(आज से उन्नीस वर्ष पूर्व लिखी रचना)
अपनी हताशा से फिर इक बार उठूँगा....
मैं मानता हूँ,
तुम्हारी उपेक्षा का प्रहार सह न सका
और गिर गया निराशा की कठोर धरा पे
अपनी व्यथा का भार लिए!
मैं मानता हूँ
मेरी पीड़ाका अतिस्राव
अभी और भी दुखायेगा मुझे
जब तुमसे बह कर आने वाली हवा
स्मृतियों का एक पूरा संसार
छोड जाएगी पीछे!
मैं मानता हूँ
अभी और भी जलेंगे
मेरी निद्राविहीन ऑखों में उलझनों के दिये!
जीवन की निरन्तरता में व्यतिक्रम
और भी होगा मगर
मैं अपनी हताशा से फिर इक बार उठूँगा
पहले की तरह स्वस्थ सबल होकर
और सोचूँगा
क्या हुआ तुम्हारी प्रवंचना के अवसाद में बह कर ???
© राज़ नवादवी
सोशल वर्क हॉस्टल, नई दिल्ली
१९९३
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