Added by Er. Ambarish Srivastava on April 6, 2012 at 1:13pm — 14 Comments
Added by Mukesh Kumar Saxena on April 6, 2012 at 1:00pm — 8 Comments
Added by RAJEEV KUMAR JHA on April 6, 2012 at 10:30am — 16 Comments
हम पंछी एक डाल के
Disclaimer:यह कहानी किसी भी धर्म या जाती को उंचा या नीचा दिखाने के लिए नहीं लिखी है, यह बस विषम परिस्थितियों में मानवी भूलों एवं संदेहों को उजागर करने के उद्देश्य से लिखा है. धन्यवाद.…
ContinueAdded by राकेश त्रिपाठी 'बस्तीवी' on April 6, 2012 at 10:00am — 19 Comments
ये झुग्गियां
बांस और फूस से बनी,
चटाई से घिरी
गंदे स्थान पर,
शहर के कोढ़ की तरह
दिखती हैं.
ये झुग्गियां
बड़ी अट्टालिकाओं के
आजू-बाजू,
जैसे ये
उनका मुंह चिढ़ा रही हों!
इन झुग्गियों में रहने वाले
मिहनत-कश इंसान होते हैं
महलों को बनाने वाले
कारीगर होते हैं
सपनो के बाजीगर होते हैं
ये सजाते है
सेहरे, डोलियाँ,सेज
ये सजाते हैं
मंच, आयोजन स्थल, प्रवचनशाला
ये बिखेरते है खुशबू, फूलों की
करते है इत्र से…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on April 6, 2012 at 8:37am — 16 Comments
कुछ नहीं बिगाड़ सकी,
मेरा,
सिकंदर की तलवार|
हाँ,झेला है मैंने –
सेल्युकस की रार|
नादिरशाही तलवारों की…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 5, 2012 at 9:30pm — 9 Comments
(मात्रिक छंद)
उल्लाला = १५,१३ मात्रा
(मैथिली शरण गुप्त जी ने इस छंद पर कई रचनाएँ लिखी है)
(तुम सुनौ सदैव समीप है,जो अपना आराध्य है.)
*******************************************************
नहीं बड़ा परमार्थ से अब , धर्म …
Added by CA (Dr.)SHAILENDRA SINGH 'MRIDU' on April 5, 2012 at 9:00pm — 29 Comments
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.
होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.
संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.
रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.
ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.
सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.
देख तुमको…
ContinueAdded by satish mapatpuri on April 5, 2012 at 6:58pm — 13 Comments
ओ बी ओ मंच के सुधिजनों पिछले दिनों एक रचना पोस्ट की थी जिसे दुर्भाग्यवश मुझे डिलीट करना पड़ गया था| उसी रचना को आधार मान कर एक और रचना की है उन दोनों को ही यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ दोनों एक ही बह्र और एक ही काफ़िये पर आधारित हैं| पहली रचना कुछ दिन पूर्व ओ बी ओ पर ही प्रकाशित की थी दूसरी अभी हाल में ही लिखी है| मैं नहीं जानता कि ये दोनों ग़ज़ल की कसौटी पर खरी उतरती हैं या नहीं| मंच पर उपस्थित विद्वतजनों से आग्रह है कि वे मुझे मेरी त्रुटियों से अवगत कराएँ और मार्गदर्शन करें| विशेष तौर पर प्रधान…
ContinueAdded by संदीप द्विवेदी 'वाहिद काशीवासी' on April 5, 2012 at 2:30pm — 41 Comments
खोलो मन की सांकल को ,
जरा हवा तो आने दो ,,
निकलो घर से बाहर तुम ,
शोख घटा को छाने दो ,,…
Added by अश्विनी कुमार on April 5, 2012 at 2:11pm — 24 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 5, 2012 at 12:28pm — 5 Comments
हर मजहब के दुःख -दर्द एक सामान होते हैं
फिर क्यूँ पराई पीर से हम अनजान होते हैं
क्यूँ फेंकते पत्थरों को हम उनके घरों पर
जब खुद के भी तो शीशों के मकान होते हैं
उन लोगों की कम सोच का क्या करियेगा
जिनकी वजह से रिश्ते कुछ बेजान होते हैं
बन जाते हैं वो सफ़र में मुसीबतों के सबब
कई दफह जब रास्ते बेहद सुनसान होते हैं
मत छूना कभी जो लावारिस पड़े हैं राह में
मुमकिन हैं छुपे मौत का वो सामान होते हैं
मिलके गले वो घोंप दे खंजर ये क्या पता…
ContinueAdded by rajesh kumari on April 5, 2012 at 11:30am — 16 Comments
जय जय ओ.बी.ओ. जय जय ओ.बी.ओ.
