नीला रंग अम्बर पे धरा हरियाली छायी है
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 7, 2012 at 7:26pm — 1 Comment
Added by Sulabh Jaiswal on March 7, 2012 at 5:08pm — 2 Comments
आपको और आपके परिवार को रंगों के त्यौहार होली की हार्दिक शुभकामनाएं
हम खुशनसीब है कि जिंदगी ने हमको अपने गिले-शिकवे दूर करने का एक और मौका दिया है। माना जाता है कि रंगो की होली में गिले-शिकवे बह जाते है। भले ही दिखावे के लिए ही सही, लोग एक-दूसरे के गले मिलकर होली की बधाई के साथ-साथ अपने को पाक-साफ बताते है, तो इसमें क्या बुरा है। आखिर होली का मकसद ही है बैर-भाव भुला कर प्यार से एक-दूसरे के गले लग जाना। वैसे भी दिखावे का जमाना है, तो दिखाने के लिए ही सही, कुछ बुराई तो कम होगी ही हमारे…
ContinueAdded by Harish Bhatt on March 6, 2012 at 9:43am — 1 Comment
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 5, 2012 at 3:50pm — 11 Comments
हर सोच, हर कल्पना, हर विचार पर हजारों पन्ने लिखे जा चुके है. कुछ लोगों की दुष्ट मानसिकता की बदौलत आज तक भी हम गुलामी की मानसिकता से पूरी तरह नहीं उबर पाए है. समय के साथसाथ गुलामी की परिभाषा भी बदल गई. पहले विदेशियों का कब्जा होने से हम गुलाम थे. उनको खदेड़ा, तो अब यहां धार्मिक, राजनैतिक ताकतों के गुलाम हो गए. जो इनकी सीमाओं से बाहर रहने का साहस दिखाए, वह समाज के अयोग्य नागरिकों में शामिल कर दिया जाता है. बहरहाल बात यह है कि कुछ लोग अपने जीवनकाल में वह मुकाम हासिल करते है, जिनके आचरण को आदर्श…
ContinueAdded by Harish Bhatt on March 5, 2012 at 1:32pm — 3 Comments
Added by satish mapatpuri on March 4, 2012 at 5:20pm — 7 Comments
ग़ज़ल- गालियों से पेट भर रोटी नहीं तो क्या हुआ
ये व्यवस्था न्याय की भूखी नहीं तो क्या हुआ ,
गालियों से पेट भर रोटी नहीं तो क्या हुआ |
पार्कों में रो रही हैं गांधियों…
ContinueAdded by Abhinav Arun on March 4, 2012 at 10:43am — 18 Comments
Added by Lata R.Ojha on March 4, 2012 at 2:30am — 11 Comments
इलाहाबाद। एक पुलिसकर्मी हमेशा डंडा ही नहीं चलाता बल्कि कलम उठाकर अपनी अभिव्यक्ति भी खूबसूरती से व्यक्त कर सकता है। इश्क सुल्तानपुरी ने इस को बेहतरीन ढंग से करके दिखाया है। इन्होंने अपनी काव्य सृजन की क्षमता से लोगों को अवगत करा दिया है। यह बात डीआईजी कार्मिक श्री लाल जी शुक्ल ने ‘गुफ्तगू’ के इश्क सुल्तानपुरी अंक के विमोचन के अवसर पर कही। उन्होंने कहा कि इश्क साहब की शायरी को लोगों तक लाने में गुफ्तगू पत्रिका ने महत्वपूर्ण भूमिका…
ContinueAdded by वीनस केसरी on March 3, 2012 at 9:30pm — 7 Comments
अपनों से जुदा अपने,होते हैं कहां प्रियवर।
अनमोल रतन धन,खोते हैं कहां प्रियवर॥
नजरों से दूरी तो,दूरी ही नहीं होती।
दिल से अलग अपने,होते हैं कहां प्रियवर॥
आंखों में आंसू हैं,अपनों के लिए ही हैं।
गैरों के लिए हम,रोते हैं कहां प्रियवर॥…
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 3, 2012 at 9:30pm — 15 Comments
भूला कहाँ हूँ कच्चा घर अपने गाँव का ||
जो बना था लकड़ी का दर अपने गाँव का ||
