कृत्य हमरा महत्व कम रखता
(मधु गीति सं. १५२० दि. १७ नवम्बर, २०१०)
कृत्य हमरा महत्व कम रखता, स्वत्व हमरा जगत कृति करता;
अर्थ यदि अपना हम समझ पायें, स्वार्थ परमार्थ कर स्वत्व पायें.
कर्म उत्तम तभी है हो पाये, आत्म जब सूक्ष्म हमरा हो जाये;
ध्यान बिन स्वार्थ ना समझ आये, स्वार्थ बिन खोजे अर्थ न आये.
नहीं आनन्द यदि रहे उर में, दे कहाँ पांए उसे इस जग में;
रहें दुःख में तो कैसे सुख देवें, बिना खुद जाने खुदा क्या जानें.
समझना स्वयं का जरुरी…
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Added by GOPAL BAGHEL 'MADHU' on November 26, 2010 at 11:30am —
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ये रात शर्त लगाये बैठे है नजरे बोझिल करने की..
और हम ख्वाब सजाने की बगावत कर बैठे है ...
(वक्त के खिलाफ ये कैसी कोशिश ! ! )
यूँ भागती कोलाहल जिंदगी मे ..
कहाँ थी कोई ख़ामोशी..
हम छुपते रहे , पर वो वजह थी..
आखिर मुझे ढूंड ही लिया उसने ! !
(ये कैसी ख़ामोशी. थी ! ! )
राह बंदिशे से निकल कर चलने दे एक कारवां ...
वक्त की हाथो न रुक जाये एक खिलता हुआ जहाँ ..
(रोको न इसे खिलने से ! ! )
शिकन न दिखे इन चेहरों मे…
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Added by Sujit Kumar Lucky on November 25, 2010 at 11:30pm —
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कितनी बार कहा है तुमसे
रोना धोना बंद करो
हिम्मत करके तुम आगे बड़ो
अधिकारों के लिए अब खुद ही लड़ो
कभी हंसकर के जो तुमने
ये कुछ सपने संजोये थे
उन्हें साकार करने के लिए
तुम डटकर आज आगे बड़ो
हिम्मत ऐसी हो दिल में
कि हिम्मत खुद ही डर जाए
क्या हिम्मत दूसरों में फिर
जो तुझको रोकने आयें !
-अक्षय ठाकुर…
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Added by Akshay Thakur " परब्रह्म " on November 25, 2010 at 11:29pm —
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मुक्तिका:
सबब क्या ?
संजीव 'सलिल'
*
सबब क्या दर्द का है?, क्यों बताओ?
छिपा सीने में कुछ नगमे सुनाओ..
न बाँटा जा सकेगा दर्द किंचित.
लुटाओ हर्ष, सब जग को बुलाओ..
हसीं अधरों पे जब तुम हँसी देखो.
बिना पल गँवाये, खुद को लुटाओ..
न दामन थामना, ना दिल थमाना.
किसी आँचल में क्यों खुद को छिपाओ?
न जाओ, जा के फिर आना अगर हो.
इस तरह जाओ कि वापिस न आओ..
खलिश का खज़ाना कोई न देखे.
