उन्हें खबर नहीं के दर्द कब उभरता है --
किसकी यादों की रहगुजर से कब गुजरता है --
जख्म भरने की कोशिशों में उम्र बीत गई --
एक भरता है तो फिर दूसरा उभरता है --|
इक अजनबी चुपके से मन के द्वार आ गया --
पागल हुआ मन और उनपे प्यार आ गया
उसने जो नाम ले के इक बार क्या पुकार लिया
हमको लगा के मिलन का त्यौहार आ गया |
जो शौक से पाले जाते हैं वो दर्द नहीं कहलाते हैं --
जो दर्द हबीब से मिलते हैं वो दर्द ही पाले जाते हैं
जब टूट जाये उम्मीद…
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Added by jagdishtapish on August 29, 2010 at 8:12pm —
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मित्रों ......
हड़ताल एक यज्ञ है
कर्मचारियों द्वारा लगाया गया नारा
घी और हुमाद
हडताली नेताओं के भाषण
वेदों के मंत्रोच्चार
उठने वाला धुयाँ
वार्ता के लिए बुलाया जाना
और मांगों को मनवा लेना
अभिस्ट की प्राप्ति ॥
चिल्ला रहा था
कर्मचारियों का नेता
इसलिए दोस्तों
जोर-जोर से नारे लगाओ ॥
जब लाल कोठी के निक्क्मो का वेतन
तिगुना हो सकता है ....
हमलोगों का क्यों नहीं ॥
Added by baban pandey on August 28, 2010 at 5:39pm —
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बाल गीत
माँ का मुखड़ा
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा!
*
सुबह उठाती गले लगाकर,
नहलाती है फिर बहलाकर,
आँख मूँद, कर जोड़ पूजती ,
प्रभु को सबकी कुशल मनाकर. ,
देती है ज्यादा प्रसाद फिर
सबकी नजर बचाकर.
आँचल में छिप जाता मैं ज्यों
रहे गाय सँग बछड़ा.
मुझको सबसे अच्छा लगता -
अपनी माँ का मुखड़ा.
*
बारिश में छतरी आँचल की ,
ठंडी में गर्मी दामन की.,
गर्मी में…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 28, 2010 at 5:19pm —
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सामान्यतया अहिंसा का अर्थ कायरता से लगाया जाता है..जबकि अहिंसा का वास्तविक अर्थ होता है निडरता | दूसरे अर्थों में कहूँ तो 'अभय', जो भयजदा नहीं हो और ये ही निडरता ही नैतिकता का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है. इंसान का निडर होना उसका सबसे अहम् गुण होता है. निडर और अभय व्यक्ति ही स्वतंत्र हो सकता है. हिंसक व्यक्ति सदा स्वयं को असुरक्षित और तनावग्रस्त महसूस करते हैं, साथ ही अप्रिय भी होते हैं। भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस हिंसावादी नहीं थे..निडर थे..अभय थे..अपने आपको कभी परतंत्र नहीं समझा और इसी विचार को…
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Added by Narendra Vyas on August 28, 2010 at 4:27pm —
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लाखों पैदा हो रहे युवाओं में से
मैं भी एक युवा हू ॥
गन्ने के रस से नहा कर
और चासनी की क्रीम लगाकर
रोज सुबह -सुबह
बाहर निकलती है मेरी ख्वाबें॥
जब मैं अपने सारे सर्टिफिकेट
एक बैग में डाल कर
निकल पड़ता हू ...
साक्षात्कार के लिए ॥
खूब उडती है मेरी ख्वाबें
मानो कल ही खरीद लूँगा
पार्क स्ट्रीट में अपना एक बंगला
मारुती सुजुकी का डीजायर
सोनी बाओ का लैप -टॉप
ब्लैक -बेर्री का मोबाइल
और फिर चखने लगूगा
येलो चिली…
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Added by baban pandey on August 28, 2010 at 1:30pm —
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कुछ तो हूँ कुछ नहीं हूँ मैं
चंद लम्हों कि रुत नहीं हूँ मैं
मुझको सजदा करो ना पूजो तुम
संगमरमर का बुत नहीं हूँ मैं |
मेरे नीचे है अँधेरे का वजूद
शाम से पहले कुछ नहीं हूँ मैं |
यूँ ना तेवर बदल के देख मुझे
जिंदगी तेरा हक नहीं हूँ मैं |
बेखुदी में तपिश ये आलम है
वो खुदा है तो खुद नहीं हूँ मैं |
मेरे काव्य संग्रह ---कनक ---से
Added by jagdishtapish on August 28, 2010 at 10:17am —
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► Photography by : Jogendra Singh ( all the photographs in this picture are taken by me ) ©
::::: हाँ बूढा हूँ, पर अकेला नहीं ::::: © (मेरी नयी कविता)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 27 अगस्त 2010 )
Note :- ऊपर एक पंक्ति चित्र के नीचे दब गयी है उसे यहाँ पूरा लिखे दे रहा हूँ ►
►►►
"क्षितिज रेखा से झाँकना सूरज का ...
