ग़ज़ल
किताबें मानता हूँ रट गया है
वो बच्चा ज़िंदगी से कट गया है|
है दहशत मुद्दतों से हमपर तारी
तमाशे को दिखाकर नट गया है |
धुंधलके में चला बाज़ार को मैं
फटा एक नोट मेरा सट गया है |
चलन उपहार का बढ़ना है अच्छा
मगर जो स्नेह था वो घट गया है |
पुराने दौर का कुर्ता है मेरा
मेरा कद छोटा उसमे अट गया है |
राजनीति में सेवा सादगी का
फलसफा रास्ते से हट…
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Added by Abhinav Arun on November 12, 2010 at 10:30pm —
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छोटी सी भूल (रैगिंग)
'अमन' को आज इन्साफ मिला
हम फिर भी हैं शर्मसार
मेरे हिमाचल के बच्चों ने
ली थी उसकी जान
एक छोटी सी गलती ने
कारागार पहुँचाया
खुद भी हुए कलंकित
हिमाचल को कलंक लगाया
में लेखक हूँ ,मुझको है
अफ़सोस इस घटना पर
विनती है हर नौजवान से
ऐसे कृत्यों से डर
ऐसे कुकर्म से डर
दीपक शर्मा कुल्लुवी
०९१३६२११४८६
११-१०-२०१०.
खबर : मेरी जन्म भूमि काँगड़ा के मेडिकल कालेज टांडा(काँगड़ा)…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on November 12, 2010 at 1:15pm —
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तुम्हीं से सुबहें, तुम्हीं से शामें,
हर एक लम्हा, तुम्हारी बातें,
हैं साथ मेरे, हर एक पल में
तुम्हारी यादें, तुम्हारी बातें I
मेरी निगाहों में तेरा चेहरा,
ये दिल और धड़कन हैं संग जैसे,
तू संग चलता है ऐसे मेरे,
है चलता ये आसमाँ संग जैसे I
हूँ भीगा मैं ऐसे तेरी खुश्बुओं से,
हो बादल कोई डूबा बूँदों में जैसे,
यूँ छाया तेरा इश्क़ है मेरे दिल पे,
हो सिमटी कोई झील धुन्धों में जैसे I
तुझ ही में पाया मैंने ख़ुदा को,
ख़ुदा…
Added by Veerendra Jain on November 12, 2010 at 12:30pm —
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सर फिरोशी की तमन्ना है तो सर पैदा करो
वरना छोडो यूं हवा में आप नारे छोड़ना .
गर मुल्क से इश्क है तो दिल जिगर शैदा करो
वरना छोडो यूं हवा में आप नारे छोड़ना .
सब यहाँ का खा रहे पर न यहाँ का गा रहे ;
उस शजर को काटते हैं ,छाया जिस से पा रहे.
छाया से जो इश्क है तो पेड़ से पैदा करो
वरना छोडो यूं हवा में आप नारे छोड़ना .
जो हुए हैं नाम चीन गुलचीं गुलिस्तान के…
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Added by DEEP ZIRVI on November 12, 2010 at 6:00am —
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गीत:
कौन हो तुम?
संजीव 'सलिल'
*
कौन हो तुम?
मौन हो तुम?...
*
समय के अश्वों की वल्गा
निरंतर थामे हुए हो.
किसी को अपना किया ना
किसी के नामे हुए हो.
अनवरत दौड़ा रहे रथ
दिशा, गति, मंजिल कहाँ है?
डूबते ना तैरते, मझधार
या साहिल कहाँ है?
क्यों कभी रुकते नहीं हो?
क्यों कभी झुकते नहीं हो?
क्यों कभी चुकते नहीं हो?
क्यों कभी थकते नहीं हो?
लुभाते मुझको बहुत हो
जहाँ भी हो जौन हो…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 11, 2010 at 9:32pm —
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मिलना-बिछडना ::: ©
स्वप्न लोक से तू निकल आ ऐ रूपसी...
माना है जिंदगी चाहत का एक सिलसिला..
मिलना-बिछडना भी है लगा रहता यहाँ...
क्यूँ मांगती है आ सीख ले तू छीन लेना..
