आदरणीय साथिओ,
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जनाब, आदाब बहुत शानदार लघुकथा हुई है
बहुत शानदार कथानाक और प्रस्तुतिकरण , हार्दिक बधाई इस शानदार रचना के लिए आदरणीय समर कबीर जी
आदरणीय समर कबीर भाईजी
बहुत सुंदर और संदेशपरक लघु कथा। ऐसी कथायें बच्चों को अवश्य सुनानी चाहिए ताकि ईश्वर के प्रति उनका विश्वास और मजबूत हो।
हार्दिक बधाई स्वीकार करें।
हार्दिक बधाई आदरणीय समर क़बीर साहब जी।आदाब।आपकी लघुकथा लेखन मे पकड़ गज़ब कर रही है। दिन प्रति दिन नये विषय के साथ नये अध्याय जोड़ते चले जा रहे हो।इस बार तो आपने बहुत ही शानदार लघुकथा प्रस्तुत की है।
आदाब | “अल्लाह अपने हर बन्दे को भूखा उठाता ज़रूर है, मगर भूखा सुलाता नहींI” लघुकथा हमारी धार्मिक मान्यताओं को पुख्ता कर रही है कि प्रभु अपने बन्दों का ख्याल रखते है भले इंसान प्रभु को याद न करें | इन्सान अपने अहम में प्रभु के बनाये नियम तोडना चाहे तो भी नही तोड़ पाता |इश्वर के प्रति आस्था जगाती सुंदर लघु कथा के लिए बहुत बहुत बधाई आदरणीय समर कबीर साहब |
इस सन्देशप्रद और उत्तम रचना के सृजन हेतु सादर बधाई स्वीकार करें आदरणीय समर कबीर जी साहब|
(१) लघुकथा : इंसानियत
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असमय मृत अपने जवान बेटे का अंतिम संस्कार करने हेतु गंगुआ शमशान घाट पर एक तरफ बैठा था और दूसरी तरफ शहर के नामी सेठ के वृद्ध पिता के दाह संस्कार की तैयारी चल रही थी. डोम राजा मुखाग्नि देने हेतु सेठ से ५१ हजार दक्षिणा की मांग कर रहे थे.
इधर गंगुआ का कलेजा यह सब देख सुन कर बैठा जा रहा था कि वह बेटे का दाह संस्कार कैसे कर पायेगाI खैर जैसे तैसे बात 31 हजार दक्षिणा पर बन गयी. अगले दाह संस्कार पर भी डोम राजा बीस हज़ार रुपया लेकर माना.
अब बारी गंगुआ की थी, दाह संस्कार की तैयारी होने लगी, गंगुआ मन ही मन भयभीत हो रहा था, उसके पास तो कुल जमा बामुश्किल तीन चार सौ रुपये ही है कैसे वो डोम राजा को दक्षिणा दे पायेगा.
डोम राजा सभी संस्कार कराते जा रहे थे, बगैर दक्षिणा मांगे मुखाग्नि भी दे दी. गंगुआ से रहा नहीं गया और डरते डरते पूछ ही लिया:
“डोम राजा आपकी दक्षिणा......?”
“जो समझ आये दे देना यजमान”
“पर...मेरे पास तो कुल जमा यही ......” 3-4 मैले कुचैले नोट उसके आगे करते हुए गंगुआ ने कहाI
“कोई बात नहीं, आप बस १०० रूपया दे दीजियेI”
अविश्वास भरी आँखों से गंगुआ ने उसकी तरफ देखा तो डोम राजा ने उसके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा:
“हम डोम ही सही, मगर इंसान इंसान में फर्क जानते हैं यजमान.”
(२) लघुकथा : बाज़ार
“पापा शाम को तैयार रहिएगा, हम लोग शोपिंग के लिए चलेंगे”
बहू यह कहते हुए पति के साथ ऑफिस के लिए निकल गयी थी.
सिन्हा जी को गाँव से आये तक़रीबन तीन महीने हो गये थे, घर में बंद-बंद उनका दम घुटने लगा था, करे भी तो क्या करें सत्तर की उम्र और अस्वस्थता के कारण अकेले कही आने जाने में असमर्थ थे. कई बार बेटा-बहू से मार्निंग वाक पर साथ ले चलने को कहते भी थे किन्तु बेटा-बहू उनकी एक न सुनते और उन्हें अकेला छोड़ स्वयं डॉगी को साथ लेकर चले जाते.
बाबूजी आज खुश थे और जल्दी-जल्दी तैयार हो रहे थे, बहू-बेटा भी ऑफिस से आकर शोपिंग के लिए तैयार हो गए.
“पापा, आप तैयार हो गए न ? चलिए जल्दी कीजिये.... और हाँ आप अपना आधार कार्ड रख लीजियेगा.”
“आधार कार्ड क्यों ?”
“पापा शोपिंग मॉल में अभी छूट चल रही है, जितनी उम्र उतने परसेंट की छूट ....
(मौलिक और अप्रकाशित)
भाई गणेश बागी जी, वाह! दोनों लघुकथाएँ दिल खुश करने वाली हैंI सबसे ख़ास बात ये कि बहुत नापतोल कर लिखी गई हैं दोनों हीI कहीं भी कोई फालतू शब्द नज़र नहीं आ रहाI दोनों कथाओं की पंच लाइन्स का तो जवाब ही नहींI बहुत बहुत बधाई स्वीकार करेंI
लघुकथा के महारथी से सराहना पाना किसी के लिए भी मायने रखता है, बहुत बहुत आभार आदरणीय गुरुदेव योगराज जी.
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