(आज से अट्ठारह वर्ष पूर्व लिखी रचना)
प्रणय.....
जिन संस्कारों ने
जीवन के साहसिक निर्णयों से वंचित रखा अब तक/
जिन इच्छाओं की काल्पनिक प्रतिबद्धताओं ने
वंचना और अवंचना के द्वंद्वों में
सीमायित रखा मुझे/
जो अनाख्यायित जिजीविषा
हर प्रवृति, हर लिप्तता में निभृत रही
और जिनसे उद्भास न हो सका सच का/
जिन मोहों को लेकर जीता रहा
उनका अभिशाप/
जो –दृष्टि नित्यानित्य के विवेक से पृथक
स्वप्नदर्शिता से आक्रांत रही/
संबंधों के सार की अन्वेषी सोच
जो उपाधियों से रिक्त न थी/
और न जाने क्या क्या चिंत्य और अचिंत्य-
जीवन के विपथगामी प्रवाह में
जब कभी तुम्हारे संबंधों को सोचता हूँ
तो लगता है
तुम्हारी स्मृतियों से इनके प्रणय जन्मांतर के हैं.
© राज़ नवादवी
चित्तौड़गढ़
(०३/१२/१९९४)
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