थी वो महकती मिटटी और वो कच्ची गली ,
घूमे ख़्यालों में मंज़र अपने गाँव का ||
आँखे हुई नम , देखकर पानी बरसात का ,
जो याद आये जोहड़ अक्सर अपने गाँव का ||
जब…
ContinueAdded by Nazeel on March 3, 2012 at 7:00pm — 11 Comments
प्रथम पुष्प अर्पित तुमको, मसलो या श्रृंगार करो,
आया तेरे द्वार प्रभु, मेरा बेड़ा पार करो ,
चाहत थी जीवन की मेरी, दुखियों का दर्द उधार लूं
उजड़ चुके है जिनके घर,…
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on March 3, 2012 at 3:00pm — 26 Comments
विकल्पों की इस दुनियां में
बेरस से इस जहां में
तुम्ही कहो क्यों ढूँढूँ विकल्प तुम्हारा
तुम ही तो वो लम्हा हो
जिसे जीया है मैने
तुम्हारी ही सॉसों के बिगङते तरन्नुम को
तो गीतों में पिरोया है मैंने
तुम्ही पर छोङ रखी है हर ख्वाहिश
एक ही तो है सपना,जिसे तुम्हारी ही
आंखों से देख रखा है मैने
तुम्हारे ही हर लफ्ज को कैद रखा है दिल में,
जिसे तुम्हारा ही आशियां बनाया है मैने
तुमसे ही तो खुशियों-गमों का रिश्ता…
ContinueAdded by minu jha on March 3, 2012 at 1:00pm — 26 Comments
फूटा ठीकरा
शेख बच निकला
तू था मुहरा
ढूंढ़ बकरा
शनैः रेत लो गला
दे चारा हरा
बेजुबाँ खरा
हक माँगने लगा
तो दोष भरा
अना दोहरी
नश्तर सी चुभन
दगा अखरी!
यहाँ खतरा
ईश्वर हुआ अंधा
इन्सां बहरा
यार बिसरा
अब यहाँ क्या धरा
चलो जियरा
छटा कुहरा
छद्म बंधन मुक्त
पिया मदिरा
समा ठहरा
इंद्रधनुषी दुनिया
नशा…
Added by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on March 3, 2012 at 10:30am — 17 Comments
Added by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on March 3, 2012 at 1:30am — 13 Comments
Added by dilbag virk on March 2, 2012 at 8:42pm — 6 Comments
वक़्त का वज़ूद
वक़्त की बेलगाम रफ़्तार का वज़ूद
दिखता है चेहरे की गहराती लकीरों में
या मिलता है जीवन की भूलभुलैया में
स्नेहसिक्त माँ की आँचल में मौज़ूद
है अब भी मेरे होने की महक
सन्नाटों में गूँजती है मेरी चहक ।
चलती थी एक गुड़िया उँगलियों को थामे
उन काँपती बेजान हाथों की नरमी
और छुपी उनमे उनके नेह की गरम
उन्हीं थापों से बीतती हैं रातें ,हँसती है शामें ।
चराचर का भेद समझा जब ज्ञानदीप से
जीवन को गुज़रता देखा सामने से
अतीत के गर्त में…
Added by kavita vikas on March 2, 2012 at 7:34pm — 6 Comments
Added by MAHIMA SHREE on March 2, 2012 at 5:52pm — 9 Comments
1.
प्रकृति प्यारी
रुई बिछी धरती
ये बर्फ़बारी .
२.
मुखौटे छाए
जनमानस लुटा
चुनाव आये .
३.
उड़ते गिद्ध
फिर मारा आदमी
लो आया युद्ध .
४.
ये दुपहरी
अलसाया शरीर
जेठ का माह .
रचयिता : डा अजय कुमार शर्मा
Added by Dr Ajay Kumar Sharma on March 2, 2012 at 5:26pm — 6 Comments
यही है ख़ुदाई उसकी, छोटी सी ये इल्तजा,
जो कभी की थी उससे, पूरी वो न कर सका;
तेरे मेरे बीच हैं अब, मीलों के फ़ासले
कभी सामने थे तुम, आज हो गए परे
तेरे मेरे बीच…
Added by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on March 2, 2012 at 2:00pm — 21 Comments
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