'सलिल' को…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 25, 2010 at 8:32pm —
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भारत के विकास में शिक्षा का अहम योगदान रहा है और आगे भी रहेगा। इस लिहाज से देखें तो देश की सुदृढ़ शिक्षा व्यवस्था को लेकर गहन विचार किए जाने की जरूरत है, मगर अफसोस, भारत में अब तक मजबूत शिक्षा नीति नहीं बनाई जा सकी है। नतीजतन, हालात यह बन रहे हैं कि भारतीय छात्रों को विदेशी जमीन तलाशनी पड़ रही है। स्कूली शिक्षा में भारत की मजबूत स्थिति और गांव-गांव तक शिक्षा का अलख जगाने का दावा जरूर सरकार कर सकती है, लेकिन उच्च शिक्षा में भी उतनी ही बदहाली कायम है। उच्च शिक्षा नीति और व्यवस्था में किसी तरह का…
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Added by rajkumar sahu on November 25, 2010 at 7:33pm —
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यूं तो छमिया रोज़ ही हाट से सब्जी बेचकर दिन ढले ही घर आती थी, पर आज तनिक देर हो गयी थी. वह थोड़ी देर के लिए अपनी मौसी से मिलने चली गयी थी. युग -ज़माना का हवाला देकर मौसी ने उसे यहीं रुक जाने को कहा था, पर बूढ़ी माँ को वह अकेले छोड़ भी कैसे सकती थी? जब वह मौसी के घर से चली थी तो सूरज अपनी अलसाई आँखें मुंदने लगा था. छमिया तेज-तेज डग भरने लगी , पर शायद रात को आज कुछ ज्यादा ही जल्दी थी. देखते ही देखते चारो ओर कालिमा पसर गयी. वह पगडण्डी पार कर रही थी. अचानक उसे बगल की झाड़ियों में खड़-खड़ की आवाज़…
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Added by satish mapatpuri on November 25, 2010 at 2:00pm —
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बैठी देख रही थी तारे..
जाने कितने ..कितने सारे..
छोटी थी तो गिनती थी..
ढेरों सपनों को बुनती थी..
'सप्तऋषि' 'ध्रुव' ढूँढती थी..
अनोखी आकृतियों पे हँसती थी..'
अक्सर देखा करती तारे..
जाने कितने..कितने सारे..
बीता बचपन,बदले सपने..
बदला ढंग देखने का तारे..
लगता था है मुझमें ज्ञान बहुत..
हर बहस जीत खुश होती थी..
अक्सर देखा करती तारे..
अब दूर बहुत लगते सारे..
कुछ… Continue
Added by Lata R.Ojha on November 24, 2010 at 11:30pm —
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आनंद व्यापक होता है
सारा संसार आनंद की खोज में मशगुल है. इस खोज में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है. रहे भी क्यों ? सभी जीवो को आनंद चाहिए क्योंकि यही उसके जीवन का उद्देश्य है.
आनंद की खोज ही मनुष्य का धर्मं है. आनंद की प्राप्ति ही मनुष्य चरम एवं परम उद्देश्य है. अपने इस प्रिय और परम प्रिय आनंद की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य आदिकाल से सतत संघर्ष करता आ रहा है.
अनंत कल का यह पथिक अनंत पथ पर चला जा रहा हा इ. हर दिन हर समय सोचता है अब अंत करीब है . लेकिन यह क्षितिज मृग…
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Added by Sachchidanand Pandey on November 24, 2010 at 9:16pm —
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कुछ दिनों पहले उसके पास
दो सौ रूपए का चश्मा था
बार बार उसके हाथों से गिर जाता था
और वो बड़ी शान से सबसे कहता था
मेहनत की कमाई है
खरोंच तक नहीं आएगी।
आज वो चार हजार का चश्मा पहनता है
मगर वो चश्मा जरा सा भी
किसी चीज से छू जाता है
तो वह तुरंत उलट पलट कर
ये देखने लगता है
कि कहीं चश्मे में
कोई खरोंच तो नहीं आ गई।
Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 24, 2010 at 9:00pm —
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मुक्तिका:
जीवन की जय गायें हम..
संजीव 'सलिल'.
*
जीवन की जय गायें हम..
सुख-दुःख मिल सह जाएँ हम..
*
नेह नर्मदा में प्रति पल-
लहर-लहर लहरायें हम..
*
बाधा-संकट -अड़चन से
जूझ-जीत मुस्कायें हम..
*
गिरने से क्यों डरें?, गिरें.
उठ-बढ़ मंजिल पायें हम..
*
जब जो जैसा उचित लगे.
अपने स्वर में गायें हम..