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 5, 2012 at 11:30am — 10 Comments
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on April 5, 2012 at 10:52am — 5 Comments
जय...जय...जय...ओ बी ओ l
यहाँ शरण में जो भी आया
ओ बी ओ ने गले लगाया l
इस मंदिर में जो भी आवे
रचना नई-नई लिखि लावे l
जो भी इसकी स्तुति गावे
नई विधा सीखन को पावे l
संपादक जी यहाँ पुजारी
उनकी महिमा भी है न्यारी l
जिसकी रचना प्यारी लागे
पुरूस्कार में वह हो आगे l
प्रबंधकों की अनुपम माया
भार प्रबंधन खूब उठाया l
जय...जय...जय..ओ बी ओ l
-शन्नो अग्रवाल
Added by Shanno Aggarwal on April 5, 2012 at 2:00am — 14 Comments
मुक्तिका
संजीव 'सलिल'
*
लिखा रहा वह, हम लिखते हैं.
अधिक देखते कम लिखते हैं..
तुमने जिसको पूजा, उसको-
गले लगा हमदम लिखते हैं..
जग लिखता है हँसी ठहाके.
जो हैं चुप वे गम लिखते हैं..
तुम भूले सावन औ' कजरी
हम फागुन पुरनम लिखते हैं..
पूनम की चाँदनी लुटाकर
हँस 'मावस का तम लिखते हैं..
स्वेद-बिंदु से श्रम-अर्चन कर
संकल्पी परचम लिखते हैं..
शुभ विवाह की रजत जयन्ती
मने- ज़ुल्फ़ का ख़म…
Added by sanjiv verma 'salil' on April 4, 2012 at 8:30pm — 8 Comments
(ओ.बी.ओ. का अपना बैज है. ये रचना ओ.बी.ओ. गीत हेतु तैयार की है.)
भटकता फिर रहा था न जाने कब से भीड़ में एक आस लिए
मुट्ठी भर पा जाऊं धरा औ ज्ञान की एक बूँद का विश्वास लिए
मिली जानकारी जब कि ओ.बी.ओ. एक ऐसा आधार है
गुनी जनों के सानिध्य मिले तो अवश्य तेरा बेडा पार है
गजल छन्द और कई भाषाओँ के हैं विधान यहाँ ,
कहानी और कविता का मिलता है ऐसा ज्ञान कहाँ
नए पुराने और धर्म जाति का न कोई भेद यहाँ
वो जगह बताएं…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on April 4, 2012 at 6:00pm — 10 Comments
तीन वर्ण और
एक मायावी शब्द ,
Added by rajesh kumari on April 4, 2012 at 10:31am — 10 Comments
पुनः लुंठन हो रहा चुपचाप हैं हम|
अक्षमाला पर मरण के जाप हैं हम|
चिर विकेन्द्रीकृत हुई केन्द्रीय सत्ता,
नव्य युग, प्राचीनता के सांप हैं हम|
…
Added by मनोज कुमार सिंह 'मयंक' on April 4, 2012 at 10:30am — 10 Comments
यह क्या
ऐसा तो न सोचा था
यह तो धोखा हो गया
बच्चा समझ के बहलाया नानी ने
दूर एक ग्रह को बनाया था मामा
रोज रात में बताती थी मुझे
देखो आसमां में जो चमक रहा है
वह हैं सबका प्यारा चंदामामा
धीरे-धीरे अक्ल आने लगी
नानी का झूठ समझ आने लगा
क्यों बोला झूठ उन्होंने
बच्चा जान बहलाया मुझे
लेकिन कहते है
प्यार में होता है सब जायज
यह बात भी समझ आती है
जब बचाना होता है गृह अपना
तब लेता हूं झूठ का सहारा
और कहता हूं अपनी…
Added by Harish Bhatt on April 4, 2012 at 2:52am — 2 Comments
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