एक कविता आज के दौर के नाम....
पैसा है, उसका नशा है, और शोहरत है
अब कहाँ इतनी फुरसत है
लोगों के आसपास होने का अहसास नहीं होता
अपनों के खोने का डर आसपास नहीं होता
हसरतें, इतनी कि ख़त्म ही नहीं होती!
पाना ये , वो भी कि, सबर ही नहीं होती
स्नेह, प्यार, विश्वास शब्दों में अब गुजर नहीं होती
प्रकृति के नज़ारे भी लगते…
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Added by anupama shrivastava[anu shri] on December 26, 2010 at 7:00pm —
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कुछ उम्मीदें थीं खुद से तुझे
जुटाई थी हिम्मत उसके लिए
कुछ ऐसे तेरे लडखडाये कदम
जैसे लगी ठोकर कोई
वादे थे जो घबरा गए
होंगे वो पूरे अब नहीं
यादें थी जो संजोई तूने
काँटों सी वो चुभने लगीं
बढ़ने थे जो जमकर कदम
राहों में वो दुखने लगे
उभरी थी जो कश्ती बड़ी
भवर में कहीं खो गयी
कोन सी है मंजिल तेरी
वो ही है या वो नहीं
कोन सी है मुश्किल तेरी
कुछ है नहीं कुछ है नहीं
शायद वो कुछ बताता तुझे
आगे वो… Continue
Added by Bhasker Agrawal on December 26, 2010 at 6:58pm —
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ग़ज़ल
अज़ीज़ बेलगामी
ग़म उठाना अब ज़रूरी हो गया
चैन पाना अब ज़रूरी हो गया
आफियत की ज़िन्दगी जीते रहे
चोट खाना अब ज़रूरी हो गया
गूँज उट्ठे जिस से सारी काएनात
वो तराना अब ज़रूरी हो गया
जारहिय्यत के दबे एहसास का
सर उठाना अब ज़रूरी हो गया
अब करम पर कोई आमादा नहीं
दिल दुखाना अब ज़रूरी हो गया
साज़िशौं, रुस्वायियौं को दफ'अतन…
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Added by Azeez Belgaumi on December 26, 2010 at 2:00pm —
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आधुनिकता की चकाचौंध जिस तरह से समाज पर हावी हो रही है, उससे समाज में कई तरह की विकृतियां पैदा हो रही हैं। एक समय समाज में व्याप्त कुरीतियों के खिलाफ राजा राममोहन राय जैसे कई अमर सपूतों ने लंबी जंग लड़ी और समाज में जागरूकता लाकर लोगों को जीवन जीने का सलीका सिखाया। आज की स्थिति में देखें तो समाज में हालात हर स्तर पर बदले हुए नजर आते हैं। भागमभाग भरी जिंदगी में किसी के पास समय नहीं है, मगर यह चिंता की बात है कि इस दौर में हमारी युवा पीढ़ी आखिर कहां जा रही है ? समाज में इस तरह का माहौल बन रहा है,…
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Added by rajkumar sahu on December 26, 2010 at 1:25pm —
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ऐसे समय में
जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है
बाजार हो रहा है हावी
और आदमी बिक रहा है
कैसी बच सकेगी आदमियत
यह सोचना जरूरी है।
टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें
हकीकत नहीं है
और न ही पेज 3 पर के चेहरे
आज भी बच्चे
दो जून की रोटी के लिये
चुनते हैं कचरे
और करते हैं बूट पालिष
अरमानों को संजोये
हजारों लडकियां
पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में
और यही हकीकत है।
पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है
जब बाजार हो रहा है…
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Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:29pm —
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कुछ दिनो सेये शहर लगता उदास हैउपर से शान्त परअन्दर से बना आग है.कुछ दिनो सेसान्झ होते हीखिडकिया और दरवाजे हो जाते है बन्दऔर लोग अपने ही घरो मेहोकर रह जाते है कैद.कुछ दिनो सेलगता ही नही किरहता है यहा कोई आदमी… Continue
Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:26pm —
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कभी कोई अनजाना
अपना हो जाता है.
