मुक्तिका:
यादों का दीप
संजीव 'सलिल'
*
हर स्मृति मन-मंदिर में यादों का दीप जलाती है.
पीर बिछुड़ने से उपजी जो उसे तनिक सहलाती है..
'आता हूँ' कह चला गया जो फिर न कभी भी आने को.
आये न आये, बात अजाने, उसको ले ही आती है..
सजल नयन हो, वाणी नम हो, कंठ रुद्ध हो जाता है.
भाव भंगिमा हर, उससे नैकट्य मात्र दिखलाती है..
आनी-जानी है दुनिया कोई न हमेशा साथ रहे.
फिर भी ''साथ सदा होंगे'' कह यह दुनिया भरमाती है..
दीप…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:08am —
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मुक्तिका
सदय हुए घन श्याम
संजीव 'सलिल'
*
सदय हुए घन-श्याम सलिल के भाग जगे.
तपती धरती तृप्त हुई, अनुराग पगे..
बेहतर कमतर बदतर किसको कौन कहे.
दिल की दुनिया में ना नाहक आग लगे..
किसको मानें गैर, पराया कहें किसे?
भोंक पीठ में छुरा, कह रहे त्याग सगे..
विमल वसन में मलिन मनस जननायक है.
न्याय तुला को थाम तौल सच, काग ठगे..
चाँद जुलाहे ने नभ की चादर बुनकर.
तारों के सलमे चुप रह बेदाग़…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 28, 2010 at 10:06am —
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सूरज ने फक्कड़ से कहा:
"मुझे झुक कर सलाम कर !"
"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"
"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"
"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"
"मगर क्यों ?"
"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"
"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"
"हाँ !"
"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"
"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम…
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Added by योगराज प्रभाकर on October 28, 2010 at 9:30am —
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नीरव-गुमसी चट्टानों पर
कटी-पिटी उभरी रेखाएँ
उन्मत्त काल का
हिंस्र वज्र-नख
जगह-जगह से नोंच गया है..।
अभिलाषा है कुछ विक्षिप्त
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
मसले थकुचे नुचे-चुथे से
स्वप्न बच गए जूठे-जूठे
धूसर उपलों की धूप तापती
विवश बिसुरती ध्वनि अकेली
अशक्त नव-जन्मी बाला-सी पसरी..
उठा सके बस भार श्वाँस का निश्चय का जी तोड़ परिश्रम..
कि,
मुँदी
उठी
झपकी
ठिठकी
रुक-ठहर
परख
तकती... .. तबतक…
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Added by Saurabh Pandey on October 28, 2010 at 6:00am —
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भूख करप्शन महंगाई बेकारी है
कैसी आगे बढ़ने की लाचारी है |
ट्यूशन के पैसे से पिक्चर देख रहे
अपने ही मुस्तकबिल से गद्दारी है |
वृद्धावस्था पेंशन पर दिन काट रही
बड़े हुए बच्चों की माँ बेचारी है |
काँटों का इक ताज सूली ले आओ
मेरी ईसा बनने की तैयारी है |
साठ साल से हरा भरा फल फूल नहीं
पौधे की जड़ में कोई बीमारी है |
आप कहाँ से इतनी खुशियाँ ले आये
क्या कुर्सी से आपकी रिश्तेदारी है |
किसे सफाई दे और किसका…
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Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:42pm —
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अग्नि की लौ में सिमटकर क्यों न एक दीपक बन जाऊं
तम प्रकाश की बनकर जली तम का नाम मिटाऊं ,,
जलकर खुद ही दूजों को , मैं रोशन कर जाऊं
छोड़ स्वार्थ परोपकार में,मैं अपना जीवन बिताऊं ,,
खुद के आभाव मिटा सकूँ न पर दूजों के आभाव मिटाऊं
जीता रहूँ दूजो के लिए , दूजों के लिए ही मर जाऊं ,,
ज्वाला है दीपक की रानी ,गीत ज्वाला के गाऊँ
गिने मुझे…
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Added by Ajay Singh on October 27, 2010 at 3:30pm —
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जो सहा वो कहा
मौन है ये ज़ुबां
दर्द की इन्तेहाँ |
एक कली गयी कहाँ
थक गया बाग़बां
हमसफ़र चल रहा
रास्ता जल रहा |
किसके हाथ असलहा
कौन हाँथ मल रहा
आज है कल कहाँ
आँख में जल कहाँ
हर तरफ प्यास है
गाँव में नल कहाँ |
योजना मृगतृष्णा
नैतिकता हे कृष्णा
ज़ोर ज़बर चल रहा
फैसला टल रहा
लाल सूर्य ढल रहा
गर्म ग्रह गल रहा |
एक सवाल है खड़ा
किससे कौन है बड़ा
गर्भ क्यों पल रहा
चल रही…
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Added by Abhinav Arun on October 27, 2010 at 3:00pm —
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था उसके चेहरे पे सकून ,
माँ का आया था फोन ,
पाँच सौ रुपया मिल गया ,
तीन सौ राशन वाले को दिया ,
बाकी में छोटे भाई का पैंट ,
संग में सिलवा दिया हैं शर्ट ,
आज स्कूल भेजा हैं उसको ,
खरीद कर दिया हैं स्लेट ,
भाई स्कूल गया ये जान कर ,
था उसके चेहरे पे सकून !
