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ऐसे समय में
जब आदमी अपनी पहचान खो रहा है
बाजार हो रहा है हावी
और आदमी बिक रहा है
कैसी बच सकेगी आदमियत
यह सोचना जरूरी है।

टीवी पर दिखती रंग बिरंगी तस्वीरें
हकीकत नहीं है
और न ही पेज 3 पर के चेहरे
आज भी बच्चे
दो जून की रोटी के लिये
चुनते हैं कचरे
और करते हैं बूट पालिष
अरमानों को संजोये
हजारों लडकियां
पहुंच जाती हैं देह मंडी के बाजार में
और यही हकीकत है।

पूरी दुनिया की भी यही तस्वीर है
जब बाजार हो रहा है हावी
तो इनकी
किसी को भी फिक्र नहीं है
बावजूद इसके
जब हमें बचना है
आदमियत को बचाना है
तो इसपर सोचना जरूरी है।

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Comment by Bhasker Agrawal on December 29, 2010 at 1:40pm
सच कहा सोचना जरूरी है..और उम्मीद है  ये जल्द ही होगा
Comment by Neelam Upadhyaya on December 28, 2010 at 10:03am

Hamare aaj ke samaj ke katu yatharth yahi hai.  Bahut hi satik rachna.

Comment by prabhat kumar roy on December 28, 2010 at 8:16am
It is vary good poem written by sanjeev sameer, full of passion & emotion. congrats!
Comment by Rash Bihari Ravi on December 27, 2010 at 3:10pm
namaskar sir khubsurat rachna ke liye dhanyabad
Comment by sanjiv verma 'salil' on December 26, 2010 at 9:32pm
कटु यथार्थ... शोचनीय... नेताओं और अफसरों ने देश को दुनिया की सबसे बड़ी
मंदी बना दिया है और इसे वे अपनी सबसे सफलता मानते हैं. बिक तो दोनों रहे
हैं स्त्री भी और पुरुष भी. मन गौड और तन प्रमुख हो गया है.
Comment by Lata R.Ojha on December 26, 2010 at 4:11pm
sach kahaa aapne ,baazaarvaad insaaniyat pe haavi ho raha hai har oar ..aur is gambheer prashn ko bahut achche se aapne  uthaaya hai.badhai..

मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 26, 2010 at 2:50pm

वाह वाह संजीव जी, यक़ीनन सोचना जरूरी है, आज कल की परिस्थितियों का सटीक चित्रण करती एक बेहतरीन काव्यकृति |बाजारवाद और पूजीवाद हावी है हमारे समाज पर, लडकिया भी छडिक सफलता के लिये सब कुछ दाव पर लगाने को तैयार होती है जिसका परिणति है दैहिक शोषण |

बहरहाल इस शानदार अभिव्यक्ति पर बधाई स्वीकार कीजिये |

Comment by Manish Kumar on December 26, 2010 at 2:22pm
gr8 sanjeev ji , nice work, seriously sochna jaruri hai.,,,,,,

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