छिटका रहा है सूरज ...
रक्तिम बसंती आभा ..."
►►► शब्द सुधार --> गदर्भ =…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on August 27, 2010 at 10:00pm —
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सुना है
सभ्यता सबसे पहले
यहीं आई,
पड़ी है अब खंडहरों सी
पिछवाड़े में जमीन्दोस है
खुदाई में दिखती है
शर्म खरपतवार सी
बेशर्मी की
हरीभरी क्यारियों में
अपने वजूद को रोती है
इंसानियत
चेहरों की हवाइयों सी उड़
उलटी जा लटकी
अँधेरी सुरंग में
सच तो अब
पन्नो में ही पलता है
इंसान
मरने से पहले
जिन्दा जलता है
रिअलिटी का तो अब,
सिर्फ शो होता है
परिवार तो
हम और
हमारे दो होता है
मातृत्व…
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Added by Narendra Vyas on August 27, 2010 at 8:30pm —
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▬► Photography by : Jogendrs Singh ©
::::: अंकुरण ::::: Copyright © (मेरी नयी कविता)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )
(सामान्य जीवन में अच्छे या बुरे का चरम बहुधा नहीं हुआ करता है.. परन्तु यह भी तो देखिये कि यहाँ मानव मन को अभिव्यक्त किया गया है, जिसकी सोचों का कोई पारावार नहीं होता.. जितना सोच जाये वही कम है.. सीमा बंधन सोचों के लिए बने ही नहीं हैं.. फिर लिखते वक्त मेरे मन में अपने मित्र सी हुई बातचीत थी…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on August 26, 2010 at 11:00pm —
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▬► Photography by : Jogendrs Singh ©
► NOTE :- उपरोक्त दोनों चित्र मुंबई के भाईंदर ईलाके में "केशव-सृष्टि" नामक जगह का है..!!
::::: आजकल खयाल ::::: © (मेरी नयी कविता)
जोगेंद्र सिंह Jogendra Singh ( 10 अगस्त 2010 )
► NOTE :- कृपया झूठी तारीफ कभी ना करिए.. यदि कुछ पसंद नहीं आया हो तो Please साफ़ बता दीजियेगा.. मुझे अच्छा ही लगेगा..
▬► !!..धन्यवाद..!!
(इस कविता की प्रथम दो पंक्तियाँ मेरे मित्र सोहन से…
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Added by Jogendra Singh जोगेन्द्र सिंह on August 26, 2010 at 11:00pm —
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गीत:
आराम चाहिए...
संजीव 'सलिल'
*
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
प्रजातंत्र के बादशाह हम,
शाहों में भी शहंशाह हम.
दुष्कर्मों से काले चेहरे
करते खुद पर वाह-वाह हम.
सेवा तज मेवा के पीछे-
दौड़ें, ऊँचा दाम चाहिए.
हम भारत के जन-प्रतिनिधि हैं
हमको हर आराम चाहिए.....
*
पुरखे श्रमिक-किसान रहे हैं,
मेहनतकश इन्सान रहे हैं.
हम तिकड़मी,घोर छल-छंदी-
धन-दौलत अरमान रहे…
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Added by sanjiv verma 'salil' on August 26, 2010 at 9:52pm —
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मित्रों .....
मैं कई दिनों से नहीं हंसा हू ...
हँसना चाहता हू
पूरे शरीर की ताजगी के लिए
लाफ्टर क्लब ज्वाइन किया
कोई फायदा नहीं हुआ ॥
कोई क्यों हंसेगा ......
