इन्तहा है, हमारे सब्र की,
न जाने कब ये खत्म होगी,
जाने कब जागेंगे, और कसेंगे पीठ अपनी,
कब सचेत होंगे,
कब रोकेंगे हम विध्वंस को|
क्यों हम कहते हैं की मान जाओ,
जबकि हम जानते है,
वो कहने से नहीं मानेंगे,
वो नहीं समझेंगे मानवता को|
हम अपने सामर्थ्य से रोक सकते हैं उन्हें,
फिर भी सब्र किये बैठे हैं|
बहुत बड़ी इन्तहा है हमारे सब्र की,
अनंत तो नहीं, पर उसकी ही ओर|
Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 9:30am —
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मुक्तिका...
क्यों है?
संजीव 'सलिल'
*
रूह पहने हुए ये हाड़ का पिंजर क्यों है?
रूह सूरी है तो ये जिस्म कलिंजर क्यों है??
थी तो ज़रखेज़ ज़मीं, हमने ही बम पटके हैं.
और अब पूछते हैं ये ज़मीं बंजर क्यों है??
गले मिलने की है ख्वाहिश, ये संदेसा भेजा.
आये तो हाथ में दाबा हुआ खंजर क्यों है??
नाम से लगते रहे नेता शरीफों जैसे.
काम से वो कभी उड़िया, कभी कंजर क्यों है??
उसने बख्शी थी हमें हँसती हुई जो धरती.
आज…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 9:00am —
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मुक्तिका:
वह रच रहा...
संजीव 'सलिल'
*
वह रच रहा है दुनिया, रखता रहा नजर है.
कहता है बाखबर पर इंसान बेखबर है..
बरसात बिना प्यासा, बरसात हो तो डूबे.
सूखे न नेह नदिया, दिल ही दिलों का घर है..
झगड़े की तीन वज़हें, काफी न हमको लगतीं.
अनगिन खुए, लड़े बिन होती नहीं गुजर है..
कुछ पल की ज़िंदगी में सपने हजार देखे-
अपने न रहे अपने, हर गैर हमसफर है..
महलों ने चुप समेटा, कुटियों ने चुप लुटाया.
आखिर में सबका…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 9, 2010 at 8:57am —
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वो कौन है जिसकी याद सताती है हमें|
न जाने किस तरफ ये रोज बुलाती है हमें||
खोजता हूँ मै उसे मिलती नहीं वो मुझको|
रात को लेकिन चुपके से जगाती है हमें||
कहीं मिले जो कभी मुझसे साफ़ कह दूँ मैं|
की कौन है और ऐसे सताती है हमें||
देर तक तन्हा बैठ कर के यूँ ही सोचते हैं|
फिर याद उसकी जमीं महफ़िल में लाती है हमें||
फूल के जैसे खिल के वो मेरे सिने में|
साथ हूँ इसका एहसास कराती है हमें||
एक अनजान सहारा सी बन गयी है वो|
अश्क…
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Added by आशीष यादव on October 9, 2010 at 8:52am —
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कोल्हू चाक रहट मोट की आवाज़ें,
शहरों से आयातित चोट की आवाज़ें.
मान मनोव्वल कुशलक्षेम पाउच और नोट ,
सबके पीछे छिपी वोट की आवाज़ें.
लूडो कैरम विडियो गेम के पुरखे हुए ,
बच्चों के हांथों रिमोट की आवाज़ें.
ध्यान रहे इस ताम झाम में दबें नहीं ,
आयोजन में हुए खोट की आवाज़ें .
मजबूरी में बार गर्ल बन बैठी वो ,
सिसकी पर भारी है नोट की आवाज़ें.
बेटा नहीं नियम से आता मनी-ऑर्डर,
कौन सुनेगा दिल के चोट की आवाज़ें.
मेरी…
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Added by Abhinav Arun on October 9, 2010 at 8:30am —
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शक्ति की आराधना का पर्व आरंभ हो चुका है. नव दिन तक हम माँ की पूजा अर्चना करेंगे. हमारे यहाँ कन्या को भी देवी के रूप में माना जाता है और इसी लिए हम नवरात्रा के अंतिम दिन कन्या पूजन करने के बाद ही पर्व समाप्त करते हैं, किंतु यह आश्चर्य और दुख की बात है कि जो समाज कन्याओं को देवियों के रूप में पूजता है वही समाज कन्या भ्रूण हत्या का भी अपराधी बनता जा रहा है.
आइए इस पर्व पर हम सब माँ दुर्गा की सौगंध खा कर यह संकल्प लें कि हम ना तो अपने परिवार में कन्या भ्रूण हत्या के दोषी बनेगे और ना ही…
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Added by Pooja Singh on October 9, 2010 at 12:30am —
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आदि शक्ति वंदना
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
आदि शक्ति जगदम्बिके, विनत नवाऊँ शीश.
रमा-शारदा हों सदय, करें कृपा जगदीश....
*
पराप्रकृति जगदम्बे मैया, विनय करो स्वीकार.
चरण-शरण शिशु, शुभाशीष दे, करो मातु उद्धार.....
