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ग़ज़ल : "खामोशियों से लब को बचाता हूँ मैं"

अश्क आँखों में लेकर मुस्कुराता हूँ मैं.
गीत बहारों का पतझड़ में गाता हूँ मैं.

उठ गया है यकीं अब किनारों से मेरा,
मझधार में अपनी कश्ती लगाता हूँ मैं.

राहों से गुम होने लगे है दरख्तों के साए,
धुप को ही सेहरा सर का बनाता हूँ मैं.

नहीं छोड़ा शराफत ने मुझको कही का,
रस्म उल्फत का फिर भी निभाता हूँ मैं.

दूर तलक नहीं दिखते है खुशिओं के बादल,
गम से ही अपने दिल को बहलाता हूँ मैं.

"नूरैन" आबो हवा है ज़माने का मेरे खिलाफ,
फिर भी खामोशियों से लब को बचाता हूँ मैं.

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Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on October 11, 2010 at 10:19am
बहुत खूब नूरैन साहब, अच्छे ख्यालात है , बहुत बढ़िया , आगे भी आप की उपस्थिति का इन्तजार रहेगा,

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Rana Pratap Singh on October 8, 2010 at 8:55pm
जनाब नुरैन अंसारी साहब
ख्याल बेहतरीन हैं, बहर की समस्या के अतिरिक्त एक दो जगह लिंग भी परिवर्तित हो गया है, आपकी नज़रेसानी की दरकार है|

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