For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

वह अपनी धुंधली आँखों से बीत रहे वर्ष की पीठ पर बने रंग बिरंगे चित्रों को बहुत गौर से निहार रही थी, वह अभी उनमें छुपे चेहरों को पहचानने का प्रयास ही कर रही थी कि सहसा वे चित्र चलने फिरने और बोलने लग पड़ेI   

"माँ जी! कितनी दफा कहा है कि इन बर्तनों को हाथ मत लगाया करोI" 
नये टी सेट का कप उससे क्या टूटा उसके घर में कलेश ने पाँव पसार लिए थेI 
अगले दृश्य में नए साल की इस झांकी को होली के रंगों ने ढक लियाI  
"बेटा ये बहू की पहली होली है, तो इस बार त्यौहार धूमधाम से..."  
"नहीं माँ! इस बार होली मनाने मैं अपने ससुराल जा रहा हूँI" बेटे ने माँ की बात काट दी थीI    
अब गुज़रे साल की पीठ पर उभरा "गर्मियाँ" और नेपथ्य से छोटी बहू का आदेशात्मक स्वर: 
"तुम कुछ रोज़ बाहर बरामदे में सो जाना माँ! मेरे पिता जी को बिना कूलर नींद नहीं आतीI"
पर्दे पर दृश्य बदलते ही वह अपने बेटे के सामने खड़ी थीI  
"बेटा! पण्डित जी तुम्हारे बाबू जी के श्राद्ध का पूछ रहे थेI" उसने डरते डरते बेटे से कहा थाI    
"ये श्राद्ध व्राद्ध दकिआनूसी बातें हैं माँ, छोड़ो इनकोI सौ पचास दान कर देना मन्दिर में जाकरI" बेटा बिना उसकी तरफ देखे अपने कमरे में जा घुसा थाI
अगले चलचित्र में हर तरफ रौशनी ही रौशनी थीI वह उस रौशनी को चुरा कर अपने घर आंगन में सजा लेना चाहती थी कि छोटा बेटा सामने आ खड़ा हुआ था:  
"अम्मा दिवाली पर हमारे कुछ ख़ास मेहमान आ रहे हैं, भगवान के लिए तुम अपने कमरे में ही रहनाI" 
अब चित्रपट पर अँधेरा छा गयाI उसने चश्मा उतारने के लिए हाथ बढाया ही था कि चित्रपट बर्फ से ढक गयाI 
"हो हो हो - हा हा हा!!" उस सर्द शाम को लाल पोशाक में सफ़ेद दाढ़ी मूछ लगाये नन्हा पोता अचानक उसके कमरे में प्रकट हुआ थाI   
"अरे कौन हो तुम?"
"मैं सांता क्लौज़ हूँ दादी!" भारी आवाज़ में वह बोला थाI
"अरे तो संता इस बुढ़िया के पास क्या करने आया है?" प्यार से उसे गोदी में बिठाते हुए उसने पूछा थाI

"अपनी दादी माँ को गिफ्ट देने आया है!" जेब से टॉफ़ी निकाल कर दादी के मुँह में डालते हुए पोता खिलखिलाकर हँसा थाI 
यह अन्तिम दृश्य उसके चेहरे पर मुस्कुराहट बन कर छा गया, दीवार पर टँगी पति की तस्वीर को निहारते हुए उसके मुँह से निकला:
"ये पिछला साल बहुत अच्छा रहा मुन्नू के बापूI"        

.

(मौलिक और अप्रकाशित)

Views: 1060

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on January 17, 2017 at 10:37pm

कथानक तो नया नहीं..असल से ज्यादा सूद प्यारा होता है किन्तु जिस कसावट व् रोचकता के साथ लघु कथा प्रस्तुत की गई है उसने इस कथानक में  जान फूँक दी आँखें नम हो गई पढ़ते पढ़ते बहुत मार्मिक .दिल से बहुत बहुत बधाई आद० योगराज जी  

Comment by vijay nikore on January 3, 2017 at 11:36am

आपकी लघु कथा अच्छी लघु कथा का उदाहरण होती है। पैनी दृष्टि, भाव, संदेश, यथार्थ, संवेदना ... आप इन सभी को जिस कसावट से बुनते हैं, वह हमारे लिए मिसाल है। हार्दिक बधाई, आदरणीय भाई योगराज जी।

Comment by pratibha pande on January 3, 2017 at 10:07am

एक छोटा सा यादगार पल वजूद को सार्थकता  देता हुआ ..वाह ,,हार्दिक बधाई   आदरणीय   रचना के लिए  और धन्यवाद ,लघुकथा लेखन  सीखने  के क्रम में एक और पाठ जोड़ने के लिए.....सादर ... 

Comment by Dr. Vijai Shanker on January 3, 2017 at 9:21am
एक बहुत सुन्दर लघु-कथा , बधाई , आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , सादर।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 2, 2017 at 11:54pm

आदरणीय योगराज सर, इस लघुकथा ने नम कर दिया. इतना विशाल हृदय एक माँ का ही हो सकता है. वैसे भी असल से ज्यादा प्यारा सूद होता ही है. इस शानदार लघुकथा को साझा करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद. सादर 

Comment by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on January 2, 2017 at 3:50pm

//ये पिछला साल बहुत अच्छा रहा मुन्नू के बापू// अंतिम पंक्ति कितना कुछ कह जाती है, सादर आभार आदरणीय सर इस रचना को हम सभी से साझा करने के लिए| 

Comment by Mahendra Kumar on January 2, 2017 at 3:31pm
आदरणीय योगराज सर, बहुत ही प्यारी लघुकथा लिखी है आपने। मेरी तरफ से दिल से बधाई स्वीकार कीजिए। सादर।
Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 1, 2017 at 11:39pm

आहा | सर गजब की कथा हुई है यह भी | आपकी हर कथा एक से बढ़कर एक होती हैं | घर के बुज़ुर्ग अपने को बेसहारा समझने लगते हैं , अपने ही बच्चों से कई बार तिरस्कृत होते हैं ऐसे समय पर पोते पोतियों का प्यार या उनका आगमन ही उनकी जान में जान डाल देता है | उनकी खुशियों को चार चाँद लग जाते हैं | हार्दिक बधाई आदरणीय सर |

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 1, 2017 at 8:05pm

आहा , क्या शानदार कथा हुयी है . हकीकत से लबरेज . पूरे जीवन का आईना .और शिल्प  का तो कहना ही क्या . क्या कसावट , क्या बुनावट . आ० अनुज आपसे ऐसी ही कथा की सदैव अपेक्षा रहती है . मेरी कोटि कोटि बधाई .

 

Comment by Samar kabeer on January 1, 2017 at 4:56pm

जनाब योगराज प्रभाकर साहिब आदाब,अभी आपकी पिछली कघुकथा का नशा भी नहीं उतरा था कि एक और शानदार लघुकथा सामने आ गई नशा दोबाला हो गया ।
ज़हनी कश्मकश को आपने एक तस्वीट की तरह पेश किया है,वाह बहुत ख़ूब, इस बाकमाल लघुकथा के लिये दिल से ढेरों दाद के साथ ढेरों मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221 2121 1221 212 बर्बाद ज़िंदगी का मज़ा हमसे पूछिए दुश्मन से दोस्ती का मज़ा हमसे पूछिए १ पाते…"
22 minutes ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"आदरणीय महेंद्र जी, ग़ज़ल की बधाई स्वीकार कीजिए"
1 hour ago
Manjeet kaur replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"खुशबू सी उसकी लाई हवा याद आ गया, बन के वो शख़्स बाद-ए-सबा याद आ गया। वो शोख़ सी निगाहें औ'…"
1 hour ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"हमको नगर में गाँव खुला याद आ गयामानो स्वयं का भूला पता याद आ गया।१।*तम से घिरे थे लोग दिवस ढल गया…"
3 hours ago
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"221    2121    1221    212    किस को बताऊँ दोस्त  मैं…"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-184
"सुनते हैं उसको मेरा पता याद आ गया क्या फिर से कोई काम नया याद आ गया जो कुछ भी मेरे साथ हुआ याद ही…"
10 hours ago
Admin posted a discussion

"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-127 (विषय मुक्त)

आदरणीय साथियो,सादर नमन।."ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।प्रस्तुत…See More
11 hours ago

सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey commented on मिथिलेश वामनकर's blog post ग़ज़ल: मिथिलेश वामनकर
"सूरज के बिम्ब को लेकर क्या ही सुलझी हुई गजल प्रस्तुत हुई है, आदरणीय मिथिलेश भाईजी. वाह वाह वाह…"
21 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' posted a blog post

कुर्सी जिसे भी सौंप दो बदलेगा कुछ नहीं-लक्ष्मण धामी "मुसाफिर"

जोगी सी अब न शेष हैं जोगी की फितरतेंउसमें रमी हैं आज भी कामी की फितरते।१।*कुर्सी जिसे भी सौंप दो…See More
Thursday
Vikas is now a member of Open Books Online
Tuesday
Sushil Sarna posted blog posts
Monday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा दशम्. . . . . गुरु
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय । विलम्ब के लिए क्षमा "
Monday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service