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May 2015 Blog Posts (226)


सदस्य कार्यकारिणी
शक्ति छंद (नेपाल भूकंप )

शक्ति छंद (नेपाल भूकंप )

  

अभी फूल पूरे खिले भी न थे

नई जिंदगी से मिले भी न थे

चली बेरहम वक़्त की आरियाँ

कटे शीश धड़ से मिटी क्यारियाँ

 

कहर बन फटी थरथराती जमी

जहाँ सांस आई वहीँ पे थमी

दिखाई अजब काल ने क्रूरता

फिरा क्रुद्ध यमराज यूँ घूरता

 

निवाले कई काल के हैं बने

दबे हर जगह जिस्म खूँ से सने

बचा जो यहाँ ढूँढता आसरा

सहारा बना एक का दूसरा

 

बचे काल से एक भाई बहन

सिसकते…

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Added by rajesh kumari on May 13, 2015 at 8:53am — 24 Comments

मुक्ति (लघुकथा)/रवि प्रभाकर

‘आज तो लाला ने भी और मोहलत देने से साफ मना कर दिया । समझ नहीं आ रहा अब क्या होगा? बैंक की किश्तें, अगले महीने छोटी की शादी... इस बेमौसमी बरसात ने हमें कहीं का नहीं छोड़ा ।’ साहूकार की दुकान से बाहर निकलते हुए परेशानी के आलम में वो अपने साथी से बोला
‘सब्र से काम लो भाई ! अब जो भगवान को मंजूर ... अरे ! उधर क्या करने जा रहे हो ... उस तरफ तो बाजार है ?’
‘एक रस्सी लेने...।’

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by Ravi Prabhakar on May 13, 2015 at 8:18am — 23 Comments

वक़्त मुसाफिरी का है ,गुजार ले-- डॉo विजय शंकर

ये तू , ये मैं ,

ये साथ , ये अकेलापन,

सब यहीं है ,

यहीं का है,

एक बार यहां से गए ,

तो तू कौन,

मैं कौन,

एक नाम ही है,

सब यहीं रह जाएगा ,

बहती हवा में बह जाएगा ,

द्रव्य, दृश्य,शब्द, स्मृतियाँ, सब,

कुछ मिटटी में , कुछ

वायु में विलीन हो जाएगा ,

नष्ट नहीं होगा ,

पर साथ नहीं जाएगा ,



ये तू, ये मैं , ये साथ ,

ये रिश्ते , ये बंधन ,

ये सब यहीं के हैं ,

यहीं तक हैं ,

यहीं रह जाएंगे ,

समय में खो जाएंगे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on May 13, 2015 at 7:04am — 24 Comments

विसंगति--

" अरे रामू , तुम वापस कब आये , फिर से घर का काम करोगे "?
" क्या करता साहब , बेटा तो अपनी नौकरी पर चला जाता था और रात देर से लौटता था "।
" तो क्या , आराम से घर पर रहते , बहू और बच्चों के साथ समय बिताते "।
" अब क्या कहूँ साहब , आप कम से कम हमें नौकरों जैसा तो समझते हो , पर बहू तो .."!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on May 13, 2015 at 3:00am — 14 Comments

अकेला-एकान्त

अकेला-एकान्त

असंग आत्म-विश्वास का

गम्भीर भान

अकेला-एकान्त

कभी करी हुई विलीन हुई बातें

अनबूझा विशाद

संसारी गतिविधियों से 

परिवर्तित प्रवृत्तियों से 

बदले व्यवहार से शब्दों की चोट से

कुछ हुआ अचानक

हमारे बीच का बहता वह सुगम प्रवाह

घनिष्ठ अपनत्व

अमृत-सा सुख

सूख गया

खुशियों का हिस्सा जो लगता था मेरा था

अब मेरा न था

असंवेदनाओं के धरातल पर…

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Added by vijay nikore on May 13, 2015 at 12:30am — 18 Comments

गरीबी का फोड़ा (लघुकथा )

