16,16 पर यति,चार पद, दो-दो पद समतुकांत
बढ़ती जाती है आबादी,रोजगार की मजबूरी है
पैसे की खातिर देख बढ़ी,किस-किस से किसकी दूरी है
उस बड़े शहर में जा बैठे, घर जहाँ बहुत ही छोटे हैं
विचार महीन उन लोगों के, जो दिखते तन के मोटे हैं
पहले गाँवों में बसते थे,घर आँगन मन था खुला-खुला
थोड़े में भी खुश रहते थे,हर इक विपदा को सभी भुला
कोई कठिनाई अड़ी नहीं,मिल उसका नाम मिटाते थे
जो रूखा-सूखा होता था,सब साथ बाँट कर खाते थे
तब धमा चौकड़ी होती थी,खेतों की टेढ़ी मेढ़ों पे
बचपन खिलकर पकता रहता,अमरूद, पपीते, बेरों पे
तब चने मटर की फलियां थी,गाजर,मूली शलगम होते
खेत भले थोड़ा था अपना,लेकिन दद्दू सब कुछ बोते
अब बचपन दबा किताबों से,डूबा रहता कुछ खेलों में
कम्प्यूटर,चालित फोन मिले, बहका बस इनके मेलों में
खेत सुरक्षित रहे नहीं हैं,बचपन की उनसे दूरी है
ज़हर छिड़कना है खेतो में,ऐसी भी तो मजबूरी है
सोच समझ कर अब चलना है,धरती को स्वर्ग बनाना है
जल-जीवन सबकुछ निर्मल हो,वातावरण वही लाना है
वन-उपवन से रहे महकती औ हवा जमीं की पावन हो
कुछ ऐसे कदम उठाए हम,जीवन सबका मन भावन हो
मौलिक एवं अप्रकाशित
Comment
आदरणीय धामी सर बहुत बहुत आभार हौंसलाफ़ज़ाई के लिए
आदरणीय तस्दीक अहमद जी ,उत्साहवर्धन के लिए तहेदिल शुक्रिया
आ. भाई सतविंद्र जी, सुंदर रचना हुई है । हार्दिक बधाई ।
जनाब सतविंद्र कुमार साहिब ,सुन्दर सवैया छन्द हुए हैं ,मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
आदरणीय महेंद्र कुमार जी हौंसलाफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत आभार आपका
आदरणीय समर कबीर जी,सादर हार्दिक आभार उत्साहवर्धन के लिए
आदरणीय सुरेन्द्र नाथ भाई जी,उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत आभार
बढ़िया प्रस्तुति है आ. सतविन्द्र जी. हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए. सादर.
जनाब सतविन्द्र कुमार जी आदाब,बढ़िया छन्द,बधाई स्वीकार करें ।
आद0 सतविंदर भाई जी सादर अभिवादन। बेहतरीन मत्त सवैया पर बधाई स्वीकार करें। सादर
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