*
चुपड़ी चाह न औरों की
अपनी रूखी खायें हम..
*
दुःख-पीड़ा को मौन सहें.
सुख बाँटें…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 8:49pm —
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मेरी माँ
जब मेरी माँ २१ साल की थीं
रात के सघन अंधकार में,
तेरे आंचल के तले,
थपकियो के मध्य,
लोरी की मृदु स्वर-लहरियों के संग,
मैं बेबाक निडर सो जाती थी माँ |
और नित नवीन सुबह सवेरे
उठो लाल अब आंखें खोलो
कविता की इन पंक्तियों के संग
वात्सल्य का मीठा रस…
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Added by Dr Nutan on November 24, 2010 at 1:00am —
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आत्मीय!
मुशायरे के लिए लिख रहा था की समय समाप्त हो गया. पूर्व में भेजा पथ निरस्त करदें. इसे जहाँ चाहें लगा दें.
लीक से हटकर एक प्रयोग:
मुक्तिका:
संजीव 'सलिल'
*
हवा करती है सरगोशी बदन ये काँप जाता है.
कहा धरती ने यूँ नभ से, न क्यों सूरज उगाता है??
*
न सूरज-चाँद की गलती, निशा-ऊषा न दोषी हैं.
प्रभाकर हो या रजनीचर, सभी को दिल नचाता है..
*
न दिल ये बिल चुकाता है, न ठगता या ठगाता है.
लिया दिल देके दिल, सौदा नगद…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:53am —
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अस्तित्व
शाम गहराने लगी थी। उसके माथे पर थकान स्पष्ट झलकने लगी थी- वह निरन्तर हथौड़ा चला-चलाकर कुंदाली की धार बनाने में व्यस्त था।
तभी निहारी ने हथौड़े से कहा कि तू कितना निर्दयी है मेरे सीने में इतनी बार प्रहार करता है कि मेरा सीना तो धक-धक कर रह जाता है, तुझे एक बार भी दया नहीं आती। अरे तू कितना कठोर है, तू क्या जाने पीड़ा-कष्ट क्या होता है, तेरे ऊपर कोई इस तरह पूरी ताकत से प्रहार करता तो तुझे दर्द का एहसास होता?
अच्छा तू ही बता तू इतनी शाम से चुपचाप जमीन पर पसरी…
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Added by sanjiv verma 'salil' on November 24, 2010 at 12:00am —
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बोझिल मन... आँखें... सांसें...
ऐसा तारतम्य...
ना देखा आज से पहले...
ऐसी सांठ-गाँठ...
क्यों नहीं कर पाती यें... खुशियों में...???
जितना खोलनें की कोशिश करती...
उतनी ही इसकी गांठें और गुथती जाती...
और उन गांठों में फंसती जाती...
ज़िन्दगी... ... ...
धीरे-धीरे घुटती... गिरती... संभलती...
पर उफ़ ना करती...
शायद अब इस घुटन से...
इस उतार-चढ़ाव से...