मजदूरी करके जितना भी कमाता , आधी से ज्यादा बेटे के पढ़ाई के लिये लगाता । पिता के फर्ज़ से वह उरिन होना चाहता था । गरीबी सदा जिंदगी को जटिल बनाने के लिये अपना मोर्चा संभाले रहती है । बेटे का मन आस पडोस के लडकों में रमा रहता । फिर भी पिता अपनी आस को रबड़ के भाँति खींच कर पकडे़ हुए था ... कि एकदिन बेटा बडा होकर उसका मर्म जान पायेगा । आज दसवीं का रिजल्ट आने वाला था । पूजा घर में माँ बेटे के लिए प्रार्थना में लगी रही सुबह से । रिजल्ट आते ही घर में सब जकड़न टुट गई । विजय ने अपनी हार का ठीकरा पिता…

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Added by kanta roy on May 12, 2015 at 8:30pm — 26 Comments

जीवन .......इंतज़ार

ज़िंदगी है तो

जीने से डरना क्या !

ख़वाब रंगीन होते हैं

देखने से डरना क्या !

जाम जब होंठों को छू जाये

तो फिर पीने से डरना क्या !

प्यार हो जाये

तो इकरार से डरना क्या !

ज़िंदगी एक सफ़र ही तो है

फिर रास्तों से डरना क्या !

सफ़र में कई हमसफ़र होंगे

मिलना क्या बिछुड़ना क्या !

हर मंजिल एक पड़ाव ही तो है

पाना क्या और खोना क्या !

जीवन सिर्फ़ एक आवागमन ही तो है

फिर आना क्या और जाना क्या…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on May 12, 2015 at 6:00pm — 4 Comments

खो गई इंसानियत

यूँ तो दिखते ,

कितने ही चेहरे ,

मिलते-जुलते इंसानोँ से ।

पर , जब उनकी

फितरत देखी,

तो लगी हैवानोँ सी !!

करते हैँ शर्मसार ,

इंसानियत को ।

देख कर इनकी करतूतेँ ,

सवाल करते हैँ जानवर भी ,

कि क्योँ हैँ हम बदनाम !

जब कि इतना ज्यादा ,

गिर चुका है इंसान ।

खुदा ने उसे ज़हानत दी ,

कुछ भी करने की ताकत दी ,

फिर भी वह ,इतना गिर गया ?

कि लाश का कफ़न भी ,

नोँच कर ले गया !

घायल को देख कर ,

नहीँ पसीजा ,

उसका…

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Added by jyotsna Kapil on May 12, 2015 at 4:30pm — 11 Comments

फौजी की डायरी

फौजी की डायरी

दिनांक

१२-जून

सचमुच अगर आज ये फार्मल-मीट न होती तो मै कभी जान ही ना पाता आखिर वो भी तो हमारे जैसे ही हैं.. उनका दिल भी अपने देश के लिए धडकता है.. उनके लिए भी फ़र्ज़ जान से बढ़ कर है. मगर... उनका भी परिवार है हमारी ही तरह... माँ है. बहन है.. पत्नी है बच्चे हैं घर है वो भी अपने परिवार से बहुत प्यार करते हैं..बिलकुल हमारी तरह... वो भी देश के लिए मरना चाहतें है और परिवार के लिए जीना चाहते हैं बेवजह लडनें की चाह उनको भी नही है मगर मातृभूमि पर किसी की बुरी नज़र वो भी सहन नही… Continue

Added by Seema Singh on May 12, 2015 at 4:04pm — 5 Comments

गुब्बारे

मेरी बेटी

तेरी खातिर ,

गुब्बारे लाने थे मुझको,

नीले, पीले,लाल,गुलाबी,

हरे,बैंगनी,खूब सजीले

बहुत सुनहरे और चमकीले

गुब्बारों के दाम बहुत थे

पास मेरे पैसे कुछ कम थे

पर

तेरे हिस्से का समय बहुत था....

