For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (18,988)

राज़ दिल का छुपाया बहुत है

राज़ दिल का छुपाया बहुत है

आंसुओं को सुखाया बहुत है



मै समझता था जिसको शनासा

आज वो ही पराया बहुत है



मैंने जिसको हसाया बहुत था

उसने मुझको रुलाया बहुत है



अब कोई और खेले न दिल से

ये किसी ने सताया बहुत है



कर चला है वो नाराज़ मुझको

मैंने जिसको मनाया बहुत है



उसके लफ्जों में हूँ आज भी मै

वैसे उसने भुलाया बहुत है



तेरी संजीदगी कह रही है

तू कभी मुस्कुराया बहुत है



क्या हुआ जो समर अब नहीं… Continue

Added by Hilal Badayuni on October 7, 2010 at 11:05pm — 8 Comments

सब के रब !दूर हर इक मन का धुंधलका करदे

सब के रब !दूर हर इक मन का धुंधलका करदे

आईने पर है जमी धुल जो सफा कर दे

नफस में कीना है ; सीने में है जलन नफरत ;

इन आफतों को क्रीम मौला तू दफा कर दे ..

नफस बीमार है चंगा तो बशर दीखता है ;

तू नफस और बशर दोनों को चंगा कर दे

अपने ही हाथों से कर डालें ना खुद को घायल ;

तू भले और बुरे से हमें आगाह कर दे

बन के मजनूं न फिरे कोई जख्म न खाए ;

सब कि आगोश में तौफीक की लैला कर दे

खुद से बेगाना हुआ फिरता है जो ,तू खुद ही ;

उन को खुद से मिला कर के तू… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 10:43pm — No Comments

हाँ मै ने भी किया है प्रेम

हाँ मै ने भी किया है प्रेम, मै ने भी पिया है प्रेम रस ;

मेरी प्रेयसी नित नूतन सद सनातन ;किन्तु पुरातन

कोमल भाव की सरस सरिता ,निज चेतना निज प्रेयसी .

मंथर कभी तीर्व कभी ,होती है चंचल सी गति .

निज प्रेयसी निज चेतना ;

प्रथम प्रेम का प्रथम पल्लव ,पल्लवित कुसमित प्रेम अविलम्बित .

निज धारणा निज चेतना ,प्रखर गुंजन से गुंजित ,

वल्लरी प्रेम कुसुम सुरभित ,अमर प्रेम की सी थाती .

प्रेम दीप की वो बाती;निज चेतना प्रिय… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:09pm — No Comments

भ्रमर

भ्रमर
मेरा मन
पतंगे सा कोमल
भ्रमर सा चंचल
अस्थिर
पारे सम
कोशिश करे
कैद करने की
इस मन को तेरा मन
पर
पारे सम
मेरा मन
न हो सके गा स्थिर
न ही
बंदी बन पाए गा कभी
जैसे कि भ्रमर
किसी उपवन का
----
यह भ्रमर नहीं है उपवन का
भ्रमर है ये मेरे मन का
स्वछन्द
हवा सम
स्व्त्न्त्त्र रहेगा यह
---
दीप जीर्वी

Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:06pm — 1 Comment

मैं तुझे ओढ़ता बिछाता रहू

मैं तुझे ओढ़ता बिछाता रहू
तुम से तुम को सनम चुराता रहू .
तू मेरी ज़िन्दगी है जान.ए.गज़ल
ज़िन्दगी भर तुझे ही गाता रहू.
तुम यूँही मेरे साथ साथ चलो ,
मैं जमाने के नभ पे छाता रहू .
गुल जो पूछे कि महक कैसी कहो?
तेरी खुशबु से मैं मिलाता रहू .
ऐ मुहब्बत नगर की देवी सुनो ,
तेरे दर पर दीप इक जलाता रहू
दीप जीर्वी

Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:05pm — 1 Comment

कविता: घास

घास कहीं भी उग आती है

जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,

इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,

इतनी बेइज्जती की जाती है;



