आनंद व्यापक होता है
सारा संसार आनंद की खोज में मशगुल है. इस खोज में कोई किसी से पीछे नहीं रहना चाहता है. रहे भी क्यों ? सभी जीवो को आनंद चाहिए क्योंकि यही उसके जीवन का उद्देश्य है.
आनंद की खोज ही मनुष्य का धर्मं है. आनंद की प्राप्ति ही मनुष्य चरम एवं परम उद्देश्य है. अपने इस प्रिय और परम प्रिय आनंद की प्राप्ति के लिए ही मनुष्य आदिकाल से सतत संघर्ष करता आ रहा है.
अनंत कल का यह पथिक अनंत पथ पर चला जा रहा हा इ. हर दिन हर समय सोचता है अब अंत करीब है . लेकिन यह क्षितिज मृग मरीचिका साबित होती है. यह मिलन की घडी सुदूर आकाश के नीलिमा में समाई हुई क्षितिज में परिणत हो जाती है. और मनुष्य वही रह जाता है जहा से चला था. इस खेल में संसार के जो लोग अहम् भूमिका निभा गए वे आज पूजे जाते है. उन्हें भगवान की संज्ञा दी गयी. लेकिन मनुष्य की खोज का कोई सीमा निर्धारित नहीं हो सका और न ही किसी ने विराम लगाने में सफलता पी.
मनुष्य एक कदम दो कदम बढ़ता गया . कदम ताल करता गया लेकिन उसकी नियत योजना आजतक ज्यो की त्यों धरी पड़ी है.
विकास तो मनुष्य ने बहुत किया लेकिन एक मानव समाज नहीं बना पाया. अपनी ढफली अपना राग आज भी अलापा जा रहा है.
पूर्व में मनुष्य विभिन्न गोस्ठियो में रहता था और आज भी वही स्थिति है. बदलाव केवल नामकरण में हुआ है. आज दल बन गया है, हजारो जातियां बन गयी है , भगवaन से भेट करने वालो की आलिशान दुकाने खुल गयी, शाशन के नाम पर रंग विरंगे कल सर्प का झंडा फहराने लगा है. कितनी ममतामयी है मानवीय सभ्यता. चू नहीं करती. भोली भली गे के सामान प्रजातंत्र के बधशाला में चुपचाप चली जाती है. यही उसके जीवन की नियति बन गयी है.
जीवन उस ज्वालामुखी में समां जाता है जहाँ केवल मौत का इंतजार होता है और उसकी खोज उसी में विलीन हो जाती है. फिर जब उसका जन्म होता है वह पुनः उस यात्रा को जारी
करता है आगे बढ़ता है , आगे बढ़ रहा है और आज भी आगे बढ़ रहा है. रुकने का नाम नहीं लेता . क्योकि रुकना तो मौत है. जीवन का श्मशान है. चलते रहने के कारन ही तो मनुष्य सिद्धियों का अम्बार लगा पाया है. सफलता में कही कोई कमी नहीं लेकिन एक समाज नहीं बना पाया है.
समाज का अर्थ होता है जहा समानता है. समानं एजति इति समाजः. जहाँ कोई भेद नहीं हो सभी अपने हो. कानून हक़ हो अपनापन का. पर इस संसार में केवल गुटबाजी है - धर्मं के नाम पर, जाति के नाम पर, संस्था के नाम पर, पार्टी के नाम पर , एक गिरोह कार्य कर रहा है. उससे तबतक सम्बन्ध चलता है, जबतक स्वार्थ की पूर्ति होती रहती है लेकिन जैसे ही काम समाप्त होता है वह भी जीवन से अलग - थलग पड़ जाता है. इन सबके पीछे जो सबसे बड़ा कारन है वह है भूमासत्ता से अपने को दूर रखना.
मनुष्य का जीवन ईश्वरीय उपहार है . इसे मनुष्य अपनी बपौती संपत्ति समझ बैठता है जो मनुष्य की भरी भूल है और इस समझ के कारण उसे भारी कीमत चुकानी पड़ती है. इसलिए मनुष्य का कर्त्तव्य है की वह संसार को ईश्वरमय देखे. ऐसा करने पर वह स्वयं भी महान हो जायेगा तथा उसके जीवन का उद्देश्य भी पूरा हो जायेगा.
मनुष्य जब एक दूसरे को मेहँदी बाटने लगे तब उसे स्वयं को मेहँदी लगाने की जरुरत नहीं पड़ेगी. उसका जीवन धन्य हो उठेगा. क्योंकि उसके शारीर से, मन - प्राण से कुसंस्कार समाप्त हो गए होते है. उसके पास केवल उत्तम , स्वछ, निर्मल तत्त्व सक्रिय हो जाते है. उसके खजाने में आनंद का खजाना भर जाता है. वह तब जीव से शिव बन जाता है. जीव को शिव बनाना ही उद्देश्य है ग्राफो योग का. मनुष्य अनंत सुख का भागी बने. मनुष्य अपने समाज में रहे .
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