*
अनुपम-अद्भुत रूप, दिव्य छवि, दर्शन कर जग धन्य.
कंकर से शंकर रचतीं माँ!, तुम सा कोई न अन्य..
परापरा, अणिमा-गरिमा, तुम ऋद्धि-सिद्धि शत…
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Added by sanjiv verma 'salil' on October 8, 2010 at 5:30pm —
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अश्क आँखों में लेकर मुस्कुराता हूँ मैं.
गीत बहारों का पतझड़ में गाता हूँ मैं.
उठ गया है यकीं अब किनारों से मेरा,
मझधार में अपनी कश्ती लगाता हूँ मैं.
राहों से गुम होने लगे है दरख्तों के साए,
धुप को ही सेहरा सर का बनाता हूँ मैं.
नहीं छोड़ा शराफत ने मुझको कही का,
रस्म उल्फत का फिर भी निभाता हूँ मैं.
दूर तलक नहीं दिखते है खुशिओं के बादल,
गम से ही अपने दिल को बहलाता हूँ मैं.
"नूरैन" आबो हवा है ज़माने का… Continue
Added by Noorain Ansari on October 8, 2010 at 12:30pm —
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जय माँ दुर्गे -जय महाकाली, जय माँ -जय माँ जय शेरावाली.
तू दानी माता महारानी, बाकी सब ही सवाली.
जय माँ दुर्गे --------------------------------------------------
तुम्हरी शरण में जो भी आते , जो भी तुमसे नेह लगाते.
तुम्हरी महिमा को नहीं जाने, मईया सब तुम्हरे गुण गाते.
हाथ पसारे सब ही आते - जाते ना पर खाली.
जय माँ दुर्गे ---------------------------------------------
शेर सवारी- भुजा कटारी, मुंडमालिनी-खप्परधारी.
ऐसा कौन जो तुमसे बचा हो , सब दुष्टन पर तुम हो…
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Added by satish mapatpuri on October 8, 2010 at 12:07pm —
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जनाब नवीन चतुर्वेदी जी
खारों के पास ही नाज़ुक गुलों का घर क्यूँ है|
मुद्दतों से वही मसला, वही उत्तर क्यूँ है|१|
पेट भरता चला आया युगों से जो सब का|
भाग्य में उस अभागे के, फकत ठोकर क्यूँ है|२|
सालहासाल जिसके वोट खींच रहे - संसद|
'थेगरों' से पटी उसकी शफ़क चद्दर क्यूँ है|३|
और कितनी बढ़ाएगा बता कीमत इसकी|
दृष्टि में तेरी, मेरे भाग की शक्कर क्यूँ है|४|
जो कि अल्लाह औ भगवान दोनो हैं इक ही|
फिर जमीँ पे कहीं…
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Added by योगराज प्रभाकर on October 8, 2010 at 10:30am —
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दराज़ पलकें, हसीन चेहरा, वो दिलकशी और वो जो नजाकत |
कोई अगर लाजवाब हो तो, वो आवे देखे जवाब अपना ||
न मयकदा कोई रहना बाकी, न मयकशी न कहीं हो साकी |
अगर पलट दे मेरा ये दिलबर, जरा रुखों से नकाब अपना ||
खनकती आवाज़ शीशे जैसी, लचकती सी चाल हाय रब्बा |
वो माथे पे झूले नाग बच्ची, समझ के जुल्फों को नाग अपना ||
किसी मुस्स्विर का ख्वाब वो है, किसी तस्सवुर की है हकीकत ||
अगर कभी उसको देख ले तो,…
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Added by DEEP ZIRVI on October 8, 2010 at 7:00am —
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राज़ दिल का छुपाया बहुत है
आंसुओं को सुखाया बहुत है
मै समझता था जिसको शनासा
आज वो ही पराया बहुत है
मैंने जिसको हसाया बहुत था
उसने मुझको रुलाया बहुत है
अब कोई और खेले न दिल से
ये किसी ने सताया बहुत है
कर चला है वो नाराज़ मुझको
मैंने जिसको मनाया बहुत है
उसके लफ्जों में हूँ आज भी मै
वैसे उसने भुलाया बहुत है
तेरी संजीदगी कह रही है
तू कभी मुस्कुराया बहुत है
क्या हुआ जो समर अब नहीं…
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Added by Hilal Badayuni on October 7, 2010 at 11:05pm —
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सब के रब !दूर हर इक मन का धुंधलका करदे
आईने पर है जमी धुल जो सफा कर दे
नफस में कीना है ; सीने में है जलन नफरत ;
इन आफतों को क्रीम मौला तू दफा कर दे ..
नफस बीमार है चंगा तो बशर दीखता है ;
तू नफस और बशर दोनों को चंगा कर दे
अपने ही हाथों से कर डालें ना खुद को घायल ;
तू भले और बुरे से हमें आगाह कर दे
बन के मजनूं न फिरे कोई जख्म न खाए ;
सब कि आगोश में तौफीक की लैला कर दे
खुद से बेगाना हुआ फिरता है जो ,तू खुद ही ;
उन को खुद से मिला कर के तू…
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Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 10:43pm —
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हाँ मै ने भी किया है प्रेम, मै ने भी पिया है प्रेम रस ;
मेरी प्रेयसी नित नूतन सद सनातन ;किन्तु पुरातन
कोमल भाव की सरस सरिता ,निज चेतना निज प्रेयसी .