कभी किसी से
प्यार हो जाता है.
ये जरूरी नहीं
कि जो खुशी दे
उसी से प्यार हो.
दिल तोडने वाले से भी
प्यार हो जाता है.
जिन्दगी हर कदम पर
इम्तिहान लेती है,
तन्हाई हर मोड पर
धोखा देती है.
फिर भी हम
जिन्दगी से प्यार करते हैं
क्यूंकि हम किसी का
इंतजार करते हैं.
कुछ दोस्तों का
हां दोस्तों का
इंतजार करते हैं.
Added by sanjeev sameer on December 26, 2010 at 12:22pm —
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लघुकथा
एकलव्य
संजीव वर्मा 'सलिल'
*
- 'नानाजी! एकलव्य महान धनुर्धर था?'
- 'हाँ; इसमें कोई संदेह नहीं है.'
- उसने व्यर्थ ही भोंकते कुत्तों का मुंह तीरों से बंद कर दिया था ?'
-हाँ बेटा.'
- दूरदर्शन और सभाओं में नेताओं और संतों के वाग्विलास से ऊबे पोते ने कहा - 'काश वह आज भी होता.'
*****
रचनाकार परिचय:-आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' नें नागरिक अभियंत्रण में त्रिवर्षीय डिप्लोमा. बी.ई.., एम. आई.ई.,…
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Added by sanjiv verma 'salil' on December 26, 2010 at 12:06pm —
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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:30am —
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सुबह फिर…
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Added by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 1:00am —
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एकाकी, एकाकी
जीवन है एकाकी...
मैं भी हूँ एकाकी,
तू भी है एकाकी,
जीवन पथ पर चलना है
हम सबको एकाकी I
ना कोई तेरा है,
ना है किसी का तू,…
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Added by Veerendra Jain on December 26, 2010 at 12:00am —
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ग़ज़ल
फ़र्ज़ के पैगाम का बस, उम्र भर ये स्वर सुना है |
युग विजेता बन मनुज तू , जिसने ये अम्बर बुना है ||
वो कि - जो बैठे हुए थे खुद किनारों पर कहीं,
कह रहे थे - खास गहरा नहीं ये सागर, सुना है ||
कल न जाने बात क्या थी ? आसमां नीचा लगा,
आज जब उँचाई उसकी नाप ली तो सिर धुना है ||
लौट कर आया नहीं, उस ख़त के बदले कोई… Continue
Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 25, 2010 at 7:46pm —
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Added by madan kumar tiwary on December 25, 2010 at 6:30pm —
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ग़ज़ल
भारत माता माँग रही है - इस नीति से पूर विधान |
जिसमें हों सब भाई बराबर, जाति - धर्मं से दूर, समान ||
जिसमें किसी की हो न उपेक्षा, मिले बराबर का अधिकार,
सब हों माँ के एक से बेटे- अधिकारी, मजदूर, किसान ||
तंग दिलों से बाहर आ कर, आओ, रचें हम वह संसार.
जिसमें सुख की हो सुगंध पर हों न दुखों के क्रूर निशान ||
बात जोहती है भारत माँ , बेटों के इस न्याय का ,
जिसकी … Continue
Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 25, 2010 at 11:35am —
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चौपाई सलिला: १.
क्रिसमस है आनंद मनायें
संजीव 'सलिल'
*
खुशियों का त्यौहार है, खुशी मनायें आप.
आत्म दीप प्रज्वलित कर, सकें
क्रिसमस है आनंद मनायें,
हिल-मिल केक स्नेह से खायें.
लेकिन उनको नहीं भुलाएँ.
जो भूखे-प्यासे रह जायें.
कुछ उनको भी दे सुख पायें.
मानवता की जय-जय गायें.
मन मंदिर में दीप जलायें.
अंधकार को दूर भगायें.
