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आदरणीया डॉ वर्षा जी, आपने वैधव्य जीवन के मर्म को प्रदत्त विषय के अंतर्गत बहुत सार्थक शब्द दिए है. एक बहुत ही बढ़िया लघुकथा लिखी है. इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकारें. सादर
मोहतरमा वर्षा चौबे साहिबा , रंग पर आधारित अच्छी लघु कथा के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं
किसी नारी के मन का दर्द कोई नारी ही समझ सकती है , आपने समझा डा साहिबा। अंतिम पंक्ति तो बहुत ही मार्मिक है। // सारे रंग उन आँसुओं में धुलकर धवल हो रहे थे| //
सफ़ेद साडी औरत को मिली उस गलती की सजा है , जो उसने की ही नहीं। पुरुष-प्रधान की नज़र कितनी कमज़ोर है ,आज भी। लेखकों की कलम यूँ ही चलती रही तो कभी न कभी दिन निकलेगा ही।
हार्दिक बधाई आदरणीय वर्षा चौबे जी !बेहद सुन्दर और मार्मिक प्रस्तुति!वैधव्य का बोझ ढोना एक कठोर और संकल्प पूर्ण कर्तव्य है!कितनी परेशानियों और उलझनों का सामना करना पडता है!
वाह, बहुत ही भावपूर्ण रचना है आ० वर्षा चौबे जीI लाल-पीली साड़ियों का आँसुओं से धुलकर धवल हो जाने का ख्याल मन मोह ले गयाI हार्दिक बधाई प्रेषित हैI
हृदयस्पर्शी रचना !सारे रंग उन आँसुओं में घुलकर धवल हो रहे थे.......बेहतरीन पंक्ति!
अलमारी से अपनी लाल -पीली साड़ियों में मुँह छिपाए रोए जा रही थी और सारे रंग उन आँसुओं में धुलकर धवल हो रहे थे / नम कर दिया इन पंक्तियों ने , बहुत मार्मिक प्रस्तुति , हार्दिक बधाई प्रेषित है आदरणीया वर्षा जी
आदरणीया वर्षाजी, आपको पहली दफ़ा पढ़ रहा हूँ. इस मंच पर आपका स्वागत है. आयोजन में आपकी सशक्त सहभागिता आश्वस्त कर रही है. हार्दिक शुभकामनाएँ
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