त्यागपत्र (कहानी)
लेखक - सतीश मापतपुरी
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------------- अंक - 10 (अंतिम अंक) --------------
सुबह के तीन बजे रंजन की स्थिति में कुछ -कुछ सुधार होने लगा. ईलाज में लगे डॉक्टरों को थोड़ी सी राहत मिली. बेटे की हालत में सुधार देखकर प्रबल बाबू ने आँखें बंद कर उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया,…
ContinueAdded by satish mapatpuri on December 6, 2011 at 8:30pm — 2 Comments
संसद की सब कुर्सियां, पूछ रही ये बात.
Added by AVINASH S BAGDE on December 6, 2011 at 8:00pm — 1 Comment
अलका जी का रंगमंच जिसे आज भारत का आधुनिक रंगमंच के नाम से जाना जाता है वह एक सूट बूट में अन्दर से धोती कुरता वाला भारतीय है वह कुलबुला रहा है बाहर आने के लिए. सभ्यता और संस्कृति की लड़ाई में संस्कृति दब रही है और जो सभ्य है उन्हें धोती के ऊपर सूट नहीं पसंद वह सीधे सूट को पसंद करेगा और अंग्रेजी नाटक की और जायेगा इसमें उसकी कोई गलती नहीं ह्हिंदी रंगमंच इस का शिकार है . दर्शको से उसका सम्बन्ध नहीं बन प् रहा…
ContinueAdded by sitaram singh on December 6, 2011 at 1:44pm — No Comments
हिंदी रंगमंच की शुरुआत दो तरह से हुई, एक पारंपरिक तरीके से और दूसरा अंग्रेजो की नक़ल से पारंपरिक तरीके से उगे रंगमंच को लोकमंच का नाम मिला और दुसरे को आजकल की भाषा में रंगमंच बोलते है |
अंग्रेजो को गर्मी में भी भारत में रखने के लिए अंग्रेजी रंगमंच को भारत बुलाया जाता था इसी के जवाब में भारतीयता से लोटपोट पारसी थियेटर का जनम हुआ जो धीरे धीरे अपना स्वरुप बदलता हुआ आज का रंगमंच बना | ज्यादा इतिहास में जाये तो आधुनिक रंगमंच का जनक इब्राहीम अलका जी को माना जा सकता है | जवाहर लाल जी इनसे…
ContinueAdded by sitaram singh on December 6, 2011 at 12:00pm — 2 Comments
Added by rajkumar sahu on December 6, 2011 at 12:17am — 2 Comments
क्षणिकाएँ
Added by AVINASH S BAGDE on December 5, 2011 at 8:00pm — 8 Comments
Added by satish mapatpuri on December 5, 2011 at 5:00pm — 4 Comments
आज भी मैं वही फूल हूँ ,
जो कल था खिला हुआ ,
था आँखों का तारा ,
था हर एक से घिरा हुआ ,
हर कोई चाहे लेना ,
मुझे हाथों हाथों में ,
मैं खुश यूँ ही होता रहा ,
उनकी प्यारी बातों में ,
कोई चाहे रहूँ मैं ,
देवों का होकर ,
कोई चाहे प्रियतम का हार बनूँ ,
पता नहीं कब फिसल गया ,
सब की नज़र से उतर गया ,
अब वो चमक नहीं रही ,
धुल धूसरित मैं पड़ा रहा ,
अपने विमुख हुए हमसे…
ContinueAdded by Rash Bihari Ravi on December 5, 2011 at 11:30am — 4 Comments
प्यारे दोस्तो "दैनिक जागरण" ने "मेरा शहर मेरा गीत" आयोजन हेतु मेरा यानि कि आपके दोस्त सुमित प्रताप सिंह का गीत "कुछ ख़ास है मेरी दिल्ली में" का शीर्ष 3 स्थान (TOP 3) पर चयन किया है| इस गीत को प्रथम स्थान पर चयन हेतु SMS वोटिंग प्रक्रिया से गुजरना है| आपसे निवेदन है कि कृपया मेरे इस गीत को प्रथम स्थान दिलाने हेतु वोट…
ContinueAdded by SUMIT PRATAP SINGH on December 5, 2011 at 11:00am — No Comments
केन्द्र में सत्ता पर बैठी कांग्रेसनीत यूपीए सरकार चाहे जितनी अपनी पीठ थपथपा ले, लेकिन महंगाई व भ्रष्टाचार के कारण सरकार जनता की अदालत में पूरी तरह कटघरे में खड़ी है। ठीक है, अभी लोकसभा चुनाव को ढाई से तीन साल शेष है, किन्तु सरकार को जनता विरोधी कार्य करने से बाज आना चाहिए। महंगाई ने तो पहले ही लोगों की कमर तोड़कर रख दी थी। फिर भी सरकार का रवैया नकारात्मक ही रहा और महंगाई की मार कम हो ही नहीं रही है। सरकार में बैठे सत्ता के मद में चूर कारिंदों के ऐसे बयान आते रहे, जिससे महंगाई नई उंचाईयां छूती…
ContinueAdded by rajkumar sahu on December 5, 2011 at 1:31am — No Comments
आज अचानक मिला मुझे एक दोस्त पुराना
नई राह पर,
हाँथ मिलाया, गले मिले फिर
एक दूजे का हाल सुना,
कुछ मौसम की बात हुई
कुछ अपने परिवारों की
आहिस्ते-आहिस्ते जो अब टूट रहे है,
उन रिश्तों का जिक्र हुआ
जो अर्थहीन होने वाले है,
और कुछ खुशियों की बात हुई,
फिर उसने मुझसे पूछ लिया
"क्या अब भी लिखते हो" ?
मै चुप था
सोच रहा था सच न बताऊँ,
और नहीं बताया !