मंथर कभी तीर्व कभी ,होती है चंचल सी गति .
निज प्रेयसी निज चेतना ;
प्रथम प्रेम का प्रथम पल्लव ,पल्लवित कुसमित प्रेम अविलम्बित .
निज धारणा निज चेतना ,प्रखर गुंजन से गुंजित ,
वल्लरी प्रेम कुसुम सुरभित ,अमर प्रेम की सी थाती .
प्रेम दीप की वो बाती;निज चेतना प्रिय…
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Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:09pm —
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भ्रमर
मेरा मन
पतंगे सा कोमल
भ्रमर सा चंचल
अस्थिर
पारे सम
कोशिश करे
कैद करने की
इस मन को तेरा मन
पर
पारे सम
मेरा मन
न हो सके गा स्थिर
न ही
बंदी बन पाए गा कभी
जैसे कि भ्रमर
किसी उपवन का
----
यह भ्रमर नहीं है उपवन का
भ्रमर है ये मेरे मन का
स्वछन्द
हवा सम
स्व्त्न्त्त्र रहेगा यह
---
दीप जीर्वी
Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:06pm —
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मैं तुझे ओढ़ता बिछाता रहू
तुम से तुम को सनम चुराता रहू .
तू मेरी ज़िन्दगी है जान.ए.गज़ल
ज़िन्दगी भर तुझे ही गाता रहू.
तुम यूँही मेरे साथ साथ चलो ,
मैं जमाने के नभ पे छाता रहू .
गुल जो पूछे कि महक कैसी कहो?
तेरी खुशबु से मैं मिलाता रहू .
ऐ मुहब्बत नगर की देवी सुनो ,
तेरे दर पर दीप इक जलाता रहू
दीप जीर्वी
Added by DEEP ZIRVI on October 7, 2010 at 8:05pm —
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घास कहीं भी उग आती है
जहाँ भी उसे काम चलाऊ पोषक तत्व मिल जाँय,
इसीलिए उसे बेशर्म कहा जाता है,
इतनी बेइज्जती की जाती है;
घास का कसूर ये है
कि उसे जानवरों को खिलाया जाता है
इसीलिए उसकी बेइज्जती करने के लिए
मुहावरे तक बना दिये गए हैं
कोई निकम्मा हो तो उसे कहते हैं
वो घास छील रहा है;
जिस दिन घास असहयोग आन्दोलन करेगी
उगना बन्द कर देगी
और लोगों को अपने हिस्से का खाना
जानवरों को देना पड़ेगा
अपने बच्चों को दूध पिलाने के…
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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on October 7, 2010 at 8:00pm —
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फुलेनवा ,
आज मेरा मन द्वन्द में भटक रहा था ,
करे या ना करे इसी पे अटक रहा था ,
कारन फुलेनवा के घर में था ,
और सामने पानी और मिठाई पड़ा था ,
आज कोल्कता में मैं हु ये भी हैं ,
आज से पैतीस साल पहले की घटना ,
मेरे मानस पटल में चमक रहा था ,
फुलेना खेतो में हल चलते थे ,
और हम भी बाबु जी के साथ ,
उन्हें खाना खिलने जाते थे ,
उनके साथ बैठ कर मैं खाने लगता ,
और ओ कहते बाबु हम अछुत हैं ,
मैं हसता और बस खाया करता ,
और आज उनके ही हाथ के…
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Added by Rash Bihari Ravi on October 7, 2010 at 6:30pm —
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एक दिन बिजली के जाने पर
ढूंढ रहा था
प्रकाश का साधन
करने को
तमस निस्तारण
तभी हाथों से
कोई चीज टकराई
देखा
पुराना दीया
जिस पर हरा काला
मैल बैठा हुआ
झंकृत कर गया मुझे
याद मेरे बचपन का
इसी दीये तले
पाया ज्ञान का प्रकाश
मैं क्या
मुझसे भी पहले
औरों ने भी इसी दीये
के आँचल तले
आँखों को काले धुँए में
झोंकते हुए
पाया अपने लक्ष्य को
वही दीया न…
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Added by Shashi Ranjan Mishra on October 7, 2010 at 4:35pm —
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सब भर जाएगा !
रॉबिन तुम एकदम रॉबिन चिड़िया जैसे हो
छल्लेदार बाल , अकसर लाल रहने वाली दो गोल बड़ी आँखें
कभी उंघते नहीं देखा तुम्हे
माँ को कभी उठाना नहीं पड़ता
मुर्गे की एक सरल बांग पर उमड़ जाती है सुबह
और तुम नंगे पैर ही दौड़ जाते हो सागर के अंचल पर
अंतहीन बढ़ते कदम
रेत पर छापती चलती हैं नन्ही इच्छाओं के पैर
तुम चलते कहाँ…
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Added by Aparna Bhatnagar on October 7, 2010 at 7:00am —
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