(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
कभी-कभी.....
कभी-कभी मेरे दिल में
ऐसे खयाल से क्यों आते हैं
कि मैं कब से उस दरिया के किनारे बैठा हूँ
जिसकी मौजें उठती गिरती
अपनी ही अथाह गहराइयों में खो गयी हैं
और कागज़ की वो कश्ती भी
जिसे भेजाना चाहा था उस पार
अनजान अपरिचित से देश में
अपनी अनबुझी तृषाओं का बोझ देकर
इस उम्मीद से शायद
कि पेड़ों और पहाड़ों के पीछे
जो क्षितिज हर सुबह रौशनी के…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:50pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
इंसाफ....
जिस किसी दयार में बसना चाहा
अजनबी दीवार के सायों ने घेर लिया मुझे
जिस किसी की ऑख से रिश्तों के नक्श चुराये
तेज़ हवाओं ने मिटा दिया उसे
जब कभी अॅधेरी रात में उम्मीदों की शमा रौशन की
मेरी खुद की बीनाई जाती रही
जिस किसी की सम्त रफाकत का इख्दाम किया
हाथों में खार निकल आये अपने
ज़िन्दगी,
अगर यही तेरा इंसाफ है
तो पहले बता दिया होता…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:46pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
पहले भी कई बार...
पहले भी कई बार
जब चाँद का शिकारा
आस्मान से उतर चुका हो
और तारे भी लौट चुके हों घर को
दूर... बाद्लों के पहाड़ के पीछे चिनार की बस्तियों में
जब दूर दूर फैली लबबस्ता खलाओं में
रात ने लिख दी हो ज़िन्दगी की शबनमी नज़्म
जब आहटों से बसी गलियों में
खुलने को हो आये हों
कायनात के सुफैद दरीचे
जब दरख्तों से हवा की सरगोशियों का…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 5:44pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
अक्सरहा टुकड़े टुकड़े ....
रिश्तों को अक्सरहा टुकड़े टुकडे जी कर
अपनी नज़्म की किताब पूरी की है मैंने
एहसासों को रेज़ा रेज़ा सीने से लगा कर
हर्फ के साये में ढाला है
अपनी रायगाँ तमन्नाओं को
आरज़ूओं को यूँहीं वहशतों का नाम दिया
शबोरोज़ के मामूल में कुछ यूँ ही
ज़िन्दगी गुज़ारी है अब तक
जैसे गुमशुदा खला में मेरे नाम का इक बर्ग
दीवानावार हवाओं के दस्त ब…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:49pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
गुम गया है कहीं.....
मेरी ही तन्हाइयों के सिरहाने
एक एहसास कहीं
गुम गया है मेरा
एक मासूम सादासिफत एहसास
जो अब तलक ज़िन्दगी से मेरी निसबत का
एक अकेला शाहिद था
वही एक
रेज़ा-रेज़ा सा एहसास मेरा
जिसे कभी तुमसे चुराया था
ज़िन्दगी भर के लिये
जिसे सहेज कर रखा था अब तलक
खयालों के पैरहन में
वो नन्हा सा मुब्तसिम एहसास
गुम गया है…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:46pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
तगय्युर.....
खण्डहरों में पलने लगे हैं
तामीर के सपने.
उजड़ी बस्तियों में
फिर से कोर्इ खोल रहा है
ज़िन्दगी के ज़ख़ीरे.
वीरान घरों की दहलीज़ पे फिर से
आहटें बसने लगी हैं,
खामोश दरीचों से परदे
सरकने लगे हैं,
छत की चिमनियों से
धुओं का रेला
निकलने लगा है एक बार फिर.
ख़ामोश फ़ज़ाओं में
सय्यारों का झुण्ड
निकलने को…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:43pm — 2 Comments
देख कहीं तेरी देहरी
Added by Sonam Saini on June 29, 2012 at 4:30pm — 16 Comments
(आज से तीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वितृष्णाओं का सफर.....
