक हूँ आपकी टिप्पणी पर | बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी..
जब दृष्टि पारखी हो तो उसकी भावमय बारिश से रचनाएँ आस-पास ही अँकुरने लगती हैं. फिर रचनाकार स्नेहवत पोषण कर उन्हें बड़ा करता है. इस विचार को कितनी सुन्दरता से फलीभूत होता हुआ देख रहा हूँ ! आमजन से कटते हुए परिवारों को हालत जब आमजन के बीच खड़ा कर देते हैं, इस भावदशा की गहन अभिव्यक्ति हुई है.
आदरणीय विनय कुमारजी, आपके इस कथा-विन्यास पर हार्दिक शुभ्कामनाएँ और अतिशय बधाइयाँ..
बहुत बहुत आभार आदरणीया डॉ प्राची सिंह जी , धन्यवाद इस टिप्पणी के लिए ..
हा हा , ये संस्मरण हम से अधिकांश लोगों का है आदरणीय जितेन्द्र पस्टारिया जी , बहुत बहुत आभार..
गर्मियों में साधारण कोच की रेलयात्रा का सटीक शब्दचित्र खींचा है.. परिवार को ज़रा से भी आराम में देख मन में हुई तनिक निश्चिन्तता को बहुत महीनी से आपने गंध को महसूस करने में हुए परिवर्तन के ज़रिये बहुत सफलता से प्रस्तुत किया है
हार्दिक बधाई इस सम्प्रेषण पर
मेरा जहाँ तक ख़याल है आपने एक संस्मरण को लघुकथा का रूप दिया है जो बिलकुल सार्थक है. बहुत-बहुत बधाई ,आदरणीय विनय जी
सादर!
बहुत बहुत आभार आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी.
एक साधारण सी घटना पर बेहतरीन लघुकथा
हार्दिक बधाई
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मोहन जान गोरखपुरी जी ..
आप सच कह रहे हैं आदरणीय शुभ्रांशु पाण्डेय जी , बहुत बहुत आभार..
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