घास का कसूर ये है

कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है

इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए

मुहावरे तक बना दिये गए हैं

कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं

वो घास छील रहा है;



जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी

उगना बन्द कर देगी

और लोगों को अपने हिस्से का खाना

जानवरों को देना पड़ेगा

अपने बच्चों को दूध पिलाने के… Continue

Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 7, 2010 at 8:00pm — 2 Comments

फुलेनवा ,

फुलेनवा ,

आज मेरा मन द्वन्द में भटक रहा था ,

करे या ना करे इसी पे अटक रहा था ,

कारन फुलेनवा के घर में था ,

और सामने पानी और मिठाई पड़ा था ,

आज कोल्कता में मैं हु ये भी हैं ,

आज से पैतीस साल पहले की घटना ,

मेरे मानस पटल में चमक रहा था ,

फुलेना खेतो में हल चलते थे ,

और हम भी बाबु जी के साथ ,

उन्हें खाना खिलने जाते थे ,

उनके साथ बैठ कर मैं खाने लगता ,

और ओ कहते बाबु हम अछुत हैं ,

मैं हसता और बस खाया करता ,

और आज उनके ही हाथ के… Continue

Added by Rash Bihari Ravi on October 7, 2010 at 6:30pm — No Comments

दीया

एक दिन बिजली के जाने पर

ढूंढ रहा था

प्रकाश का साधन

करने को

तमस निस्तारण

तभी हाथों से

कोई चीज टकराई

देखा

पुराना दीया

जिस पर हरा काला

मैल बैठा हुआ

झंकृत कर गया मुझे

याद मेरे बचपन का

इसी दीये तले

पाया ज्ञान का प्रकाश

मैं क्या

मुझसे भी पहले

औरों ने भी इसी दीये

के आँचल तले

आँखों को काले धुँए में

झोंकते हुए

पाया अपने लक्ष्य को

वही दीया न… Continue

Added by Shashi Ranjan Mishra on October 7, 2010 at 4:35pm — 7 Comments

सब भर जाएगा



सब भर जाएगा !





रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो



छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें



कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे



माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता



मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह



और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर



अंतहीन बढ़ते कदम



रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर



तुम चलते कहाँ… Continue

Added by Aparna Bhatnagar on October 7, 2010 at 7:00am — 4 Comments

पंखियों को उड़ने दो ,

पंखियों को उड़ने दो ,

पानीओं को बहने दो ,

आंसुओं को कहने दो ,

कहने दो कोई कथा

अवयस्क कोई व्यथा

पीर किसी नांव की

पीर किसी ठांव की

पीर किसी नांव की

पीर किसी ठांव की

ओढते बिछाते हुए

दर्द को सुनाते हुए

कसमसा कसमसा

अश्रु है कोई रुका

अश्रु वो न बहने दो

बात कोई कहने दो

----------------

भूख की आ बात कर

प्यास के आ गीत गा

ख़ाली ख़ाली हाथ हैं तो

कुछ तू कह कुछ सुन आ

बीती बात भूख हो

घिसा सा गीत प्यास… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:30pm — 1 Comment

तुम हम से मिले हो तो मिल के ही चले चलना ;

तुम हम से मिले हो तो मिल के ही चले चलना ;
मेरे साथ साथ उगना मेरे साथ साथ ढलना .

मेरी बांसुरी मनोहर ,मनमीत मेरी श्यामा ;
मेरे श्वास श्वास लेकर बन रागनी मचलना .

पग बांध अपने नूपुर मृग नयनी चली आओ ;
आ झुलाओ अपने पी को तेरे प्रेम का ये पलना .

ओ रागनी मनोहर ,ओ दामनी ओ चपला ;
तेरे केश मेघ काले तेरा मुखड़ा चाँद-ललना.

घनघोर काली रैना में मधुर तेरे बैना;
मनमोर नाचते हैं तेरी ताल न बदलना . 
DEEPZIRVI9815524600

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:03pm — 1 Comment

ज़िन्दगी, बज्म तुम्हारी सजाने आये हैं .

