ग़ज़ल : 1222,1222,122
मेरे किरदार पर धब्बा नहीं था
तुम्हीं ने ग़ौर से देखा नही था
मेरे ग़म को समझता कोई कैसे
कोई मेरी तरह तनहा नहीं था
मैं इक ठहरा हुआ तालाब था बस
वो दरिया था कभी ठहरा नहीं था
तेरी हर बात सच्ची थी हमेशा
फ़क़त लहजा ही बस अच्छा नहीं था
न आया जो नदी के पास यारो
वो प्यासा था मगर इतना नहीं था
नज़र मेरी थी मंज़िल पर हमेशा
थकन का पाओं से रिश्ता नहीं था
तुम इसको जीत समझो "जोहना" पर
हक़ीक़त ये है वो हारा नहीं था
साध्वी ‘जोहना’
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
लक्ष्मण धामी जी, अदाब, मैंने एडिट करने की कोशिश की थी मगर हुई नहीं! आपका तहे -दिल से शुक्रियाI प्रणाम!
आ. साध्वी सैनी जी, गजल का प्रयास अच्छा हुआ है । हार्दिक बधाई । सुधीजनों के मार्गदर्शन से रचना बेहतर निखार पा सकती है।
आदरणीय Samar kabeer जी,मेरी ग़ज़ल को ओ बी ओ में शामिल करने के लिए शुक्रिया और सभी सुझावों के लिए भी आपका तहे- दिल से शुक्रगुज़ार हूँ! सादर प्रणाम!
आदरणीय Harsh Mahajan ji अदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और सुख़न नवाज़ी का तहे-दिल से शुक्रियाI सादर!
आदरणीय DR ARUN KUMAR SHASTRI जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और सुख़न नवाज़ी का तहे -दिल शुक्रिया I सादर!
आदरणीय अमरूदीन अमीर जी स्वागत के लिए तहे दिल से शुक्रिया! सभी सुझावों के लिय आपकी शुक्रगुज़ार हूँI सादर प्रणामI
बहुत ही खूबसूरत ख्यालों भरी रचना आदरणीय सैनी जी।
सादर
मुहतरमा साध्वी सैनी जी आदाब, ओबीओ पर आपका स्वागत है ।
ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,और इस ग़ज़ल की फ़ीचर ब्लॉग में शामिल होने पर बधाई स्वीकार करें ।
बहुत कुछ समझाइश जनाब अमीर जी दे ही चुके हैं ।
'तिरी हर बात सच्ची थी हमेशा
फकत लहज़ा ही बस अच्छा नहीं था'
उचित लगे तो इस शैर को यूँ कर लें:-
'तेरी हर बात सौ फ़ीसद थी सच्ची
मगर लहजा तेरा अच्छा नहीं था'
'नदी के पास आया ही नहीं वो
वो प्यासा था मगर इतना नहीं था'
इस शैर के दोनों मिसरों में 'वो' शब्द खटकता है,इस शैर को यूँ कह सकती हैं:-
'न आया जो नदी के पास यारो
वो प्यासा था मगर इतना नहीं था'
'वो बाज़ी ‘जोहना’ जीती थी तुमने
मगर सच ये है वो हारा नहीं था'
मक़्ते के दोनों मिसरों में 'वो' शब्द खटकता है,कथ्य भी साफ़ नहीं है,यूँ कर सकती हैं :-
'तुम इसको जीत समझो 'जोहना' पर
हक़ीक़त ये है वो हारा नहीं था'
मोहतरमा साध्बी सैनी जी को एक अबोध बालक का आदाब पहुंचे
आपकी ग़ज़ल बेहतरीन / मुझे इस गजल की ये लाइन्स बहुत मार्मिक लगी
ये हम सभी के किर् दार का अनछुआ हिस्सा हैं
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मेरे ग़म को समझता कोई कैसे
कोई मेरी तरह तनहा नही था
आदरणीया साध्वी सैनी 'जोहना' जी आदाब, ओ बी ओ के मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है। ओ बी ओ पर आपकी पहली प्रदर्शित ग़ज़ल शानदार हुई है, सभी शे'र इन्सानी जज़्बात से लबरेज़ और रवानी में हैं आपको भरपूर दाद के साथ मुबारकबाद पेश करता हूँ और पहली ही ग़ज़ल के फ़ीचर ब्लॉग्स में शामिल होने पर ख़ास मुबारकबाद क़ुबूल कीजिए।
चन्द टंकण त्रुटियों की ओर आपका ध्यानाकर्षण चाहूँगा कुछ जगह "नहीं" में अं की बिन्दी लगना रह गई है इसके इलावा
//फकत लहज़ा ही बस अच्छा नहीं था// इस मिसरे में फ़क़त में नुक़ते लगा लें और लहजा से नुक़्ता हटा दें।
//थकन का पाओं से रिश्ता नही था// इस मिसरे में पाओं के बजाय जिस्म लफ़्ज़ ज़ियाद: बहतर होगा। सादर।
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