दूर कहीं परदेस मे बेटी

तेरे जैसे बहुत से बच्चे

अँधियारो से जूझ रहे है

चमक रहे है,बुझ भी रहे है

तेरे हिस्से का समय मै गुड़िया

इन बच्चों में बाँट रहा हूँ

जिससे इनको रंग मिले

समता समानता स्वतंत्रता के

और खिल जाये इनका… Continue

Added by मनोज अहसास on May 12, 2015 at 3:36pm — 11 Comments

ये मय भी कडवी है सच की तरह

१२१  २२ १२१  २२

यूं कतरा कतरा शराब पीकर

हैं जिन्दा अब तक जनाब पीकर

सवाल मुश्किल थे जिन्दगी के

मगर दिए सब जवाब पीकर

ये मय लगी  कडवी सच के जैसी 

न कह सका मैं  ख़राब पीकर

पहाड़ सीने पे दर्दो गम के

नहीं रहा कोई दवाब पीकर

जिन्हें मयस्सर न रोटियाँ…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on May 12, 2015 at 1:54pm — 20 Comments

पार्टी (लघुकथा)

पार्टी में दुल्हन को गहने से सजी देखते ही बस देखते ही रह गया । उसके देह पर सजे गहने मानो एक एक कर कह उठे कि मुझसे ही दुल्हन की खूबसूरती है । हर श्रंगार की बस्तु मुझसे बात कर रही थी कि अचानक कुछ खुसुर पुसुर हुई । मेरा ध्यान भंग हुआ ।

"क्या हुआ शर्माइन जी ? "

"कुछ नही रे ..! ये लड़का पागल है । सुंदरता के चक्कर में पड़ गया रे.! ये लड़की तीन घरोँ को बर्बाद करके आई है इसकी ये चौथी शादी है। अब न जाने यहाँ क्या गुल खिलायेगी ! "

"ओहो क्या ....?"

मैने पुनः उन सभी जेवरों से कहा…

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Added by babita choubey shakti on May 12, 2015 at 1:00pm — 5 Comments

ग़ज़ल : मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

बह्र : २१२२ ११२२ ११२२ २२

 

मैं तो नेता हूँ जो मिल जाए जिधर, खा जाऊँ

हज़्म हो जाएगा विष भी मैं अगर खा जाऊँ

 

कैसा दफ़्तर है यहाँ भूख तो मिटती ही नहीं

खा के पुल और सड़क मन है नहर खा जाऊँ

 

इसमें जीरो हैं बहुत फंड मिला जो मुझको

कौन जानेगा जो दो एक सिफ़र खा जाऊँ

 

भूख लगती है तो मैं सोच नहीं पाता कुछ

सोन मछली हो या हो शेर-ए-बबर, खा जाऊँ

 

इस मुई भूख से कोई तो बचा लो मुझको

इस से पहले कि मैं ये…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 12, 2015 at 12:38pm — 16 Comments

ग़ज़ल-नूर कलंदर सी मस्ती में रहता है



22/22/22/22/22/2 (सभी कॉम्बिनेशन्स)

दिल के ओहदेदारों का अब क्या करिये.

बचपन के उन यारों का अब क्या करिये.

.

तुम कब तुम थे- मैं कब मैं, वो कहानी थी

उन मुर्दा क़िरदारों का अब क्या करिये. 

.

राजमहल था जिस्म, ये दिल था शाह कभी 

इन वीरां दरबारों का अब क्या करिये.  

.

मान गए वो आख़िर में जब बात अपनी

पहले के इन्कारों का अब क्या करिये.

.

उसके क़दमों पे धर आए सर ही जब

फिर महँगी दस्तारों का अब क्या करिये.…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 12, 2015 at 10:30am — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
स्वीकृति के लिये छटपटाती बातें

इनकार कितना भी कर लें

दिल पर हाथ रख कर पूरी इमानदरी से सोचेंगे तो आप भी कहेंगे

हम भावनाओं की दुनिया में जीते हैं

और ये सच हो भी क्यों न , एकाध अपवाद छोड़कर

हम सब दो पवित्र भावनाओं के मिलन का ही तो परिणाम हैं

 

भावनायें गणितीय नहीं होतीं

कारण और परिणाम दोनों का गणितीय आकलन नामुमकिन है

हम सब ये जानते हैं , फिर भी

दूसरों के मामले में हम सदा गणितीय हल चाहते हैं ,

अक्सर रोते बैठते हैं , दो और दो चार न पा के

उत्तर…

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Added by गिरिराज भंडारी on May 12, 2015 at 9:15am — 15 Comments

घाट पर ठहराव कहाँ (लघुकथा)

धरा में कम्पन होते हुए एक सैलाब सा उमड़ पड़ा। सामने से आती उत्ताल नदी का वेग फट पड़ा था जमीन पर .....

