अधूरी तिश्नगी ...
कैसे भूल सकती हूँ
वो रात
वो बात
जो एक चिंगारी से
शुरू हुई थी
वो चिंगारी
मेरी रगों में
धीरे धीरे
आग बनकर फैलती गयी
और मैं
चुपचाप उस आग में
जलती रही
मैं
खामोशियों के बियाबाँ में
गूंगी बनी
अपने जज़्बातों से
तन्हा सी
गुफ़्तगू करती रही
अपने खून में
लगी आग को बुझाना
मुझे कहां आता था
निहारती रही
आसमां की तरफ़
कि शायद कोई अब्र
मुझ पर रहम खायेगा
मेरी आग को बुझा जाएगा
मगर
सहरा से तन्हा लम्हों में
मैं
मेरी रात
वो चिंगारी बनी बात
बेबस दिए की
लौ की मानिंद
हर करवट
अधूरी तिश्नगी लिए
बस जलते रहे
पिघलते रहे
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
आदरणीय Mahendra Kumar जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय प्रशंसा से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
आदरणीय Tasdiq Ahmed Khan जी प्रस्तुति को अपनी आत्मीय सराहना से शोभित करने का हार्दिक आभार।
जनाब सुशील सरना साहिब , एक खामोश औरत के जज़्बात की अच्छी मंज़र कशी हुई है रचना में , मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं --
आदरणीय डॉ गोपाल जी भाई साहिब प्रस्तुति को अपनी मधुर शब्दों से अलंकृत करने का हार्दिक आभार।
वाह वाह सरना जी , ऐसी तिश्नगी आप में ही हो सकती है , सादर .
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप' जी प्रस्तुति के भावों को स्वीकृति देती आपकी आत्मीय प्रशंसा से रचना उपकृत हुई। .....आपका हार्दिक आभार।
आदरणीय समर कबीर साहिब प्रस्तुति के भावों की अपने शीरीं लफ़्ज़ों से ताजपोशी करने का तहे दिल से शुक्रिया।
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