उम्र के दसवे साल में ,
काम करता चाय की दुकान में .
घर से दूर बहुत दूर ,
हो कर आया था मजबूर ,
सपना था कुछ आँखों में ,
बडपन थी उसकी बातो में ,
पापा के इंतकाल के…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 27, 2010 at 2:00pm —
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मैं दूर पहाड़ों से आया
मैं दूर पहाड़ों से आया
जहाँ सर्द हवाएं बहती हैं
है व्यास पार्वती का संगम
जहाँ यादें मेरी बसती हैं
मेरे अपनें सभी वहीँ हैं
लेकिन मैं हूँ सबसे दूर
यह था किस्मत का लिखा
नहीं किसी का कसूर
ना जानें कब जा पाऊंगा
बापिस उन खूबसूरत फिजाओं में
कोई याद तो करता होगा
मुझको मेरे गाँव में
'दीपक शर्मा' था उस वक़्त मैं
अब हूं 'दीपक कुल्लुवी'
शक्ल-ओ-सूरत बदली,तखल्लुस बदला
लेकिन सीरत ना बदली
लेकिन…
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Added by Deepak Sharma Kuluvi on October 27, 2010 at 11:00am —
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थकती नहीं
पेड़ की जड़ें
पानी की खोज में
छू ही लेती है
भूमिगत जलस्तर ॥
मरने नहीं देती
अपनी जिजीविषा ॥
बखूबी जानती है वह
हर पत्ते को
हरियाली ही देना है
उसका काम ॥
अब .....
नहीं थकूगा
मैं भी जड़ बनूगा॥
Added by baban pandey on October 27, 2010 at 6:59am —
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चातक मन प्यासा फिरे, दोनों आँखें मूँद .
पियूँ-पियूँ रटता रहे, पिए न एको बूँद ...
प्यास कैसे बुझ पाय ?
मन की मन में रह जाय...
रूठा आज गुलाब है, मधुकर है बेचैन
भूली सारी गायकी,कटे न काटे रैन
कहाँ बोलो अब जाय..
प्रीति को कैसे पाय?
स्वाति टपके सीप में, मोती सी बन जाय
रेत,पंक में जा गिरे , तो दलदल ही कहलाय
संग का असर न जाय
कोई कैसे समझाय ?
मंहगाई सुरसा भई, अतिथि हुए हनुमान...
सुरसा-मुख घटना नहीं,तुम्ही घटो मेहमान...
कोई अब क्या…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 26, 2010 at 10:30pm —
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एक गावं में दो ब्राह्मण भाई रहते थे ! छोटे भाई के चार बेटे थे जोकि एक से बढ़कर एक नालायक और महामूर्ख थे ! जबकि बड़े भाई का एक ही बेटा था जो सर्वगुण संपन्न और प्रसिद्ध कथा वाचक भी था l एक बार वह कथा वाचक कहीं कथा संपन्न करके आया जहाँ से उसे बहुत सारा धन और उपहार प्राप्त हुए ! ये देख कर छोटे भाई के नालायक बेटों ने सोचा कि क्यों ना हम भी कथा वाचक बन जाएँ ! उन्होंने अपने पिता से इस बाबत बात की तो उनके पिता ने उन्हें मना किया क्योंकि उसे अपने पुत्रों की औकात का भली भांति ज्ञान था ! लेकिन चारों भाई…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 26, 2010 at 4:30pm —
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बदलते परिवेश के साथ लोगों की जीवनशैली और रहन-सहन में परिवर्तन आया है और समाज में भी व्यापक स्तर पर बदलाव देखने में आ रहा है। लोग जहां भौतिकवादी जीवन जी रहे हैं, वहीं नई पीढ़ी एक ऐसे अंधकार में गुम होती जा रही है, जिसकी अंतिम परिणिति की कल्पना कर ही मन सिहर उठता है। समाज में नशाखोरी की प्रवृत्ति इस कदर हावी हो गई है कि इसने हर वर्ग को अपने चपेट में ले लिया है। युवा पीढ़ी तो लगातार नशाखोरी की गिरफ्त में आ रही हैं और उनका भविष्य भी तबाव हो रहा है। निश्चित ही समाज में इसका विकृत चेहरा भी सामने आ रहा…
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Added by rajkumar sahu on October 26, 2010 at 12:05pm —
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छोटू है वह
होटल में बर्तन धोता है ...
सुबह-शाम भोजन पाने को
मालिक की झिडकी सहता है ...
गोरा है...पर हाथ-पाँव में मैल जमा है..
स्नान करे कब?बहुत व्यस्त है ...
हाथ-पैर-मुंह तक धोने का होश नहीं है .
"छोटू",मैंने एक दिन पूंछा उससे,
"स्कूल जाओगे?"
"अभी गया था..चाय बाँट कर आया हूँ मै"
बोला मुझसे,"फिर जाना है ...वापस जूंठे ग्लास उठाने.."