बिन मांगे न मिला है न तुझे मिलेगा कभी.. ©
जोगेन्द्र सिंह Jogendra Singh ( 11-11-2010…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 11, 2010 at 5:34pm —
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हिन्दी कविता एक नए युग में प्रवेश कर चुकी है। इस युग में हिन्दी कविता वैश्विक मंच पर अन्तर्जाल के माध्यम से अपनी पहचान बना रही है । इसलिए इस युग को “अन्तर्जाल युग” ही कहा जाय तो ठीक रहेगा। आज के समय में अन्तर्जाल का प्रयोग करने वालों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। इसमें हिन्दीभाषी लोगों की संख्या भी कम नहीं है। धीरे धीरे ही सही अन्तर्जाल के माध्यम से हिन्दी कविता विश्व के कोने कोने तक पहुँच रही है। आज अधिकांश हिन्दी कविताएँ अन्तर्जाल पर उपलब्ध हैं। अब उभरते हुए कवियों को प्रकाशित होने के लिए…
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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 11, 2010 at 3:43pm —
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बनकर साकी आया हूँ मै आज जमाने रंग|
ऐसी आज पिलाऊंगा, सब रह जायेंगे दंग||
अभी मुफिलिसी सर पर मेरे, खोल न पाऊं मधुशाला|
फिर भी आज पिलाऊंगा मै हो वो भले आधा प्याला|
ऐ मेरे पीने वालों तुम, अभी से यूँ नाराज न हो|
मस्त इसी में हो जावोगे, बड़ी नशीली है हाला|
एक-एक पाई देकर मै जो अंगूर लाया हूँ|
इमानदारी की भट्ठी पे रख जतन से इसे बनाया हूँ|
तनु करने को ये न समझना, किसी गरीब का लहू लिया|
राजनीति से किसी तरह मै अब तक इसे बचाया हूँ|
हर बार…
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Added by आशीष यादव on November 11, 2010 at 2:30pm —
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नवगीत ::
शेष धर
संजीव 'सलिल'
*
किया देना-पावना बहुत,
अब तो कुछ शेष धर...
*
आया हूँ जाने को,
जाऊँगा आने को.
अपने स्वर में अपनी-
खुशी-पीर गाने को.
पिया अमिय-गरल एक संग
चिंता मत लेश धर.
किया देना-पावना बहुत,
अब तो कुछ शेष धर...
*
कोशिश का साथी हूँ.
आलस-आराती हूँ.
मंजिल है दूल्हा तो-
मैं भी बाराती हूँ..
शिल्प, कथ्य, भाव, बिम्ब, रस.
सर पर कर केश धर.
किया देना-पावना…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 11, 2010 at 9:55am —
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दुनिया को मेरा जुर्म बता क्यूं नहीं देते?
मुजरिम हूँ तो फिर मुझको सज़ा क्यूं नहीं देते..?
बतला नहीं सकते अगर दुनिया को मेरा जुर्म?
इल्जाम नया मुझपे लगा क्यूं नहीं देते...!
मुश्किल मेरी आसान बना क्यूं नहीं देते ?
थोड़ी सी जहर मुझको पिला क्यूं नहीं देते ?
दिल में जनूं की आग जला क्यूं नहीं लेते ?
इन शोअलों को कुछ और हवा क्यूं नहीं देते ?
यूं तो बहुत कुछ अपने इजाद किया है,
इंसान को इन्सान बना क्यूं नहीं देते ?
दुनिया को…
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Added by Rector Kathuria on November 10, 2010 at 10:00pm —
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सब से पत्थर खाता है वो दीवाना.
फिर भी सच सुनाता है वो दीवाना.
क्यूं सपनों में आता है वो दीवाना,
दिल को क्यूं तड़पाता है वो दीवाना.
दीवाली तो साल बाद ही आती है,
पर हर रोज़ मनाता है वो दीवाना.
लड़ता है हर रोज़ वो जंग अंधेरों से,
हर पल दीप जलाता है वो दीवाना.
तूफां में चिराग जलाता हो जैसे,
प्यार के गीत सुनाता है वो दीवाना.
यादों की खुद आग लगाता है हर रोज़,
फिर उसमें जल जाता है वो दीवाना.
धोखा मुझको…
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Added by Rector Kathuria on November 10, 2010 at 9:30pm —
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ना यहाँ है ना वहाँ है साथियो
आजकल इंसां कहाँ है साथियो
आम जनता डर रही है पुलिस से
चुप यहाँ सब की जबाँ है साथियो
पार्टी में हाथ है हाथी कमल
आदमी का क्या निशां है साथियो
लीडरों का एक्स-रे कर लीजिए
झूठ रग रग में रवाँ है साथियो
ये उठा दें रैंट पर या बेच दें
मुल्क तो इनका मकां है साथियो
Added by Arun Chaturvedi on November 10, 2010 at 5:44pm —
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शब-ए-अमावस को चिढ़ाने कल निकला था चाँद
काली चादर ओढ़कर भी कितना उजला था चाँद
खूब कोशिशों पर भी कुछ समेट ना पाया आसमाँ
सुबह होते ही बुलबुले सा फूटकर बिखरा था चाँद
दिखती है दरिया में कैद आज तलक परछाई
उस रोज़ कभी नहाते वक़्त जो फिसला था चाँद
क्या पता रंजिश थी या जमाने का कोई दस्तूर
रोज़ की तरह आज भी सूरज निगला था चाँद
दोनों जले थे रात भर अलाव भी और चाँद भी
तेरे लम्स के पश्मीने में भी…
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Added by विवेक मिश्र on November 9, 2010 at 12:23pm —
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तुम दीप जला-के तो देखो... डॉ नूतन गैरोला
हमने अँधेरा देखा है
एक अहसास बुराई का
ये दोष अँधेरे का नहीं
ये दोष हमारा है
हमने क्यों मन के कोने में
इक आग सुलगाई अँधेरे की
खुद का नाम नहीं लिया हमने
बदनाम किया अँधेरे को.......