ज़िन्दगी, बज्म तुम्हारी सजाने आये हैं .

किया था वादा वही तो निभाने आये हैं .

दरीचे खोल के बैठो हवा से बात करो ;

वस्ल के नामे अजी लो सुहाने आये हैं .

कभी भी आरजुओं को फरेब मत देना ;

फकीर रमता ये ही तो बताने आये हैं .

कभी कंगाली थी तेरे दीदार की छाई ;

तुम्हारे वस्ल के देखो खजाने आये हैं .

गई वो रात, अजी दिन सुहाने आये हैं.

सुहानी दीद के देखो बहाने आये हैं.

वस्ल की रात में जिसको जलाया जाता है ;

वही तो दीप जी हम भी जलाने आये हैं

दीप… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:02pm — No Comments

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..

ये भी मैं हूँ वो भी मैं ही ..

एक बूँद गिरी पर गिरे कभी जो मैं ही हूँ .

एक बूँद धरा पर गिरी कभी जो मैं ही हूँ .

एक बूँद अरिहंता बन गिरी समर-आँगन में ,

एक बूँद किसी घर गिरी नवोढा नयनन से ,

एक बूँद कही पर चली श्यामल गगनन से '

एक बूँद कहीं पर मिली सागर प्रियतम से ,

वो बूँद बनी हलाहल जानो मैं ही हूँ ,

वो बूँद बनी जो सागर जानो मैं ही हूँ,

वो बूँद बनी पावन तन जानो मैं ही था ,

वो बूँद बनी प्यासा मन जानो मै ही हूँ .

हर बूँद बूँद में व्यापक व्याप्त… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:00pm — 1 Comment

हम बोलेगा तो बोलोगे की बोलता है .

साबरमती के संत, बोले तो अपने बापू , हाँ बाबा वही एक लाठी एक लंगोटी वाले, वोही मोहनदास करमचन्द गांधी , अब ठीक पहचाना आपने । वोही जिनके बारे ये कहा जाता है कि उनकी ३० जनवरी १९४८ को हत्या कर दी गयी थी वही बापू गांघी आज कल नोटों पर आसन जमाए दिखते हैं । उन की लीला अपरम्पार है । आज सरकारी दफ्तरों वाले १०० प्रतिशत गांधी वादी हो गये हैं ।

जिन का दांव नही लगता वो इमानदारी का दावा करते हैं अन्यथा सदाचार एवम ईमानदारी उसी के जिस का दांव नही लगता ।

सरकारी दफ्तरों में तो पाषाण से पाषाण ह्रदय भरे… Continue

Added by DEEP ZIRVI on October 6, 2010 at 8:00pm — 1 Comment

क्यूं है !

सबके होते हुए वीरान मेरा घर क्यूं है,

इक ख़मोशी भरी गुफ़्तार यहां पर क्यूं है !



एक से एक है बढ़कर यहां फ़ातेह मौजूद,

तू समझता भला ख़ुद ही को सिकन्दर क्यूं है !



वो तेरे दिल में भी रहता है मेरे दिल में भी,

फिर ज़मीं पर कहीं मस्जिद कहीं मन्दर क्यूं है !



सब के होटों पे मुहब्बत के तराने हैं रवाँ,

पर नज़र आ रहा हर हाथ में ख़न्जर क्यूं है !



क्यूं हर इक चेहरे पे है कर्ब की ख़ामोश लकीर,

आंसुओं का यहां आंखों में समन्दर क्यूं है !



तू… Continue

Added by moin shamsi on October 6, 2010 at 5:44pm — 3 Comments

ग़ज़ल:इतना गुलज़ार सा..

इस टिप्पणी के साथ कि चाहें तो इसे अ-कविता की तरह अ-ग़ज़ल मान लें-



इतना गुलज़ार सा जेलर का ये दफ्तर क्यूं है,

आरोपी छूट गया और गवाह अन्दर क्यूं है.