सांसदों के वेतन तीन गुना हो जाने पर
रास्ट्र्मंडल खेलों की बदहाली पर
महिला आरक्षण बिल पास न होने पर
अभिनेत्रियो के बिकनी क्विन बनने पर
बाप -बेटे के साथ पीने पर
ट्रेन के आमने -सामने टक्कर हो जाने पर
कसाब /अफजल को अभी तक फांसी न होने पर
पाकिस्तान को बाढ़ मदद के ५० लाख…
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Added by baban pandey on August 26, 2010 at 6:21pm —
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हाय रे मदिरा हाय रे - हाय रे मधुशाला ,
तेरे चाह में पड़ कर हमने ये क्या कर डाला ,
घर में बच्चे भूखे सो गए चल रहा हैं प्याला ,
हाय रे मदिरा हाय रे - हाय रे मधुशाला ,
रोज कमाए रोज उड़ाये खाली हाथ घर को जाये ,
बीबी जब कुछ पूछे तो भईया जोर का चाटा खाये ,
सिलसिला यह चल रहा हैं नहीं अब रुकने वाला ,
हाय रे मदिरा हाय रे - हाय रे मधुशाला ,
दोस्तों की दोस्ती से यारो है यह शुरू होती ,
शौक से आगे बढती फिर आदत का रुप यह लेती ,
क्या बतलाऊ इसने तो…
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Added by Rash Bihari Ravi on August 26, 2010 at 4:00pm —
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रह कर भी साथ तेरे तुझ से अलग रहे हैं
कुछ वो समझ रहे थे कुछ हम समझ रहे हैं |
एक वक़्त था गुलों से कतरा के हम भी गुजरे
एक वक़्त है काँटों से हम खुद उलझ रहे हैं |
चाहत की धूप में जो कल सर के बल खड़े थे
मखमल की दूब पर भी अब पांव जल रहे हैं |
उठता हुआ जनाजा देखा वफ़ा का जिस दम
दुश्मन तो रोये लेकिन कुछ दोस्त हंस रहे हैं |
मेरा नाम दीवारों पे लिख लिख के मिटाते हैं
बच्चों की तरह बूढे ये चाल चल रहे हैं…
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Added by jagdishtapish on August 26, 2010 at 9:35am —
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निर्झर
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पर्वत के शिखर की
उतुन्गता से उपजे
शुभ्र,धवल
निर्झर से तुम
कटीली उलझी राहों
अवरोधों को अनदेखा कर
कल कल करते
गुनगुनाते
सम गति से चलते
अपनी राह बनाते जाना
गतिशीलता धर्म तुम्हारा
रुकने झुकना
नहीं कर्म तुम्हारा
प्रशस्त राहों के रही
बनाना है तुम्हे
अंधियारे मैं
दीप सा
जलते रहना
रजनी छाबरा
Added by rajni chhabra on August 26, 2010 at 12:30am —
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प्लेविन एक ऐसा सपना ,
जो सपने चकनाचूर करे ,
इंसान को इंसान ना रहने दे ,
गलती को मजबूर करे ,
जो लेकर आये,
वो कभी वापस ना जाये ,
जो गए उसे पाने के लिए,
और लगाये और लगाये,
दिन पर दिन फटहाली,
और कंगाली छाये ,
जो इसके चक्कर में पड़े,
वो कही का ना रहे,
काम में भी मन न लगे,
अपनों से भी दूर करे ,
दोस्तों आप से गुजारिश हैं ,
सपने देखो मगर ऐसा नहीं,
चलो आप एक काम करो,
हर एक से ये बात कहो ,
उस प्लेविन से मुख…
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Added by Rash Bihari Ravi on August 25, 2010 at 6:00pm —
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धन्य हो प्रभु चिदंबरम ,
धन्य है आपकी सोच ,
जल रहा सारा भारत ,
आपका यही हैं खोज ,
कश्मीर से कन्याकुमारी तक ,
लोग जर्जर करते आज ,
आपको केवल दिख रहा हैं ,
भगवा आतंकबाद ,
धन्य हो प्रभु चिदंबरम ,
धन्य है आपकी सोच ,
आपको कुछ नहीं देखना चाहते ,
या आपको कुछ नहीं हैं याद,
अफजल गुरु मेहमान बना हैं ,
कसाब मुफ्त का खा रहा हैं
कानून बनावो सीधे फासी ,
चाहे कोई हो आतंकबादी ,
आप हो हमारे गृहमंत्री ,
लावो खुद में ओज ,
धन्य…
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Added by Rash Bihari Ravi on August 25, 2010 at 3:36pm —
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मैं बांधना चाहता हूँ राखी
आज रक्षा-बंधन के त्यौहार
हाथ में लिए फूलों का हार
बिटिया, राखी तुम्हारी कलाई
तुम्हे कृतज्ञता -वश......
जब-जब भी मुझे खांसी आई
या थोडा सा जुकाम हुआ.....
फोन की घंटी घड़-घ|ने लगती है ...
पापाजी कैसे हैं ? मम्मी!
जल्दी बताओ ! मेरा दिल डूबा जा रहा है ,
क्यों कि रात के अंतिम प्रहर में ,
मैंने एक सपना देखा है ....
पापाजी बीमार हैं
कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा है ....
Added by chetan prakash on August 24, 2010 at 9:30pm —
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राखी आकर चली गई ,
कही मस्ती छाई ,
चली खूब मिठाई ,
बहना ने भाई की ,
कलाई पे बांधी !!
कहीं ये ख़ुशी दे गई ,
और कही गम का गुबार
देकर चली गई !!
अब एक दो रूपये में ,
राखी मिलती नहीं ,
दुखहरण के बेटी बुधिया के पास ,
चावल खरीदने के बाद,
पांच रुपये का सिक्का बचा ,
दाल की जगह ,
खरीद ली राखी ,
मिठाई के नाम पर ,
लिया बताशा
बाह रे दुनिया वाले ,
कैसा अजब तमाशा ,
तेरी कुदरत
कहीं हंसा गई
कहीं…
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Added by Rash Bihari Ravi on August 24, 2010 at 3:00pm —
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Added by Rana Pratap Singh on August 24, 2010 at 10:00am —
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