तेज़ हवा और एक ही तीली बाबाजी
फिर भी हमने बीड़ी पी ली बाबाजी
घर की सादी छोड़ के बाहर मत ढूंढो
रंग-रंगीली, छैल-छबीली बाबाजी…
Added by Albela Khatri on June 5, 2012 at 8:00pm — 13 Comments
५-जून ( विश्व पर्यावरण दिवस के उपलक्ष्य में)
Added by Dr.Prachi Singh on June 5, 2012 at 6:30pm — 12 Comments
भंगुरता सी प्रतीत हो रही
जब भी जिंदगी को सोचता हूँ
रोज की जद्दोजहद में फंसा मैं
मस्तिष्क पटल को नोचता हूँ
उतार चढ़ाव से उतना नहीं परेशान
लेकिन कुछ छूट रहा सा लग रहा है
डग लम्बे भर रहा लेकिन
मंजिल और दूर सी लग रही है
बहुत हिम्मत करके कभी कभी
आँगन में नए पौधे लगाता हूँ
बिखरे हुए सपनो को सामने करके
नयी दिशा को पग बढ़ाता हूँ
लेकिन परिवार और समाज में बंधा
मुल्ला की…
Added by AJAY KANT on June 5, 2012 at 5:30pm — 4 Comments
//घुप्प अँधेरा, उफनता तूफ़ान, कर्कश हवाओं कि साँय-साँय, पागल चड चडाती दरख्तों की शाखाएं. किसी भी क्षण उसके सर पर आघात करने को उदद्यत, पर उसके कदम अनवरत गति से बढ़ते जा रहे हैं. काले स्याह मेघ कोप से उत्तेजित हो परस्पर टकरा टकरा कर दहाड़ रहे हैं, जिसकी आवाज ने उन दोनों की साँसों की आवाज को निगल लिया है. दामिनी थर्रा रही है गिडगिडा रही है, उसके चेहरे को देखने को व्यग्र शनै -शनै अपना प्रकाश फेंक रही है. पर उसका मुख घूंघट से ढका है, हाँ एक नन्ही सी जान एक कपडे में लिपटी हुई उसकी छाती…
Added by rajesh kumari on June 5, 2012 at 2:30pm — 14 Comments
''''''''''''''''''''''''''''''''२ मुक्तक '''''''''''''''''''''''''''''''''''
१.
नित बातों से रस बहता है, जैसे तुम मधु हो मधुवन की
मैं देखूं मुख इक टक तेरा ,खिलती सी कली हो उपवन की
ते तन तेरा ये मन तेरा, दूरी मत देना इक पल की
तुम से ही चलती हैं साँसें, इक तुम ही जरुरत…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 5, 2012 at 1:44pm — 5 Comments
आज बनूँगा मै विद्रोही, अब विद्रोह कराऊँगा|
जो सबके ही समझ में आये, ऐसे गीत सुनाऊँगा||
बहुत हो गया अब न रुकूँगा, मै रोके इन चट्टानों के,
बहुत बुझ चुका अब न बुझूँगा मै पड़कर इन तूफानों मे।
कर के हलाहल-पान आज मै होके अमर दिखा दूँगा,
और बुलबुलों को बाजों से लड़ना आज सिखा…
Added by आशीष यादव on June 5, 2012 at 8:00am — 19 Comments
मुक्तिका:
मुस्कुराते रहो...
संजीव 'सलिल'
*
मुस्कुराते रहो, खिलखिलाते रहो
स्वर्ग नित इस धरा पर बसाते रहो..
*
गैर कोई नहीं, है अपरिचित अगर
बाँह फैला गले से लगाते रहो..
*
बाग़ से बागियों से न दूरी रहे.
फूल बलिदान के नव खिलाते रहो..
*
भूल करते सभी, भूलकर भूल को
ख्वाब नयनों में अपने सजाते रहो..
*
नफरतें दूर कर प्यार के, इश्क के
गीत, गज़लें 'सलिल' गुनगुनाते रहो..
***
Added by sanjiv verma 'salil' on June 5, 2012 at 7:34am — 9 Comments
दहशत-वहशत, ख़ूनखराबा बाबाजी
गुंडई ने है अमन को चाबा बाबाजी
काम से ज़्यादा संसद में अब होता है
हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा बाबाजी
मैक्डोनाल्ड में…
Added by Albela Khatri on June 4, 2012 at 11:30pm — 25 Comments
"""गिरधर ओ मेरे श्याम तुमसे कायनात है
ये सब है तेरा ही करम तुमसे हयात है""""
खुश्बू से तेरी जब कभी मैं रू-ब-रू हुआ
दामन-ए-हिरस-ओ-हबस बे आबरू हुआ
किस्से मैं तेरे सुन रहा हूँ एहतिराम से
पाना है तुझे अब मेरी तू जुस्तजू हुआ
रहमत की नज़र हर्फों में कैसे बयाँ करूँ
आँखों को भिगो कर हमेशा बावजू हुआ
जादू सा तेरा ये करम मैं किस तरह कहूँ
ख्वाबों में दिखा जो वही तो हू-ब-हू…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 10:30pm — 6 Comments
डॉलर के कॉलर खड़े,रूपया है कमजोर.