संवेदनाओं से चलकर
वितृष्णाओं का सफर
अपनी अनुभूतिओं को समेटकर
चल देने की कथा है
जिसमें कदाचित
संबंधों के कंपनशील तंतुओं के
टूट जाने की नियति होती है
जिसमें मैं सदैव की तरह
स्थितियों के विपर्यय से लड़ता
एक रिक्तता के अनुभव में
विलीन हो जाता हूँ
और आत्मवेदना के दवाब की हवा
आलोचना के मौसम में
सघन से सघनतर होती…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:12pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
मुझे प्यार की सज़ा दो.......
तुमसे बगैर पूछे मैंने
तुम्हें सोचा है कई बार
कभी शाम की लम्बी सड़क पे
तन्हा टहलते समनज़ारों तक
कभी रात की सियाह खामोशी में
चहलकदमी करते घर के चौबारे पर
कभी कमरे के रौज़न से
दूर बाहर खलाओं में देखते हुए
कभी शहर की भीड़-भाड़ सड़कों में
दफतर से लौटते हुए
यूँ ही कभी
कुछ करते, कुछ न करते हुए
सोचा है कई बार…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 4:04pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
अपनी हताशा से फिर इक बार उठूँगा....
मैं मानता हूँ,
तुम्हारी उपेक्षा का प्रहार सह न सका
और गिर गया निराशा की कठोर धरा पे
अपनी व्यथा का भार लिए!
मैं मानता हूँ
मेरी पीड़ाका अतिस्राव
अभी और भी दुखायेगा मुझे
जब तुमसे बह कर आने वाली हवा
स्मृतियों का एक पूरा संसार
छोड जाएगी पीछे!
मैं मानता हूँ
अभी और भी जलेंगे
मेरी…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:59pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
सूखे फूल खिल उठेंगे.......
सूखे फूल जो फिर खिल उठेंगे पेड़ों पे
क्षीण आशाएँ जो पुन: जाग जाएँगी हृदय में
भूले रास्ते
जो फिर से आ मिलेंगे मेरी असीम यात्रा पथों से
बिछड़े लोग, छूट गये घर, पुरानी किताबें
जिनसे फिर होगा समागम
जीवन के किसी अकल्पित क्षण में.........
मैं जी रहा हूँ उसी फूल
उन्हीं आशाओं
उन्हीं रास्तों
उन्हीं लोग
उन्हीं घर और किताबों…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:54pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
एक तुम्हारे खत ने....
नदी के वे द्वीप
जो दिशांतर में लुप्त नहीं हुए अभी
संबंधों के निष्कर्ष
जो लिखे नहीं गये अब तक
वे लोग जो अभी
आधे-अधूरे हैं विश्वासों की परिधि में
वे आहटें
जिनके सोते से जागने का भय
आशंकाओं ने संभाल रखा है अब तक
दूरियों के गहराये भँवर
जिनमें अभी शेष नहीं हुआ है सब कुछ
आशा-निराशा की वीथि
सोते जागते के सपने
सच…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:48pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
किंचित इतना है....
इतिहास के भुला दिये जाने वाले चरित्रों की तरह
अपने जीवन की कामना नहीं की है मैंने,
न ही देश और काल की सत्ताओं में लक्षित
अपने सुख दुख के व्यापारों का इष्ट ही
मेरे जीवन का ध्येय है,
मैं यह भी नहीं सोचता कि समय से परे
स्मरणीय लोगों में एक
मेरा जीवन चरित भी उल्लेख्य हो,
मैं अकिंचन हूँ
या अजस्र संभावनाओं का पुंज
इन गहन विवेचनों का…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:42pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
प्रणय.....
जिन संस्कारों ने
जीवन के साहसिक निर्णयों से वंचित रखा अब तक/
जिन इच्छाओं की काल्पनिक प्रतिबद्धताओं ने
वंचना और अवंचना के द्वंद्वों में
सीमायित रखा मुझे/
जो अनाख्यायित जिजीविषा
हर प्रवृति, हर लिप्तता में निभृत रही
और जिनसे उद्भास न हो सका सच का/
जिन मोहों को लेकर जीता रहा
उनका अभिशाप/
जो –दृष्टि नित्यानित्य के विवेक से…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:36pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
क्या होता.....
