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लघुकथा : बँटवारा (गणेश जी बाग़ी)

गाँव के एक दबंग व्यक्ति ने दादा जी के भोलेपन का फ़ायदा उठाकर ज़मीन और घर के एक भाग पर अवैध कब्ज़ा कर लिया था । दादा जी तो अब रहे नही किन्तु तीन दशकों की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद ज़मीन और घर वापस मिले । आपसी सहमति से बँटवारा हुआ । पूरी संपत्ति पिता जी और चाचा जी के बीच बराबर-बराबर बाँट दी गई । दोनों ने ख़ुशी-ख़ुशी अपना-अपना हिस्सा स्वीकार किया । सहसा पिता जी ने चाचा जी से कहा,
"देख छोटे, ज़मीन और घर का बँटवारा तो हो गया । किन्तु भविष्य में कभी तुझे रहने के लिए घर छोटा पड़े तो वो पूरब वाला मेरे हिस्से के घर में तू या तेरे बच्चे बेहिचक रह सकते हैं ।"
सामान्यतः ज़मीन-ज़ायदाद के मामले में मैं चुप ही रहता हूँ, किन्तु पिताजी द्वारा कही गयी यह बात मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं आयी । मैं बहुत ही सम्मानपूर्वक बस इतना ही कह पाया,
"पिता जी और चाचा जी ! क्षमा चाहता हूँ किन्तु मुझे सन 1947 टाइप बँटवारा नहीं चाहिए ।"

"मौलिक एवं अप्रकाशित"

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Comment by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 1, 2022 at 4:26pm

आ. भाई गणेश बागी जी, बहुत  सटीक और सार्थक और शिक्षाप्रद लघुकथा हुई है। हार्दिक बधाई।

Comment by Samar kabeer on May 1, 2022 at 2:45pm

जनाब 'बाग़ी' जी आदाब, अच्छी लघुकथा लिखी है आपने, इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।

Comment by Sheikh Shahzad Usmani on April 30, 2022 at 5:52am

आदाब। मैं इसे समसामयिक और सर्वकालिक भी कह सकता हूं, क्योंंकि  समाज के मध्यम या कमज़ोर वर्ग में ऐसी परिस्थितियाँ आज भी बनती हैं और पिता जी ऐसी राय या समाधान सुझाते हैं और ऐसे मामले झगड़ों का मनमुटाव का क़ानूनी उलझनों का कारण बनते हैं। बेहतरीन रचना हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय सर गणेश जी बागी जी।

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 28, 2022 at 4:05pm

बहुत ही सुंदर और मारक लघुकथा कही है आपने आदरणीय गणेश बागी जी , अंतिम पंक्ति बकमाल है | बधाई स्वीकारें| 

Comment by Sushil Sarna on April 28, 2022 at 1:36pm
वाह आदरणीय बागी जी बहुत ही सुंदर और सार्थक प्रस्तुति है सर ।हार्दिक बधाई सर

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on April 28, 2022 at 10:11am
आपकी यह लघुकथा पढ़कर बरबस यह शेअर याद आ गया,

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी सदियों ने सज़ा पाई।

ऐसी कई ख़ताएँ हम से भी हो चुकी हैं। न केवल 1947 में ही बल्कि 1948, 1965 और 1971 में भी, उसकी डिटेल में जाना तो शायद समीचीन न होगा। अत: ऐसे बँटवारे को स्वीकार करना पुरानी गलतियों को दोहराने जैसा ही होगा। बहरहाल आपकी यह लघुकथा प्रभावोत्पादक एवं मुकम्मल है। इसमें निहित संदेश शीशे की तरह साफ़ है। कथ्य और शिल्प के दृष्टिकोण से एकदम सधी हुई व कसी हुई इस लघुकथा पर मेरी आत्मिक बधाई स्वीकार करें भाई गणेश बागी जी।
Comment by Chetan Prakash on April 28, 2022 at 8:25am

नमस्कार,  आदरणीय  इं. गणेश बागी जी, बहुत  सटीक और सार्थक , इतिहास  से सीख  लेती , लघुकथा कही  आपने ! बधाई स्वीकार करें !

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