धरा का हृदय विभक्त हो उठा दो किनारों में । धरा का खुद के अंश से अलगाव सहना ...!!

धरा का रूदन अब कौन सुने ..?

उन्मुक्त नदी अपनी ताव में जमीन की छाती चीरती हुई बढ़ चली थी ।

उसे क्या परवाह थी कि किसने चोट खाई .... !

बेबस थे दोनों किनारे ....बरसों,जो रहे थे एक दुसरे में समाहित ... वो आज .... !!

अब जीवन भर देखते ही रहना है एक दुसरे को.....यूँ ही ।

किनारे नदी की…

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Added by kanta roy on May 11, 2015 at 10:00pm — 21 Comments

कैसे जाएगी याद दिल को बताऊं कैसे - शीवेन्द्र

कैसे जाएगी याद दिल को बताऊं कैसे
मेरी नजरों में बसी तस्वीर हटाऊं कैसे।


उसने आवाज तलक भी नहीं दी मुझे
खुद के जीने के लिए सांस जुटाऊं कैसे।


की बड़ी दूर से थी मौहब्बत हमने
जख्म उनको मैं दिखाकर रूलाऊं कैसे।


अब हवाओं से दीवार यहां हिलती है
अपने सपनों की तस्वीर लगाऊं कैसे।


उनकी हर बात का हमने तो भरम रखा है
तोड़कर वो ही कसम आंख मिलाऊं कैसे।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by shivendra on May 11, 2015 at 5:00pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
है कहाँ पहचान तेरी सादगी को क्या हुआ- शिज्जु शकूर

2122/ 2122/ 2122/212

है कहाँ पहचान तेरी सादगी को क्या हुआ

शोखियों को क्या हुआ तेरी हँसी को क्या हुआ

 

मुब्तला खुदगर्ज़ियों में हो गये जज़्बात सब

क्या कहूँ अब आजकल की दोस्ती को क्या हुआ

 

रास्ते भी थम गये हैं मंज़िलें भी खो गईं

रुक गई इक मोड़ पर ये ज़िन्दगी को क्या हुआ

 

अपनी हस्ती को मिटाता जा रहा है बेखिरद

किसको फुरसत सोचने की आदमी को क्या हुआ

 

सुब्ह पहले सी नहीं मौसम भी पहले सा नहीं

हो गई…

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Added by शिज्जु "शकूर" on May 11, 2015 at 4:30pm — 32 Comments

समय : लघु कथा : हरि प्रकाश दुबे

“साहब एक जरूरी बात करनी है !”

“देख नहीं रहे हो कितना व्यस्त हूँ ,अभी मेरे पास किसी भी बात के लिए समय नहीं है,जाओ बाद में आना !”

“पर साहब लगता है आपकी पत्नी के पास भी समय नहीं है, उनका अभी कुछ देर पहले ही एक्सिडेंट हो गया है, और मैं उनको अस्पताल में.. और उनके पर्स से आपका विजिटिंग कार्ड मिला, आपका फ़ोन बंद था ,तभी मुझे अपने सब काम छोड़कर आपको बताने आना पड़ा !”

“अरे भाईसाहब जल्दी ले चलो मुझे आपका बहुत एहसान होगा !”

“समय की परिभाषा बदल चुकी थी !”

© हरि प्रकाश…

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Added by Hari Prakash Dubey on May 11, 2015 at 9:04am — 13 Comments

अम्मी

हम बड़े हो रहे थे

लेकिन आप हमें

बच्चा ही समझती थीं

और जब हम अकड दिखाते

बात-बेबात बहस करते

तो आप खामोश हमें ताकते रहतीं

हम अपने मन की करते

और आपकी खामोश आँखें करतीं

हमारी सलामती की दुवाएं..



आज आप नहीं हैं

और इस संसार में

हम यूँ फिर रहे हैं

जैसे कोई फल हों

सड़क किनारे पेड़ के

जिसपर हर कोई

आजमाता है पत्थर...

हम बड़े ज़रूर हुए हैं अम्मी

लेकिन ममता की ऊष्मा से

वंचित हैं…

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Added by anwar suhail on May 10, 2015 at 7:00pm — 5 Comments

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