सुलह को मिल रहें हैं मौलवी और पंडित भी ,

सियासी पार्टियों में भेद परस्पर क्यूं है.



अगर गुडगाँव नोयडा हैं सच ज़माने के ,

कहीं संथालपरगना कहीं बस्तर क्यूं है.



रंग केसर के जहां बिखरे हुए थे कल तक ,

उन्हीं खेतों में आज फ़ौज का बंकर क्यूं है.



जबकि बेटों के लिए कोई नहीं है… Continue

Added by Abhinav Arun on October 6, 2010 at 4:00pm — 5 Comments

विजय-गीत

देखो पुकार कर कहता है

भारत माँ का कण-कण, जन जन

हम बने विजय के अग्रदूत

भारत माँ के सच्चे सपूत...



हम बढ़ें अमरता बुला रही...

यश वैभव का पथ दिखा रही ...

यश-धर्म वहीँ है, विजय वहीँ..

जिस पल जीवन से मोह नहीं

आसक्ति अशक्त बनाती है ...

यश के पथ से भटकाती है ...

जो मरने से डर जाता है...

वह पहले ही मर जाता है ...



हम पहन चलें फिर विजयमाल,

रोली अक्षत से सजा भाल...

हम बनें विजय के अग्रदूत...

भारत माँ के सच्चे…
Continue

Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 6, 2010 at 9:11am — 1 Comment

हम कलम को फ़ेंक के तलवार भी ले सकते है

कमज़र्फ़

तू हमारी वजह से ही साहिब -ऐ -मसनद है आज
हम जो चाहें तेरी दस्तार भी ले सकते है
इम्तिहान -ऐ -सब्र मत ले खूगर -ऐ -ज़ुल्म -ओ -सितम
हम कलम को फ़ेंक के तलवार भी ले सकते है

उरूज

दुनिया वाले कह रहे है साजिशों से पायी है
हमने ये जिंदा दिली तो ख्वाहिशों से पाई है
कामयाबी पर हमारी जल रहा है क्यों जहाँ
कामयाबी हमने अपनी काविशों से पायी है

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:30pm — 3 Comments

हम तुमसे मिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद ,



दर्द



आँखों पे जब से पड़ गयीं नज़रें फरेब की

आंसू हमारे और भी नमकीन हो गए

तुमने हमारे दर्द की लज्ज़त नहीं चखी

जिसने चखी वो दर्द के शौक़ीन हो गए



मुलाक़ात



हम तुमसे मिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद ,

दो फूल खिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद .

जुम्बिश हुई लबो को तो महसूस ये हुआ ,

ये होंठ हिल रहे है बड़ी मुद्दतो के बाद



अपनी माटी



हर इक इंसान को करना चाहिए सम्मान मिटटी…
Continue

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:30pm — 7 Comments

मेरे पांच क़तात

तन्हा सफ़र



दिन मुसीबत के टल नहीं सकते ,



हम भी किस्मत बदल नहीं सकते .



हम तखय्युल को साथ रखते है ,



तुम तो हमराह चल नहीं सकते :





अर्ज़-ऐ-हाल



हम अपनी जान किसी पर निसार कैसे करें ,



तुझे भुला के किसी और से प्यार कैसे करें .



तेरे बिछड़ने से दुनिया उजाड़ गयी दिल की ,



इस उजड़े दिल को अब हम खुशगवार कैसे करें .





जदीदियत



ख्याल उठने से पहले ही सो गए होंगे ,



कुछ अपने… Continue

Added by Hilal Badayuni on October 5, 2010 at 10:05pm — 2 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
6 hours ago
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
12 hours ago
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
12 hours ago
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
yesterday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
yesterday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Saturday
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Saturday
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Saturday
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"धन्यवाद आ. चेतन जी"
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Saturday
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बधाई स्वीकार करें आदरणीय अच्छी ग़ज़ल हुई गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतरीन हो जायेगी"
Saturday

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service