"नहीं...टांग कर बस्ता पीछे,
जाओगे क्या…
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Added by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on October 26, 2010 at 7:00am —
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रंग बदलना सीख ले जमाने की तरह ,
ना सच को दिखा आईने की तरह ।
ना पकड इक साख को उल्लू की मानिंद ,
वक़्त-ए-हिसाब बैठ डालों पर परिंदों की तरह ।
ना उलझा खुद को रिश्तों की जंजीरों में ,
कर ले मद-होश अपने को रिन्दों की तरह ।
ना कर हलकान खुद को ,हर तरफ है मायूसी ,
हो जा बे-दिल बे-मुरव्वत परिंदों की तरह ।
गर मिलती है इज्ज़त यहाँ ,मरने के बाद ,
फिर ‘कमलेश’क्यों जीना जिन्दों की तरह ॥
Added by कमलेश भगवती प्रसाद वर्मा on October 25, 2010 at 10:17pm —
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जब चमन पुरबहार होते हैं
खार भी लालाज़ार होते हैं
कौन साथी है दौर-ऐ-ग़ुरबत का
सब बनी के ही यार होते हैं
हम गिला क्या करें जफ़ाओं का
जब सितम बार बार होते हैं
टूट जाते है चन्द बातों से
रिश्ते कम पायदार होते हैं
अजनबी हमसफ़र तो ऐ लोगों
रास्ते का गुबार होते हैं
आज के दौर की अदालत में
बेगुनाह गुनाहगार होते हैं
जिनमे इमरज-ऐ-बुग्ज़-ओ-कीना हो
क़ल्ब वो दाग़ दार होते है
यूँ न अबरू को दीजिये…
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Added by Hilal Badayuni on October 25, 2010 at 8:22pm —
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बहुत पुरानी बात है कहीं एक गावं था, जहाँ के अधिकाँश लोग येन केन प्राकरेण धन कमाने में लगे हुए थे | उन सब के लिए पैसा ही भगवान था | लेकिन उसी गावं में एक ब्राह्मण ऐसा भी था जिसने कभी भी कोई बुरा काम नही किया था, सत्य की राह पर चलते हुए जो भी मिलता उसी से गुजारा करता था | गाँव वाले कतई उसकी इज्ज़त नहीं किया करते थे क्योंकि वह बेचारा निर्धन था | एक दिन उस ब्राह्मण ने पूजा पाठ करते हुए भगवान को उलाहना दिया,
"हे ईश्वर, इस पूरे गाँव में एक मैं ही हूँ जो कि धर्म और सत्य की राह पर चल रहा…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 25, 2010 at 3:30pm —
8 Comments
शिक्षा का हमारे दैनिक, नैतिक, सामाजिक, व्यावहारिक तथा व्यावसायिक जीवन में बहुत बड़ा महत्व है | जब से मानव सभ्यता विकसित हुई है , तभी से हमारे जीवन में शिक्षा का बहुत बड़ा योगदान रहा है | वैदिक काल में गुरुकुल के माध्यम से शिक्षा प्रदान की जाती थी तथा गुरु शिष्य परम्परा बनाये रखने के लिए दीक्षांत समारोह का आयोजन किया जाता था | जिसमे शिष्य गुरु को गुरु दक्षिणा देता था | पहले वेदों, पुराणों, शास्त्र ग्रंथो तथा राजनीती शास्त्र, तर्क विज्ञान, की शिक्षा दी जाती थी | लेकिन जैसे - जैसे समय बदलता गया…
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Added by Pooja Singh on October 25, 2010 at 3:30pm —
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क्या पता था राम को, कि ऐसा दिन भी आएगा.
उनकी अयोध्या में ,उन्हें खैरात बांटा जायेगा.
जिस ज़मीं पर ठुमक-ठुमक, भगवान को चलना पड़ा था.
जिस जगह नारायण को, नर रूप में आना पड़ा था.
भावी को भी क्या पता था, ऐसा दिन भी आयेगा.
राम के अस्तित्व को, मुद्दा बनाया जाएगा.
क्या पता था राम --------------------------------
हिन्दू मुस्लिम हैं अलग, ये कब कहा था राम और रहमान ने?
मंदिर मस्जिद है जुदा, क्या यह सिखाया है खुदा भगवान ने?
नींव नफरत है धरम की, है लिखा गीता में या…
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Added by satish mapatpuri on October 25, 2010 at 2:54pm —
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मुक्तिका:
आँख में
संजीव 'सलिल'
*
जलती, बुझती न, पलती अगन आँख में.
सह न पाता है मन क्यों तपन आँख में ??
राम का राज लाना है कहते सभी.
दीन की कोई देखे मरन आँख में..
सूरमा हो बड़े, सारे जग से लड़े.
सह न पाए तनिक सी चुभन आँख में..
रूप ऊषा का निर्मल कमलवत खिला
मुग्ध सूरज हुआ ले किरन आँख में..
मौन कैसे रहें?, अनकहे भी कहें-
बस गये हैं नयन के नयन आँख में..
ढाई आखर की अँजुरी लिये दिल…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 25, 2010 at 9:34am —
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