जो प्राचीन उसे अपनायें.
कुछ नवीन भी गले लगायें.
उगे…
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Added by sanjiv verma 'salil' on December 25, 2010 at 11:00am —
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नैनीताल,
कड़ाके की ठण्ड थी..हम परिवार के साथ होटल से नेना देवी मंदिर, पैदल पैदल जा रहे थे..
पिताजी ने कडकडाती आवाज में माँ से कहा : " अरे जरा हैण्ड बैग मफलर तो निकाल दो "
चलते चलते अचानक वो रुक गए और कुछ देखने लगे..
सामने चबूतरे पे एक पागल सा दिखने वाला आदमी अधनंगी हालत में सुकड़ के बैठा कुछ खा रहा था..
माँ हैण्ड बैग से मफलर निकालते हुए बोली : " क्या हुआ.. रुक क्यों गए?..ये लो मफलर "
पिताजी ने झुके से स्वर में कहा : " अब रहने दो "
Added by Bhasker Agrawal on December 25, 2010 at 10:54am —
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ग़ज़ल
मेरे दिल को जलाने वाले, खुदा तेरा भी दिल जलाए |
मुझे जो तूने दिया है ये गम, तेरे भी दिल को सुकूँ न आये ||
मेरी मुहब्बत न तूने समझी, मुझे जो तूने दिया है ये गम,
खुदा तुझे भी अमन न बख्शे , तेरे चमन को खिज़ां जलाये ||
मेरी वफ़ा को जूनून कहकर, मुझे जो तूने कहा है पागल,
तुझे सजा दे खुदाई इसकी, दर्द तुझको गले लगाए ||
जफा के खंज़र, का ये कातिल, दर्द क्या… Continue
Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 24, 2010 at 11:05pm —
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लोग इतने बदल गए ज़माना इतना बदल गया
बदले जुबां के रंग उनके, तराना इतना बदल गया
निकलते हैं जब अल्फाज उनके, कुछ अजीब से लगते हैं
ऊपरी शोहरत पाकर भी वो गरीब से लगते हैं
वो भोलापन नहीं अब बातों में उनकी
दिल से निकले भाव भी तहजीब से लगते हैं
होकर सामने भी छुरा पीठ पर मारा मेरे
फिर भी दिल निकाल ना पाए
मेरे कातिल मुझे बड़े बदनसीब से लगते हैं
गले में पड़ा हार जब साँसों की तकलीफ बन गया
तब दिखावे की सजा मालूम हुई
कल बेआबरू होते देखा उन्हें बाज़ार…
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Added by Bhasker Agrawal on December 24, 2010 at 10:57pm —
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ग़ज़ल
दोस्तों, कुछ रात ऐसी भी थी, जब सोया नहीं मैं |
दर्द से तड़पा बहुत पर चीख कर रोया नहीं मैं ||
कोई शीशा सा तड़क कर, टूट, दिल में आ चुभा,
इसलिए उस रात भर तक, ख्वाब में खोया नहीं मैं ||
कौन सी मंजिल है किसकी और कहाँ किसका मकाँ ?
कौन है इस राह पर भटका हुआ, वो या कहीं मैं ?
ज़िन्दगी के मायने, अहसान … Continue
Added by Abhay Kant Jha Deepraaj on December 24, 2010 at 10:55pm —
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जनक छंदी सलिला: २
संजीव 'सलिल'
*
शुभ क्रिसमस शुभ साल हो,
मानव इंसां बन सके.
सकल धरा खुश हाल हो..
*
दसों दिशा में हर्ष हो,
प्रभु से इतनी प्रार्थना-
सबका नव उत्कर्ष हो..
*
द्वार ह्रदय के खोल दें,
बोल क्षमा के बोल दें.
मधुर प्रेम-रस घोल दें..
*
तन से पहले मन मिले,
भुला सभी शिकवे-गिले.
जीवन में…
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Added by sanjiv verma 'salil' on December 24, 2010 at 9:30pm —
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