एक पक्ष अँधेरे का है गुणी
कुछ गुणगान उसका तुम करो
अँधेरा है तो दीया भी…
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Added by Dr Nutan on November 8, 2010 at 7:34pm —
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बाल कविता:
अंशू-मिंशू
संजीव 'सलिल'
*
अंशू-मिंशू दो भाई हिल-मिल रहते थे हरदम साथ.
साथ खेलते साथ कूदते दोनों लिये हाथ में हाथ..
अंशू तो सीधा-सादा था, मिंशू था बातूनी.
ख्वाब देखता तारों के, बातें थीं अफलातूनी..
एक सुबह दोनों ने सोचा: 'आज करेंगे सैर'.
जंगल की हरियाली देखें, नहा, नदी में तैर..
अगर बड़ों को बता दिया तो हमें न जाने देंगे,
बहला-फुसला, डांट-डपट कर नहीं घूमने देंगे..
छिपकर दोनों भाई चल दिये हवा…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 8, 2010 at 6:14pm —
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तलब तेरी ,इश्क तेरा ,मुहब्बत का असर तेरा .
हुई मुद्दत कहा तू ने ,है सब कुछ ये सनम तेरा .
हवा तेरी महक लाये ,फिजा तेरा पता लाये ;
धनक तेरी ,उफक तेराललक तेरी अहम तेरा .
जिस्म तेरा ,अमानत है किसी का, तो रहे होकर;
सुमन तेरा ,महक तेरी , मगर ,तेरा चमन मेरा .
हमारी आस को विश्वास है तेरी मुहब्बत का ;
रहे बन के सनम मेरे ,रहूँ में ही बलम तेरा .
सुरीली तुम ही सरगम हो…
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Added by DEEP ZIRVI on November 8, 2010 at 5:00pm —
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खाब की ताबीर होने से रही
ऐसी भी तकदीर होने से रही
पहले सी झुकती नहीं तेरी नज़र
अब कमां ये तीर होने से रही
चाहे जितने रंग भर लो खाब के
पानी मे तस्वीर होने से रही
कर लो पैनी ' फ़िक्र' जितनी तुम कलम
जौक, ग़ालिब, मीर, होने से रही
Added by vikas rana janumanu 'fikr' on November 8, 2010 at 10:25am —
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तुम्हारे ये दो आँसू ::: ©
कुछ घाव हरे कर गए है..
तुम्हारे ये दो आँसू मेरी..
संवेदना को गहरा कर गए हैं..
किसी पुराने जख्म का रिसना..
और भर-भर कर उसका..
रिसते चले जाना..
नियति बन गया है अब..
तुम्हारे मन की पीड़ा..
आँसू की पहली बूँद से..
उजागर हो रही है..
एक ह्रदय से दूसरे तक..
क्यों इस पीड़ा का गमन..
हो रहा है निरंतर..
सतत अविरल बहते आँसू..
मेरे…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on November 8, 2010 at 12:38am —
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दीपक की देखी बाती
तेल में डूबी निज तन जलाती
महा तमस में अकेले ही
उजियारा फैलाती
सबका हौसला बढाती
देखी दीपक की बाती...
एक सैनिक
जो युद्ध-भूमि में पड़ा है
मातृभूमि के लिए
आखिरी साँस तक लड़ा है
उसके सीने में देशभक्त का
गौरव जड़ा है ....
हम युद्ध जीतेंगे हर बार
दुश्मन से भी और
बुराइयों से भी...
ऐ मेरे रहबर !
समझौते की मेज़ पर
अपना मनोबल न गिराना
खुद के आत्म सम्मान के लिए
देश को दांव पर न…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on November 7, 2010 at 11:00pm —
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अभी हाल ही में मुझसे एक पुराने जान-पहचान का अरसे बाद मिला। बरसों पहले जब मैं उससे मिला करता था तो उसके पास खाने के लाले पड़े थे। वह कुछ एक आपराधिक कार्यों में भी लिप्त था। कई बार जेेेल की हवा भी खा चुका था। कल तक जो पूरे मोहल्ले को फूटी आंख नहीं सुहाता था, आज वही लोगों की आंख का तारा बना हुआ है। जब वह मुझे मिला तो मैंने उससे कुषलक्षेम पूछा। उसने बताया कि वह इन दिनों राजनीति में खूब कमाल दिखा रहा है। मैंने कहा कि ऐसा कर लिया, जो बिना किसी योग्यता के, नाम भी कमा लिया और पोटली भी भर ली, वह भी ऐसे,…
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Added by rajkumar sahu on November 7, 2010 at 2:49pm —
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