यदि मैं अनेक सम्पन्नताओं से युक्त भी होता
तो क्या होता
मेरे जीवन में यदि धनाभाव न होता
और स्पृह लोगों की वन्चना न होती
यदि प्रतिदिन की उलझनें ना होतीं संताप देने को
और सब कुछ सुलभ और सुगम भी होता
तब भी जीवन का उतकर्ष अपरिहार्य था....
अपने अस्तित्व से जुड़े भव्य कथानकों का
मेरे पश्चात मूल्य भी क्या होता
इसके अतिरिक्त कि
समीक्षाओं और…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:03pm — No Comments
(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
हताशा...
हर जन्म में
अपने सीमित प्रत्यक्षों से छले जाने के बाद भी
सत्य की अन्येतर संप्रभुता को नकारता रहा हूँ
ये जानते हुए भी कि
संबन्धों का सत्व विषाद से अतिरंजित है
जीवन के विषयीगत समीकरणों में
अनुबध्द होने की चेष्टा करता रहा हूँ
और अनादि काल से
प्रेम के जिस सम्पूरक आधेय की तलाश रही है
उसे वायव्य पिन्डों के सदृश
कभी प्राप्त नहीं कर सका…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 3:00pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
बैचलर.....
मेरे घर भी मनुहारों का खेल होता
मेरे पत्नी होती, मेरे बच्चे होते
कभी बच्चों की किलक, कभी माँ की छीज
घर गृहस्थी के सामानों के अभाव का
कभी होता अनुभव
समय से खाने और
समय से घर लौटने के बंधनों का बोध
कभी यूँ ही छुट्टी के रोज़
देर तक अकर्मण्य बने रहने का सुख होता
और होता
पत्नी की शिकायत और
बच्चों के प्रतिवेदनों में गुम्फित
एक…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:55pm — No Comments
(आज से सत्रह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
वे दिन फिर आयेंगे.....
अनखिली कलियों के वैभव भी
सृजित होंगे कभी किन्हीं जन्मों में
अनकहे शब्दों के अर्थ
और अनसुनी बातों के अभिप्रेय भी
अनिभृत होंगे हमारे मन में
पनप रही मृदुल आशाओं के उत्कर्ष भी
विदित होंगे जीवन में..
जो सानिध्य अधूरा है
और जो सामीप्य अप्राप्य
वे भी नहीं रहेंगे सदैव ऐसे
इन अपरिचित देशों में....
पौष की काली…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:51pm — No Comments
(आज से सत्रह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
आरोप....
तुम्हारी मृदा में उपजे हैं
ये शूल मेरे स्वार्थ के
तुम्हारी हवाओं ने रूक्ष किया है
मेरे अकिन्चन स्पेशों को
तुम्हारे प्रसंगों की कठोरताओं ने
मेरी संरचना को भार दिया
मेरे उच्चारों के प्रपंच
तुम्हारी छलनाओं से ही निगमित हुए हैं.
परिवर्तन की जिस प्रक्रिया ने मुझे
तुमसे एकरूपता दी है
जीवन का जो क्रम
और मूल्यों के जो अर्थ
अब…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:47pm — No Comments
(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
मैं सोचता था.......
मैं सोचता था-
वे दीये बुझ चुके हैं
जिनसे रौशनी नहीं आती
जिनके दरवाज़े बन्द हो चुके हैं
और खिड़कियाँ नहीं खुलीं बरसों से
उन घरों में कोई नहीं रहता
जो गीत होटों पे खेले नहीं मुद्दत से
और जिन सुरों का आलाप किया नहीं सालों से
वे सर्फ हो गये न दीखने वाले
वक्त के बियावानों में
मैं सोचता था-
वे दीये बुझ चुके…
ContinueAdded by राज़ नवादवी on June 29, 2012 at 2:41pm — No Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |