सामान्यतया अहिंसा का अर्थ कायरता से लगाया जाता है..जबकि अहिंसा का वास्तविक अर्थ होता है निडरता | दूसरे अर्थों में कहूँ तो 'अभय', जो भयजदा नहीं हो और ये ही निडरता ही नैतिकता का सबसे महत्वपूर्ण बिंदु है. इंसान का निडर होना उसका सबसे अहम् गुण होता है. निडर और अभय व्यक्ति ही स्वतंत्र हो सकता है. हिंसक व्यक्ति सदा स्वयं को असुरक्षित और तनावग्रस्त महसूस करते हैं, साथ ही अप्रिय भी होते हैं। भगत सिंह और सुभाष चन्द्र बोस हिंसावादी नहीं थे..निडर थे..अभय थे..अपने आपको कभी परतंत्र नहीं समझा और इसी विचार को उन्होंने अपने ढंग से क्रियान्वित किया. परतंत्र और भयभीत इंसान अहिंसा का पालन नहीं कर सकता. क्योंकि जिसके पैरों में बेड़ियाँ पड़ी हों, वह स्वतंत्र कैसे हो सकता है | हिंसा तो कोई भी कर सकता है..लेकिन अहिंसा ही वीरों की शोभा होती है और कायर पुरुषों से दूर ही भागती है. भगवान श्री कृष्ण गीता के 16वेंअध्याय में अहिंसा को दैवीय गुण बताते हैं और दूसरों को चोट पहुंचाने वाले अर्थात हिंसक व्यक्ति को राक्षस बताते हैं। एक व्यक्ति सभ्य और सुसंस्कृत तभी कहलाता है, जब तक वह मन, वचन और कर्म से किसी भी व्यक्ति के प्रति हिंसा न करता हो और दूसरों के दुख के प्रति संवेदनशील हो।इसका मतलब ये नहीं की हम अत्याचार सहन करते रहें.. गाँधी जी ने इस शक्ति को पहचाना और अपने जीवन में आत्मसात भी किया.
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अहिंसा को गलत अर्थों में लिया जा रहा है.. इस वक्तव्य को मैं इस प्रसंग से कहूँगा कि...एक बार भगवान बुद्ध ने अपने भिक्षुओं को उपदेश देते हुए कहा कि भिक्षा पात्र में जो कुछ प्राप्त हो जाए, वही ग्रहण कर लेना चाहिए। दैवयोग से एक दिन एक भिक्षु के पात्र में चील ने एक मांस का टुकड़ा डाल दिया। इस पर भिक्षु ने भगवान बुद्ध से पूछा, तो भगवान बुद्ध ने सामान्य भाव से कह दिया कि इसे ग्रहण कर लीजिए। परंतु इस का परिणाम भविष्य में यह हुआ कि लोग भगवान बुद्ध के उस वाक्य को पकड़कर मांसाहार करने लगे..|
महाभारत युद्ध के आरंभ में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को युद्ध हेतु प्रेरित करने के लिए उपदेश देते हैं। भगवान श्रीकृष्ण की दृष्टि में अहिंसा का अर्थ है जिस पुरुष के अन्त:करण में 'मैं कर्ता हूं' ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थ और कर्म में लिप्त नहीं होती है, वह पुरुष सब लोगों को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न ही पाप से बंधता है। मानसकार कहते हैं कि आततायियों को दंड देने के लिए जिनके हाथ में धनुष और बाण हैं, ऐसे प्रभु श्री राम की वंदना करता हूं। भगवान यज्ञ की रक्षा करने के लिए ताड़का को मारना भी उचित समझते हैं। भक्तों की रक्षा के लिए मेघनाद के यज्ञ के विध्वंस का आदेश देते हैं। योग की संस्कृति को स्थापित करने के लिए लाखों राक्षसों के संहार को भी उचित मानते हैं। यह है अहिंसा का यथार्थ स्वरूप।
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