अकुलायी थाहें
कटी-पिटी काली-स्याह आधी रात
पिघल रहा है मोमबती से मोम
काँपती लौ-सा अकुलाता
कमरे में कैद प्रकाश
आँखों में चिन्ता की छाया
ऐसे में समाए हैं मुझमें
हमारे कितने सूर्योदय
कितने ही सूर्यास्त
और उनमें मेरे प्रति
आत्मीयता की उष्मा में
आँसुओं से डबडबाई तेरी आँखें
तैर-तैर आती है रुँधे हुए विवरों में
तेरी-मेरी-अपनी वह आख़री शाम
पास होते हुए भी मुख पर गंभीरता
तिमिर भरे पथ पर आशंका थी तुममें
रह-रह कर मुझको भी डर था बहुत
कोई एक ख़याल था झकझोरता रहा
भयानक थर-थर
अपरिमित पीड़ा भीतर
वह आख़री शाम
आँसुओं के अतिरिक्त
सच में ...आख़री न हो
उस असाधारण शाम
जाने क्यूँ काँपते-सिहरते हुए
समय को पकड़ने की
थी रह-रह कर तड़पती कोशिश
आसपास दुख भरे लहज़े में थीं
कई गहरी कब की शिकायतें
कुछ उफ़नते उलझे नुकीले नतीजे भी
अब अप्रासंगिक-से, इनके कोई मान्य नहीं थे
भीतर दुख की अँधेरी खोह में
अकस्मात उठते-गिरते हमारे मन ....
ठहरता नहीं है क्यूँ ... कुछ भी मुट्ठी में
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
आदरणीय विजय निकोर जी, सुंदर रचना । बधाई स्वीकार करें ।
वाह अप्रतिम , बेहतरीन भावाभियक्ति
ठहरता नहीं है क्यूँ ... कुछ भी मुट्ठी में .... उफ़ ! कितना दर्द,कितनी व्यथा , कितनी बेचैनी , कितने काल इस एक पंक्ति में समाये हैं सर .... इस अप्रतिम अभिव्यक्ति के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें सर।
आदरणीय महेन्द्र जी, आपने सही कहा, संशोधन कर रहा हूँ। सराहना के लिए आभार।
बढ़िया कविता है आदरणीय विजय निकोर जी. मेरी तरफ़ से भी हार्दिक बधाई प्रेषित है.
संभवतः निम्न पंक्तियाँ इस प्रकार होंगी :
1. पिघल रहा है मोमबत्ती से मोम
2. कितने ही सूर्यास्त
देख लीजिएगा. सादर.
आदरणीय विजय निकोरे जी इस सुन्दर भावपूर्ण सृजन के लिये हार्दिक बधाई
आ. भाई विजय जी, सादर अभिवादन । सुंदर भावपूर्ण रचना हुयी है । हार्दिक बधाई ।
आदरणीय विजय निकोर जी आदाब,
ढलती साँझ की प्रतीक्षा में
अब मौन भी उबासियाँ लेने लगा
रात का घोर तिमिर डराएगा
प्रकाश भीतर जलने लगा
आतुरता की प्रासंगिकता भी खत्म हो गई
घोसलें भी प्रतीक्षा में
पंछी धीरे-धीरे लौटने लगे
हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।
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