कैसे कहता ?
मन में बनते गीत दबा…
ContinueAdded by Arun Sri on December 4, 2011 at 1:41pm — 3 Comments
किसे नहीं अच्छे लगते
वफादार कुत्ते?
जो तलवे चाटते रहें
और हर अनजान आदमी से
कोठी और कोठी मालिक की रक्षा करते रहें
ऐसे कुत्ते जो मालिक का हर कुकर्म देख तो सकें
मगर किसी को कुछ बता न सकें
जो मालिक की ही आज्ञा से
उठें, बैठें, सोएँ, जागें, खाएँ, पिएँ और भौंकें
ऐसे ही कुत्तों को खाने के लिए मिलता है
बिस्किट और माँस
रहने के लिए मिलती हैं
बड़ी बड़ी कोठियाँ
और मिलती है
अच्छे से अच्छे नस्ल की कुतिया
और जब…
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on December 4, 2011 at 1:11am — 2 Comments
‘क्या ठाकुर साहिब, आपने महरी के लड़के को कालेज पूरा करते ही नौकरी लगवाकर शहर भेज दिया !’
‘तू नहीं समझेगा छगन, अगर वो गांव में रहता तो अपने साथियों को भी पढ़ाता और प्रेरित करता और वो हमारे घरों का काम न करते।’ ठाकुर साहिब के चेहरे पर कुटिल मुस्कान थी।
Added by Ravi Prabhakar on December 2, 2011 at 7:30pm — 3 Comments
दुनिया को दुनिया क्यों कहते हैं ?
इंसानों की दुकान क्यों नहीं कहते ?
जहाँ इंसान बिकते हैं..
बिकते हैं कुछ हो बेआबरू यहाँ, कुछ हैं जो होकर महान बिकते हैं..
देते हजारों को गुलामी ये जन ,खुदको शहंशाह मान बिकते हैं..
लो हो गयीं शख्सियतें कीमती, खरीदो ये महंगे सामान बिकते हैं..
हो गए हैं जिंदगी से खाली शायद, जिस्म बिकते हैं जैसे मकान बिकते हैं..
पूछा तो बोले इसमें शर्म कैसी, हमें फक्र है हम सीना तान बिकते हैं..
देखी जो जमीं की…
ContinueAdded by Bhasker Agrawal on December 2, 2011 at 4:00pm — 2 Comments
आये हैं सभी आज तो जाने के लिये,
ढूंढूं मैं किसे साथ निभाने के लिये.
तन्हाई भरे शोर ये कब तक मैं सुनूँ,
आ जाओ मुझे गीत सुनाने के लिये।
जल जल के मिरे दिल की ये शम्में हैं बुझी,
कोई भी नहीं फिर से जलाने के लिये।
जज़्बात की ये मौज उठी आज मुझे,
इक याद के दरिया में डुबाने के लिये।
सोये हैं वो 'इमरान' सुनाता है किसे,
चल हम भी चलें ख्वाब सजाने के लिये।
Added by इमरान खान on December 2, 2011 at 2:30pm — 4 Comments
इस दिल ने नादानी में
आग लगा दी पानी में ।
वा'दे सारे खाक हुए
आया मोड़ कहानी में ।
तेरी याद चली आए
है ये दोष निशानी में…
ContinueAdded by dilbag virk on December 1, 2011 at 4:30pm — 9 Comments
ये परवत और गगन शीश झुकायेंगे,
पर फैलाकर हम जब उड़ने जायेंगे.
हैं सब की दृष्टि में ही भले अधूरे हम,
किन्तु जग को हम सम्पूर्ण बनायेंगे.
लालच करने से हर काम बिगड़ता है,
काम क्रोध में पड़; इंसान झगड़ता है,
इच्छायें जिस दिन काबू हो जायेंगी,
वीर पुरुष उस दिन हम भी कहलायेंगे।
ये परवत और गगन शीश झुकायेंगे,
पर फैलाकर हम जब उड़ने जायेंगे.
बस दो पल का ही रंग रूप खिलौना है,
ये ढल जाता है रोना ही रोना…
ContinueAdded by इमरान खान on December 1, 2011 at 2:00pm — No Comments
तू कभी मुश्किलों से डरना मत
या मेरी राह से गुजरना मत
दर्द जीवन में मिले तो उसको
समेट लेना मगर बिखरना मत
सुलाया खंजरों के बिस्तर पर
और कहते है आह भरना मत
मैंने ये तो नही कहा तुमसे
न रहूँ मैं तो तुम संवारना मत
मै बहकने लगूं कभी भी अगर
तुमको मेरी कसम संभलना मत
आतिश-ए-इश्क से भरा हूँ मैं
मोम है तू मगर पिघलना मत
............................................ अरुन श्री !
Added by Arun Sri on December 1, 2011 at 12:48pm — 2 Comments
सुमन अपने सास को फोन कर रही थी तभी उसकी सहेली किरण वहाँ आ गई , सुमन उसे बैठने के लिए इशारा कर फोन पर बात करने लगी
"माँ जी, आप आ जाइये पप्पू रोज सुबह शाम आप को याद करता हैं .......
हाँ हाँ ! ये भी अपनी माँ को आपने पास पा कर बहुत खुश होंगे , ....
हाँ तो माँ जी आप कब आ रही हो ?
रविवार को ?
ठीक हैं माँ जी मैं इनको स्टेशन भेज दूंगी !"
चेहरे पर मुस्कान लिए फोन रख किरण से बोली
"कैसे आना हुआ ?"
किरण बोली
"तू आपने सास के आने पर…
ContinueAdded by Rash Bihari Ravi on December 1, 2011 at 12:30pm — 4 Comments
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