बाँध ली थी उसने भी गांठें… Continue
Added by Julie on November 23, 2010 at 9:00pm —
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उसकी हिम्मत बनना,
तक़दीर मत बनना,
प्यार जरूर करना पर,
पाव की जंजीर मत बनना,
यादो मे बसना जरूर पर,
तस्वीर मत बनना,
जो जी मे आये लिखते जाओ,
कौन रोकेगा तुम्हे,
बस वो पढ़ने वाले नही रहे अब,
सो कवि तो बनना पर,
तुलसी और कबीर मत बनना |
Added by Binod Kumar Rai on November 22, 2010 at 2:00pm —
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प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
क्यों कोई बोले आप काम करते हो बेकार,
डी राजा को आपने इतना दिन बचाया,
कलमाड़ी को आप पैसा खूब कमवाया,
आपकी कृपा से पृथ्वी राज के सपना साकार,
प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
एन डी ए से ममता सरपट भागी थी,
आग बबूला हो गई थी बस एक ही घपला पे,
आज आपकी पल्लू पकड़ कर बैठी हैं,
सोचिए कितना अच्छा हैं आपका ब्यवहार,
प्रधान मंत्री जी आपको सादर नमस्कार,
अब तक जितने हुए घपले पूरे हिदुस्तान में,
सब से ज्यादा कहे…
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Added by Rash Bihari Ravi on November 22, 2010 at 11:00am —
3 Comments
ये रात अभी भी बाकी है ,
कुछ काम अभी भी बाकी हैं |
ये बात बहुत है छोटी सी ,
और दुनिया बदलना बाकी है |
पर दुनिया कि क्या बात करें , अभी
खुद को ही बदलना बाकी है ;
हम खड़े तो थे इस पार मगर ,
मीलों तक चलना बाकी है ;
ये रस्ता बहुत है संकरा सा , मगर
दुनिया को दिखाना बाकी है
पर दुनिया कि क्या बात करें ,
खुद भी तो चलना बाकी है |
ये रात अभी भी बाकी है ,
दिन को भी निकलना बाकी है
सूरज का चमकना बाकी है , और
किरणों का बिखरना बाकी है…
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Added by Akshay Thakur " परब्रह्म " on November 20, 2010 at 4:08pm —
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मुझे सपनो में जीने दो ,
हकीकत में कुछ कर नहीं पाता ,
झूठ मूठ झुंझलाता हूँ ,
लड़ मरने की चाहत मन में हैं ,
डर के मगर भाग जाता हूँ ,
जो कर नहीं पाता जाग जाग ,
वो सोकर मैं कर जाता हूँ ,
मुझे सपनो में जीने दो ,
आज सपने में डी राजा को ,
बहुत बहुत समझाया ,
बोला अरे ओ अनाड़ी,
ये क्या कर डाला ,
अरबो की गई हिंद के प्यारे ,
तूने कितना बनाया ,
झट से बोला वो मुझसे ,
गुरु जीवन सफल बनाया ,
जो हैं बाते वो ,
अब खुल कर हो जाने…
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Added by Rash Bihari Ravi on November 20, 2010 at 1:30pm —
4 Comments
आज सवेरे
था मौसम का मिजाज़
भी कुछ खुशनुमा-सा,
थी हल्की सी धूप
और ज़रा सा एहसास भी ठंड का,
थी दफ़्तर की छुट्टी
तो आज मन ने लगाई अपनी अर्ज़ी
इस मौसम का लुत्फ़ उठाएँ
समंदर किनारे सैर कर आएँ I
कंधे पर एक दरी उठाए
हाथ में लिए एक किताब
पहुँचा किनारे पर समंदर के,
तो देखा मैंने,
था आज समंदर
कुछ उदास,
खुद में खोया
चुपचाप
हो जैसे खुद से नाराज़ I
क़तरा क़तरा जुटाकर हिम्मत
थामे लहरों का हाथ
रखा…
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Added by Veerendra Jain on November 20, 2010 at 12:32pm —
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कैसे तुम्हें बताऊँ मैं जो टूटा मेरा दिल है
खाते तरस यदि जानते क्या मेरी मुश्किल है
मैंने सोचा मैं हूँ किश्ती तू मेरा साहिल है
पर न थी खबर मुझे कि तू ही मेरा कातिल है
तुझसे दिल लगा के मुझको क्या हुआ हासिल है
दिल पर जुल्म ढहाने वालों में तू ही शामिल है
जान न पाया था तुझको मैं तू न मेरे काबिल है
मेरी जिन्दगी में अब चरों तरफ गमों की ही महफ़िल है
अब होश मुझे जब आया खुद का तो आंख मेरी बोझिल है
देर से सही अब सोच रहा हूँ कि कहाँ मेरी मंजिल है
Added by Ajay Singh on November 20, 2010 at 11:47am —
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