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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-65 (विषय: "उम्मीद का दामन")

आदरणीय साथियो,
सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है. प्रस्तुत है:
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-65
विषय: "उम्मीद का दामन"
अवधि : 30-08-2020 से 31-08-2020
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अति आवश्यक सूचना :-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फ़ॉन्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
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5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा ग़लत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताए हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिसपर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फ़ोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने /लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
ओपनबुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम

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उम्मीद  का दामन

"ये अक्सर कहा जाता हैं, मनुष्य को उमीद का दामन नहीं छोड़ना चाहिए l हो सकता है, ये सच भी हो? मगर उस उम्मीद को बनाये रखने के लिए कोई रास्ता भी तो निकलना चाहिए, तब ही उस रास्ते पर चलने की कोशिश की जा सकेगी" , राज़ बिस्तर पर लेटा यही सोच रहा था l

जिस दिन से वह बीमार चल रहा था, और इस अस्पताल में दाखल हुआ था, बहुत सारे मिलने वाले लोग उस को जाते वक़्त लंबी उम्र की दुआ दे कर जा रहे थे, मगर वह तकलीफ़ में होते हुए भी सभी आने वालों को मुस्करा कर उस का जवाब दे रहा था l

आने वाला हर कोई उस के पास बैठे घर के लोगों को भी उम्मीद बिठा कर जा रहा था l

वैसे तो जिस रोग से वह पीड़ित था, उस का कुछ वर्ष पहले तक इलाज़ संभव न था l मगर अब इस का किसी हद तक ईलाज की उमीद बन गई थी l

कुछ देर पहले जब डाक्टर विजिट पर आया था तो उस ने घर वालों को अपने दफ़तर बुला कर धीरे से बहुत कुछ समझा दिया था l

बाहर आते ही सभी के चेहरे सचमुच मुस्कराहट से भर गए l

मगर वह सोच रहा था, ये सब इस लिए नहीं के लोग दुआ दे कर गए थे l इस लिए के नए ईलाज से उस की बिमारी ठीक हो रही थी, और उसे ज़िन्दगी में नई उमीद की रोशनी नज़र आने लगी थी l

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मौलिक व अप्रकाशित

ला इलाज बीमारी का इलाज मिल जाने की खुशी अपूर्व होती ही है। विषयानुरूप लघुकथा हेतु बधाई भाई मोहन जी।

मोहन बेगोवाल जी बहुत ही भावपूर्ण लघुकथा के लिए आपको हार्दिक बधाई। 

ऐसे समय मनुष्य का बेहद प्रसन्न होना स्वाभाविक ही है, सुंदर रचना प्रदत्त विषय पर. बहुत बहुत बधाई आ मोहन बेगोवाल जी इस रचना के लिए

सादर नमस्कार। प्रदत्त विषयांतर्गत माहौल मुताबिक़ सकारात्मकता लिए बढ़िया रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी। कुछ टंकण त्रुटियाँ सही कर लीजिएगा। /ईलाज की उमीद/ --/इलाज़ की उम्मीद/; //..को भी उम्मीद बिठा कर..//---//..में भी उम्मीमीदें जगा कर...//

चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही खोजों और नई दवाइयों से रोगियों में बढ़ रहे विश्वास और आशा को दर्शाती अच्छी लघुकथा। हार्दिक बधाई आदरणीय मोहन बेगोवाल जी

आस से आसमान हैं, सच हैं। बेहतरीन रचना के लिए बधाई स्वीकार कीजिएगा आदरणीय सरजी।

अच्छी लघुकथा है. लेकिन इसपर अभी बहुत मेहनत करनी होगी. बहरहाल, इस सद्प्रयास हेतु हार्दिक बधाई प्रेषित है डॉ मोहन बेगोवाल जी. 

'उम्मीद का दामन'–विभा रानी श्रीवास्तव

अपने रौद्र रूप में कई लाख एकड़ से सबको दबोचती वनाग्नि लगभग लौरा तूफान के पास पहुँच गई । लौरा तूफान भी प्रलय लाने में होड़ी बना हुआ था।

–"इतिहास के उदाहरणों में दर्ज होगा.. आग व पानी से खेलने वाले इंसानों की स्थिति लाक्षा गृह में कैद सी हो गई थी।" वनाग्नि दर्प के कारण अपनी लपटें को गगनचुंबी बनाते हुए कहा।
–"इंसानों को समय-समय पर याद दिलाना पड़ता है समुद्रों द्वारा ऊष्मा को जज्ब कर लेने के प्रतिफल को..!" लौरा तूफान भू-स्खलन में व्यस्त व मस्त होते हुए कहा। स्याह पड़े आसमान व पहाड़ व्यथित थे।
–"तुमदोनों इंसानों के सत्व को कम आँक रहे हो... अभी भी वे किसी परियोजना में व्यस्त होंगे। एक बात बताऊँ मेरे स्वामी ने अपने होटल को मुफ्त कर रखा है और उनके खास मित्र ने अपने होटल के कमरों के दाम घटा रखा है। जिस कमरे को तीन सौ-साढ़े तीन सौ डॉलर पर दिए जाते थे उसे सौ डॉलर पर दिए जा रहे हैं।" सिंधु तट पर खड़ी कुर्सी ने समझाया।
–"जान बचा लेंगे मनुष्य बाकी क्षति तो सहन करेंगे न?" लौरा तूफान वनाग्नि से ज्यादा इतरा रहा था ऊँचे स्वर में पूछा।
–"उनकी एक जुटता से तुम हारोगे, मेरे स्वामी अपने संग मुझ सा दो कुर्सी लेकर तुम्हारे तट पर आते हैं ताकि कोई थका-हारा दो पल आराम की सांस ले सके।
मौलिक व अप्रकाशित

विपरीत परिस्थिति में भी उम्मीद जिंदा है,पर कथोपकथन कुछ परस्पर जुड़ता हुआ नहीं लगता।  त्वरितता हावी है, व्याकरण जनित विचलनों पर ध्यान जरूरी है। लघुकथा हेतु बधाई आ॰ विभा जी।   

बढ़िया प्रयास प्रदत्त विषय पर लिखने का, आ मनन कुमार सिंह जी की बातों का संज्ञान लीजिये. बहुत बहुत बधाई इस रचना के लिए आ विभा रानी श्रीवास्तव जी

सादर नमस्कार। आपकी हिंदी साहित्यिक शब्दावली समर्पित बेहतरीन शैली व शिल्प में बढ़िया प्रतीकात्मक रचना कम शब्दों में; ज्वलंत मुद्दों पर। आग, तूफ़ान और इंसान के ट्राइएंगल पर। हार्दिक बधाई आदरणीया विभारानी श्रीवास्तव जी। प्रतीक रूपेण... एक खड़ी कुर्सी व बाद में /मुझ सा दो कुर्सी/ ... यहाँ कुछ अस्पष्टता लग रही है। क्षेत्रीय भाषागत प्रभाव के कारण एक-दो जगह शब्द ''ने" छूट गया है। ...//लौरा तूफान (ने) भू-स्खलन ...//

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