Added by AVINASH S BAGDE on June 4, 2012 at 7:30pm — 10 Comments
तीक्ष्ण और पवित्र बुद्धि
Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on June 4, 2012 at 7:16pm — 7 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on June 4, 2012 at 12:30pm — 23 Comments
इन नैनों की खिड़की से, देखा इक योवन आला |
पग पग चल कर आई है , जैसे कोई सुरबाला ||
पुष्पलता सम तन तेरा, मुख चंदा सा उजियाला |
माथा सूरज सा दमके, आँखें लगती मधुशाला ||
निर्झर चाहत का जल हो, तुम हो अमृत सी हाला |
पीकर मन नहिं भरता है, फिर भर लेता हूँ प्याला ||
झूमूं गलियों गलियों में, जपता हूँ तेरी माला |
कोई पागल कहता है , कोई कहता मतवाला ||
सपनों की तुम रानी हो, मन है तेरा सुविशाला…
Added by SANDEEP KUMAR PATEL on June 4, 2012 at 12:30pm — 6 Comments
अग्नि प्रज्वलित हुई धरा पर
परिवर्तन एक गढ़ने को
चला काफिला जनतंत्री का
अब नव चिंतन करने को
नकली रूपया नकली वस्तु
खेल हो रहा ठगने को
महंगाई है खून चूसती
बढ़ रही पिसाचिन मरने को…
Added by UMASHANKER MISHRA on June 4, 2012 at 11:30am — 17 Comments
यह कविता मेरे पापा की लिखी हुई है और मै इसे उनकी सहमती से पोस्ट कर रही हूँ |
Added by Rekha Joshi on June 4, 2012 at 11:14am — 14 Comments
मेरा अंतर्विरोध ,
लिबलिबी उत्तेजित ट्रिगर दबी पिस्तौल है !
जब भी जमने लगता है प्रशस्तर ,
अहसासात की रूमानियत और इंसानियत पर,
तत्क्षण वँही ठोक देता है धांय-धांय,
ढेर कर देता है सारा व्रफुरपन मेरा अंतर्विरोध !
बदन के कुएं में जब भरने लगता है झूठ
सारी काली कमाई गंदे खून की चूस लेता है मेरा अंतर्विरोध !
भर देता है जाकर कान आईने के मेरा अंतर्विरोध ,
फिर घुसकर आईने में तडातड झापट रसीद करता है चेहरे पर ,
जैसे मल्लयुद्ध कोई,यूँ धोबी पछाड़ लगा पटक…
Added by chandan rai on June 4, 2012 at 10:26am — 18 Comments
हे अभी.
आपकी बहुत याद आ रही है दिल बार-बार सोच रहा है क्या करूँ .आपके बारे में तरह -तरह के ख्याल दिल में आ रहे है ! सोचता हूँ की येसा कैसे हो सकता है की जो इंसान एक दुसरे के देखे बगैर उसे कभी चैन नहीं पड़ता था,बगैर बाते किये खाने का एक निवाला नहीं लेता था आज ओ इस तरह भूला कैसे दिया ,आखिर उसका दिल भी तो भगवान् ने ही बनाया होगा !
हे अभी.
जो बीत गया ओ कल और जो आज चल रहा है ऐ तो आप अपनी ख़ुशी के खातिर अपनी सुख सुबिधाओ के लिए आप जी रहे हो ! आप ने अपने प्यार और वफा को तो आप अपने पैरो…
Added by Sanjay Rajendraprasad Yadav on June 4, 2012 at 10:25am — 1 Comment
सांसे जब तक चलती हैं
तब तक चलता है
सुख- दुःख का एहसास
मान -अपमान की पीडाएं
उंच -नीच , जात -पात का भेद
सम्पन्नता -विपन्नता का आंकलन
नहीं मिलने मिलाने के उलाहने
प्रतियोगिता की अंधी दौड़
एक दुसरे को मिटा डालने का षड़यंत्र
सांसे जब तक टूटती हैं
उस क्षण को
ग्लानी से भरता है मन
और छोड़ देता है तन को
बची रह जाती है
उसकी कुछ यादें
अंततः कुछ भी नहीं बचता शेष
और फिर से शुरू हो…
ContinueAdded by MAHIMA SHREE on June 3, 2012 at 9:46pm — 26 Comments
नियति तू कब तक खेल रचाएगी
क्या हम सचमुच हैं
तेरे ही कठपुतले
तू जैसा चाहेगी
वैसा ही पाठ सिखाएगी
नियति तू कब तक खेल रचाएगी
कभी कुछ खोया था
कंही कुछ छुट गया था
कभी छन् से कुछ टूट गया था
भीतर जख्मो के कई गुच्छे हैं
गुच्छो के कई सिरे भी हैं
पर उनके जड़ो का क्या
तेरा ही दिया खाद्य औ पानी था
नियति तू कब तक खेल रचाएगी
कंही कुछ मर रहा है
कंही कुछ पल रहा…
ContinueAdded by MAHIMA SHREE on June 3, 2012 at 9:29pm — 11 Comments
मौज कोई सागर के किनारों से मिली
साँसे अपनी दिल के इशारों से मिली
सोंधी सी महक बारिश का इल्म देती है
गुलशन की खबर ऐसे बहारों से मिली
आंधी ने नोच डाले हैं दरख्तों से पत्ते
जुदाई की भनक आती बयारों से मिली
चाँद खुश है रोशन करेगा बज्मे- जानाँ
आस नभ में चमकते सितारों से मिली
हरेक लब उसे अकेले में गुनगुनायेंगे
ऐसी कोई नज्म संगीतकारों से मिली
पंहुच गई है परदेश में निशा की डोली
खबर भोर में आते…
ContinueAdded by rajesh kumari on June 3, 2012 at 9:03pm — 27 Comments
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